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    गुरुदेव के संस्मरण ~ प्रेम-वात्सल्य की मूर्ति साध्वी ऋतम्भरा जी

    साध्वी ऋतम्भरा जी 'युगपुरुष  महा मंडलेश्वर स्वामी परमानंद जी महाराज' की प्रेरणा के तहत एक साध्वी बन गयीं थीं। साध्वी ऋतम्भरा जी ने भारतीय ग्रंथों का गहन अध्ययन किया और आध्यात्मिकता में गहराई से उतरीं। उन्होंने युवावस्था में ही मानव कल्याण के लिए अपने परिवार का भी त्याग कर दिया। उनका जीवन भगवान के प्रति समर्पण और समाज के लिए सेवा का एक उल्लेखनीय संयोजन है।
    उनका मानना ​​है कि "मानवता की सेवा भगवान की सेवा है" और उन्होंने अपने जीवन की सेवा को अपने देश के लिए समर्पित किया है। साध्वी ऋतम्भरा जी अत्यंत विनम्र किन्तु बहुत सक्षम व्यक्तित्व की धनी और लोगो के दुखों को दूर करने के लिए निरंतर प्रयासरत हैं। वह भारत के कई पर्यावरणीय और सामाजिक बदलाव लाने के कार्यों में सक्रिय रूप से शामिल है, जिसमें शुद्ध पर्यावरण की वकालत, नदियों की सफाई तथा मंदिरों को साफ़ बनाए रखने आदि का कार्य शामिल हैं।

    साध्वी ऋतम्भरा जी एक जीवंत और शक्तिशाली वक्ता हैं। उनके प्रवचन जब लोग सुनते हैं तो वे धन्य महसूस करते हैं कि उन्हें उनके द्वारा प्रबुद्ध होने का मौका मिला है। उसके शब्द सरल है लेकिन प्रभाव गहरा है। कुछ ही क्षणों में भक्त उनके परिवार का हिस्सा बन जाते हैं। वह एक उत्कृष्ट शिक्षक,  प्रेरक और एक मार्गदर्शक है जो शब्दों से नहीं बल्कि अपने स्वयं के आचरण के उदाहरणों के आधार पर सबको सबक प्रदान करतीं हैं। लाखों भारतीयों ने उनके प्रवचनों को सुनने का सौभाग्य प्राप्त किया है, कई बार लोग उनके भाषणों को सुनते हुए रोने लगते हैं। उनके गुरुजी ने उन्हें एक तप सिद्ध संन्यासिन कहा है जिसका अर्थ है कि जिसका जीवन उसकी तपस्या से पूर्ण हो। उन्होंने महान संत पूज्य महामंडलेश्वर युगपुरुष स्वामी परमानंद जी महाराज की प्रेरणा, मार्गदर्शन और करुणा के तहत, अपनी ऊर्जा मानवता के कल्याण के लिए समर्पित की है।

    उन्होंने मानव जीवन के आध्यात्मिक विकास के साथ-साथ महिला मिशनरियों को शारीरिक और मानसिक प्रशिक्षण, भारतीय परंपरा के सर्वश्रेष्ठ ज्ञान के लिए ज्ञानोदय और ज्ञानवर्धनी, स्वास्थ्य के लिए आरोग्य वर्धनी और नैतिकता के लिए संस्कार वाटिका जैसी अवधारणाओं को दिया है।

    शुरू में वात्सल्य ग्राम तीन स्थानों पर स्थापित किए गए- वृन्दावन(मथुरा) यू.पी., ओम्कारेश्वर(एमपी) और सोलन(हिमाचल प्रदेश)। अब साध्वी जी भारत के विभिन्न क्षेत्रों में और अधिक वात्सल्य ग्राम के निर्माण के चरणों में हैं।

    साध्वी ऋतम्भरा महिला और बच्चों के लिए खोले गए वात्सल्य ग्राम की संस्थापक हैं। वत्सल्याग्राम एक अनूठी अवधारणा है जो एक अनाथालय, वृद्धाश्रम और विधवा-आश्रय का संयोजन है, जहां अनाथ बच्चे, विधवा और बुजुर्ग एक संयुक्त परिवार के रूप में रहते हैं। वात्सल्य ग्राम उन महिलाओं और बच्चों के लिए घर है, जिन्हें प्रगति के लिए एक पोषण और प्रेमपूर्ण पर्यावरण की आवश्यकता है। उन्होंने महिलाओं के अधिकारों के प्रति भी काम किया है। उनकी मातृभावना ने लाखों हृदय को छू लिया है, जैसा कि उनका मानना ​​है कि हर आत्मा एक दैवीय रचना है, वह अमीर या गरीब नहीं है और उन्हें दिव्य मिशन को पूरा करना होगा। वह जरूरत के मुताबिक बच्चों का ध्यान रखती है और मानती है कि वही भविष्य हैं और हमें उन सभी जरूरतों को पूरा करने के लिए मजबूत आधार बनाने की जरूरत है। साध्वी ऋतंभराजी के भाषण प्रवचन का एक बड़ा प्रभाव पड़ता है और वह शब्दों के माध्यम से बहुत ही सुन्दरता से हिंदू धर्म का सार और इसके उपदेश का सार बताती हैं।

