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    गुरुदेव के संस्मरण ~ जानकी बाबा

    गुरुदेव का परिवार उनके जन्म के पहले से ही संतों और सिद्ध पुरूषों से जुड़ा हुआ था। उनके परिवार पर सन्त जानकी बाबा की विशेष कृपा थी।
    वह उनके घर हमेशा आया करते थे और माता देशरानी देवी और बालक (सद्गुरु सिद्धार्थ औलिया जी) पर खूब प्यार और आर्शीवाद बरसाते।

    जानकी बाबा गौर वर्ण के थे। उनके चेहरे पर ओजस्विता और तेजस्विता की चमक थी। उनकी शांत आँखों की चमक मानो ऐसा कहती थी कि जैसे वह अस्तित्व के कुछ गहरे राज़ों को जानते हैं, कुछ ऐसे गहरे राज़ जिनको जानने के लिए एक जीवन कम है।

    जानकी बाबा की आयु उस समय 70 साल से अधिक थी, जब बालक सिद्धार्थ ने उनको पहचानना शुरू किया।

    एक ही तो परिपक्वता है, अपने भीतर की शांत झील में लहर न उठने देना, संसार के शोर शराबे में भीतर का मौन न डगमगाने देना, अपना स्मरण रखना, अपनी याद रखना, अपनी आत्मा के प्रकाश में सदा प्रकाशित रहना, यही तो सारी साधना है।

    जानकी बाबा की परिपक्वता उनके होने से बहती थी।
    उनकी प्रत्येक भाव भंगिमा में एक अद्भुत मार्धुर्य और सौन्दर्य था। जीवन में जिनका भी हमारे जीवन में कुछ गहन प्रयोजन होता है, वो न जाने कहां-कहां से आकर हमारे जीवन में शामिल होते जाते हैं और ऐसे ही जीवन की न बदली जा सकने वाली कहानियां बनती जाती हैं।

    कुछ महान चेतनाएं हमारे भीतर कुछ अमिट छाप छोड़ जाती हैं। कुछ ऐसा पुष्पित और पल्लवित कर जाती हैं, जिनकी छाप हमारे पूरे जीवन के हर पल पर रहती है।

    बालक सिद्धार्थ के अर्न्तमन में जानकी बाबा के व्यक्तित्व की गहरी छाप पड़ी।
    जानकी बाबा की अविचल चेतना की गूँज बालक सिद्धार्थ के भीतर के मौन के स्वर को और भी मुखर कर देती थी।
    काफी आयु के होने के बावजूद जानकी बाबा अपना भोजन खुद बनाया करते थे और गाँव-गाँव घूमते रहते थे। कहीं भी जाने के लिए उन्होंने कभी किसी भी तरह के वाहन, जैसे बैलगाड़ी या रेल या बस, का उपयोग कभी नहीं किया। पैदल ही भ्रमण किया करते थे।
    किसी भी स्थान पर 3 दिन से अधिक नहीं रूकते थे।

    जानकी बाबा एक पारंपरिक संन्यासी थे और परिव्राजक थे। पुराने संतो की जीवनी में आपको अक्सर ऐसे सन्यासियों का जिक्र मिल जाएगा जो परिव्राजक थे, और संन्यास के कठोर नियमों का पालन करते थे।

    जानकी बाबा संन्यास के कठोर नियमों का पालन करते थे। न तो वे किसी स्थान पर अधिक रूकते थे, न ही कहीं बंधते थे। वह 'मैं' और 'मेरा' के बन्धनों से सर्वथा मुक्त थे।

    एक बार तपती लू की भरी दोपहर में गुरुदेव को चार मील दूर पास के गांव जाने की जरुरत पड़ी। गर्मी बहुत तेज थी, जैसे तप्त गर्मी प्राण ही ले लेगी, ऐसा उन्हें महसूस हो रहा था। रास्ते में डीलियां गांव के पास पहुँचते ही पानी पीने की प्रबल इच्छा ने उन्हें घेर लिया, पर पानी तो साथ था नहीं।

    आस पास नज़र दौड़ाई, दूर-दूर तक न तो कोई आदमी, न ही किसी प्रकार के जीवन का निशान। बस तप्त तेज़ धूप। तप्त धूप ने उनके प्राणों में बहती उर्जा को जैसे सुखा दिया। ऐसा लगा दूर कहीं पानी का स्रोत हैं, लेकिन वह भी मन का भुलावा, मृग-मरिचिका ही साबित हुआ।

    उन्हें लगा कि वह बेहोश होकर गिर पड़ेंगे। तभी सामने से जानकी बाबा आते हुए दिखे।

    बड़ी सी पगड़ी बांधे और लाठी टेकते हुए वह किसी दिव्य पुरूष के समान लग रहे थे।

    प्यास के मारे बालक सिद्धार्थ के मुख से शब्द नहीं निकल रहे थे।

    मन में संशय भी था, बाबा तो मिल गए, लेकिन पानी तो इनके पास भी नहीं होगा। पहले तो बालक सिद्धार्थ को विश्वास ही नहीं हुआ कि यह वास्तव में जानकी बाबा हैं, या उनके मन का वहम है। हाथ लगाकर उनको छू कर देखा।
    जानकी बाबा ही थे।

    जानकी बाबा मुस्कुराए और बोले, बबुआ बहुत प्यास लगी हैं?
    बालक सिद्धार्थ ने सिर हिलाया।

    जानकी बाबा एक कुएं पर ले गए। सौभाग्य से वहां बाल्टी और डोरी भी थी।

    साफ और ठण्डा जल पीकर बालक सिद्धार्थ कुछ देर सँभले।

    ऐसा लगा मानो प्राण में प्राण आ गए हों। ऐसा लगा मानो फिर से नस-नस में जीवन की कौंध उठी, फिर से भीतर कुछ होश जगा।

    बालक सिद्धार्थ के संभलते ही जानकी बाबा बाबा ने कहा इस भरी दोपहर में कहीं जाना ठीक नहीं। अपने गांव वापिस लौट जाओ।

    जानकी बाबा की बात मान बालक सिद्धार्थ गांव की ओर लौट चले। वापिस चलते हुए अभी कुछ ही वक्त हुआ था कि अचानक उनको ख्याल आया कि जानकी बाबा को भी अपने साथ गाँव ले चलूँ। मुड़कर देखा तो जानकी बाबा का दूर-दूर तक कोई अता-पता नहीं था।

    इस तरह बालक सिद्धार्थ के प्राणों को संकट में देखकर जानकी बाबा अज्ञात जगत से उनके प्राणों की रक्षा के लिए आए।

    1955 में बालक सिद्धार्थ नेतरहाट स्कूल में पढ़ने चले गए। लेकिन जानकी बाबा उनके घर समय -समय पर आते रहे। हर साल नवरात्र में विंध्याचल जाने के पूर्व तो अवश्य आते और माता से अनुरोध करते, कि वह उन्हें बालक सिद्धार्थ के पुराने कपड़े दें। उन कपड़ों को वह अपने साथ ले जाया करते थे और कई बार वही पहन भी लेते थे। संभवतः उन्हें बालक सिद्धार्थ के आने वाले भविष्य का आभास था। वे अपने भीतर के प्रकाश से यह जानते थे कि बालक सिद्धार्थ आने वाले जीवन में हज़ारों के दिलों पर राज करेंगे।

    जिसको प्रभु चाहता है, उसके भीतर अज्ञात की प्यास पैदा कर देता है। एक ऐसी प्यास, जो किसी भी वस्तु से नहीं भरती, उस प्यास को पैदा करने के लिए एक ऐसा व्यक्ति उसके जीवन में भेजता है, जो उस अज्ञात लोक में अपनी इच्छा से आ जा सकता है, जिसका होना दूसरी दुनिया की खबर देता है। उसके भीतर उस अज्ञात लोक की झलक पाकर हम भी उस पार जाने को आतुर होते हैं।

    ऐसे ही जानकी बाबा ने बालक सिद्धार्थ के अवचेतन में ध्यान और भक्ति का बीज डाला।

    जानकी बाबा बालक सिद्धार्थ से पिता से भी अधिक प्रेम करते थे। यूँ ही तो कुछ रिश्ते बन जाया करते हैं, जिनकी डोर साँसारिक बन्धनों से भी अधिक मजबूत होती है। प्रेम और मैत्री का रिश्ता सब सांसारिक रिश्तों से ऊपर है।
    बालक सिद्धार्थ के जन्म के बाद जानकी बाबा लगभग हर महीने उनके घर आया करते थे।

    जानकी बाबा के पास यक्षिणी सिद्धि थी।
    अपने हाथ हवा में लहरा कर वह मनचाही वस्तु प्राप्त कर सकते थे।

    बालक सिद्धार्थ बाबा से कभी काजू, किशमिश माँगते तो जानकी बाबा उनकी हर इच्छा पूरी किया करते थे।

    बालक सिद्धार्थ ने कई बार जानकी बाबा से इसको सिखाने के लिए कहा। लेकिन जानकी बाबा बालक सिद्धार्थ को मना कर देते और कहते बेटा, तुम्हारा जीवन इन छोटी-मोटी सिद्धियों को पाने के लिए नहीं हैं, तुम्हें बहुत बड़ा काम करना है।

    बालक सिद्धार्थ जानकी बाबा की यह बात सुनकर चुपकर जाते थे।

    भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है, इसकी थाह पाना मुश्किल है, लेकिन यदि कुछ हम अपने भाग्य में लिखवा कर लेकर आएं हैं, तो समय आने पर स्वतः ही उसके रास्ते बनते जाते हैं।

    समय बीतता गया। 1960 के दशक में जानकी बाबा ने परिपक्व आयु में देह त्याग कर दिया। गुरुदेव जानकी बाबा की मृत्यु की खबर अपने मामा से मिली जो कि जानकी बाबा के शिष्य थे। मृत्यु से पहले जानकी बाबा ने मामा जी द्वारा यह कहलवाया कि सिद्धार्थ को आने वाले जीवन में बहुत बड़ा कार्य करना है। बाबा की मृत्यु की खबर सुनकर एक खालीपन गुरुदेव के भीतर पैदा हो गया, एक बेहद उदासी की दशा ने उन्हें घेर लिया।

    उन्हें अफसोस था कि जानकी बाबा से जो वह सीख सकते थे, उसे वह सीख नहीं पाए।

    किशोर अवस्था में ही स्वयं को जानने की गहन प्यास उनके भीतर हिलोरें लेने लगी थी। इस धरती, आकाश, इस अस्तित्व में क्या गहरे राज़ छिपे हैं, यह जानने के लिए उनके भीतर एक उत्कट-प्यास ने जन्म लिया।

    जीवन केवल पढ़ने लिखने, नौकरी करने, संतति उत्पन्न करने और अन्ततः मृत्यु को प्राप्त होने से अधिक है, ऐसा उन्होने जानकी बाबा की आँखों से जान लिया था।

    जन्म क्या है? मृत्यु क्या है? इस जीवन का प्रयोजन क्या हैं? हम जिएं किसलिए? ऐसे कई प्रश्न आत्म चिंतन में उनके भीतर उठने लगे थे।

    जिन्हें हमें जीवन में मिलना होता है, वे न जाने कहाँ कहाँ से आकर हमारी जिन्दगी में शामिल होते जाते हैं। वह कार्य जो अस्तित्व द्वारा उन्हें सौंपा गया हैं, न जाने कब अस्तिव उनसे वह कार्य करवा लेता है, पता भी नहीं चलता। ऐसे ही जानकी बाबा का गुरुदेव जी के जीवन में आने का प्रयोजन उनके भीतर सत्य की प्यास को जगाना था।
          ("बूंद से समंदर तक का सफ़र" से संकलित )

    जानकी बाबा सिद्ध पुरूष थे। उनके पास अनेकों सिद्धियां थी।
    वे पिछले जन्मों से गुरुदेव के साथ में रहे है, उन्हें  गुरुदेव की आध्यात्मिक विराटता का और इस जन्म के भविष्य की संभावनाओं का पूरा पता था, कि यह बीज कल कितना विराट वटवृक्ष का रूप लेने वाला है, जिसकी छांव तले हजारों साल तक साधक अनहद में विश्राम करेंगे।

    यह आध्यात्मिक प्रसाद की घड़ी है, जहां गुरुदेव के द्वारा गोविंद बरस रहा है!
    जिसे भी गोविंद की प्यास हो ओशोधारा में उसका स्वागत है।

    गुरुदेव ने ओशोधारा में अध्यात्म के सर्वश्रेष्ठ मार्ग 'सहज-योग' को प्रतिपादित किया है, जिसके 3 आयाम हैं - ज्ञान योग, भक्ति योग और कर्म योग। ज्ञान योग का अर्थ है स्वयं को आत्मा जानना और आनंद में जीना। भक्ति योग का अर्थ है परमात्मा को जानना और उसके प्रेम में जीना। कर्म योग का अर्थ है आत्मा और परमात्मा से जुड़कर संसार का नित्य मंगल करना।


    ध्यान-समाधि से चरैवेति तक संकल्प लेकर गुरुदेव जैसी परम विभूति के साथ परमजीवन की यात्रा में प्रवेश करें।

    गुरूदेव ने एक रहस्य की बात बताई है :- बैकुंठ में आत्मानन्द है पर ब्रह्मानन्द नहीं है, क्योंकि वहां भक्ति नहीं है।
    भक्ति सिर्फ मनुष्य शरीर से ही सम्भव है।
    सुमिरन सिर्फ सांसों के साथ ही किया जा सकता है।
    सन्त सुमिरन का आनन्द लेने के लिए, सांस-सांस आत्मानन्द + ब्रह्मानन्द  (सदानन्द) का आनन्द लेने के लिए ही पृथ्वी पर बार-बार आते हैं।

    हृदय में गुरूदेव और हनुमत स्वरूप सिद्धि के साथ गोविंद का सुमिरन!
    गुरूदेव ने आध्यात्मिक जगत में महाक्रान्ति ला दी है; ओशोधारा के साधकों के जीवन के केंद्र में गुरु हैं, सत-चित-आनन्द के आकाश में उड़ान है और सत्यम-शिवम-सुंदरम से सुशोभित महिमापूर्ण जीवन है!!

    गुरुदेव द्वारा प्रदत्त सुमिरन+हनुमत स्वरूप सिद्धि अति उच्चकोटि की साधना है।
    हनुमान स्वयं इसी साधना में रहते हैं, वे सदैव भगवान श्रीराम के स्वरूप के साथ कण-कण में व्याप्त निराकार राम का सुमिरन करते हैं।

    गुरुदेव ने अब सभी निष्ठावान साधकों को यह दुर्लभ साधना प्रदान कर आध्यात्मिक जगत में स्वर्णिम युग की शुरूआत कर दी है।

    सदा स्मरण रखें:-
    गुरु को अंग-षंग जानते हुए सुमिरन में जीना और गुरु के स्वप्न को विस्तार देना यही शिष्यत्व है।
    गुरु+गोविंद+शिष्य यह सिनर्जी ही सारे अध्यात्म का सार है!!
    और यह सतत चलता रहेगा, चरैवेति.. चरैवेति...।

    सभी मुसाफिर हैं यहां, जाना है शमशान।
    अमृत नियति संत की, बाकी का विषपान।।
    काली दुर्गा कमला भुवना त्रिपुरा भीमा बगला पूर्णा।
    श्रीमातंगी धूमा तारा न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं॥

    अर्थात - काली, दुर्गा, लक्ष्मी, भुवनेश्वरि, त्रिपुरासुन्दरी, भीमा, बगलामुखी (पूर्णा), मातंगी, धूमावती व तारा ये सभी मातृशक्तियाँ भी, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं हैं॥


              नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां
              नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां

                                  ~ जागरण सिद्धार्थ

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    6 comments:

    1. ॐ परमतत्वाय नारायणाय
      गुरुभ्यो नमः

      नमन प्यारे गुरुदेव के चरणों में
      नमन प्यारे परमगुरु के चरणों मे
      नमन प्यारे जानकी बाबा के चरणों मे

      अहोभाव अहोभाव अहोभाव

      ReplyDelete
    2. ⚘ जय सद्गुरू देव ⚘
      ⚘ जय ओशशोधारा ⚘
      🙏

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    3. मेरे सद्गुरु बड़े बाबा औलिया जी के श्रीचरणो में कोटि-कोटि नमन । जानकी बाबा जी के पावन चरणों में श्रद्धा पूर्वक नमन ।
      🙏🙏🙏🙏🙏

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    4. Naman! Ahobhav piyare Sadguru ji
      Aapke charno me koti koti vandan...

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    5. Ati sunder Ahobhav aisi mahan santo ok.🌹🌹🌹🌹🌹

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