    साध्वी ऋतम्भरा जी से गुरुदेव (सद्गुरु ओशो सिद्धार्थ औलिया जी) की पहली मुलाक़ात तब हुई जब वे देश के कोने-कोने में राम मंदिर का अलख जगा रही थीं। 2004 में जब इसी सिलसिले में वो रांची आयीं थीं, तो उस सभा का संचालन गुरुदेव ने ही किया था। फिर कई साल बीत गए। 2009 में पुनः पूना से दिल्ली आते हुए प्लेन में दूसरी बार मुलाकात हुई। गुरुदेव और साध्वी ऋतम्भरा दोनों तबतक आस्था चैनेल के माध्यम से एक दूसरे से आत्मीयता से जुड़ चुके थे। अतः रास्ते भर विभिन्न विषयों पर आत्मीयता पूर्वक बातचीत हुई।
    नवंबर, 2015 में गुरुदेव अपनी संगत के साथ वृंदावन पहुंचे। साध्वी ऋतम्भरा के आमंत्रण पर वे उनसे मिलने गए। स्वागत सत्कार के बाद एक बड़े हॉल में सभा का आयोजन किया गया।

    संगत को संबोधित करते हुए अपनी संगत को साध्वी ऋतम्भरा का परिचय कराते हुए कहा-

    ‘साध्वी ऋतम्भरा जी शायद भूल गई होंगी। इनसे मेरी पहली मुलाक़ात तब हुअ जब वे देश के कोने-कोने में राम मंदिर का अलख जगा रही थीं। 2004 में जब इसी सिलसिले में वो रांची आयीं थीं, तो उस सभा का संचालन मैंने ही किया था। वाणी में क्या आग थी। मुझे लगा कि इस समय इस देश में इन से बेहतर वक्ता कोई नहीं है।

    ये ज़रूर है कि पहले जो आवाज़ में प्रखरता थी, आग थी उसमें वात्सल्य का पुट आ गया है, माधुर्य आ गया है। लेकिन उससे वक्तृता में कमी नहीं आयी है। विद्रोह की जगह प्रेम ने स्थान ले लिया है। चिंगारी की जगह वात्सल्य आ गया है। वृन्दावन आयें और साध्वी जी से न मिलें तो ऐसा हुआ कि गंगा किनारे आये और डुबकी नहीं लगायी। एक अद्भुत सिनर्जी है, इनके गुरु अद्वैतवादी हैं, गुरु परमानन्द जी और ऋतम्भरा जी सगुन को समेट कर चल रही हैं। अगर जानना हो की निर्गुण की साधना में सगुन की भूमिका क्या है, तो ऋतम्भरा जी से बेहतर कोई उदाहरण नहीं है।’
    ऋतम्भराजी ने गुरुदेव और संगत को संबोधित करते हुए अपने प्रत्युत्तर में कहा-
    ‘आप के सद्गुरू कह रहे थे कि मैं शायद भूल गयी होउंगी। बहुत सारी स्मृतियाँ होती हैं, जो चित्त में रहती हैं। कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिनको भुलाना भी चाहें तो भुला नहीं सकते। कदाचित आप ऐसे ही एक व्यक्ति हैं। भले ही हम तीसरी बार मिल रहे हैं , हम बिछड़े ही कब थे! बड़ा ही सद्भाग्य होता है जब संत चरण पड़ते हैं। आपने मेरी वाणी के विद्रोह को और मेरे हृदय के विद्रोह को बहुत करीब से देखा है। अपने राष्ट्र और अपने समाज की परिस्थितियों को देख कर एक धधक पैदा होती है। लौकिक जगत में मेरी पीड़ा मेरी नहीं थी, मेरे देश की थी। मैंने जब देश को मुखरता से कहा, तो देश को मेरी बात ने छुआ। उस समय उसकी ज़रूरत थी, क्योंकि कोई भी समाज अपनी जड़ों को खो कर कैसे पल्लवित हो सकता है? जो समाज आत्महीनता का शिकार हो, जिसे अपने पर गौरव न हो, ये सोच ही मेरी वाणी से विद्रोह बन कर निकली। उस समय मुझे विभिन्न प्रदेशों में रहने का मौका मिला। मुझे लगा कि अगर हमारे विचार इतने सुन्दर हैं तो हमारा आचार क्यों नहीं?

    आंदोलन का माहौल था। तीखी आवाज़ में बोला गया ही सुनाई देता है। यद्यपि मैं मानती हूँ कि सत्य को चिल्ला के कहने की ज़रुरत नहीं होती, सत्य अपने आप में इतना प्रभावी होता है कि उसे चुपचाप भी कहा जा सकता है। लेकिन देश का माहौल ऐसा नहीं था। लगता था इसे कुम्भकर्णी नींद से कैसे राष्ट्र को जगाया जाये। पूज्यश्री, जैसा आपने कहा कि मैं अद्वैतवादी संत परमानंद गिरि जी महाराज की अनुगामी हूँ, जिन्होंने  कभी नहीं कहा कि झंझटों से भागो, पलायन करो। उनकी प्रेरणा थी, इस देश को अपने होने का गौरव नहीं है। इसने गुलामी की ज़ंजीरों में सबसे ज़्यादा समय जिया है, इसकी आत्मा पर गुलामी की दास्ताँ लम्बी है। पोंछने के लिए बहुत बल चाहिए। छोटे-मोटे दाग तो किसी डिटर्जेंट पाउडर से धुल जाते हैं, लेकिन कुछ ज़िद्दी दाग होते हैं। कड़वा था बोलना, सबकी नज़रों में विवादित भी हो गयी थी। बहुत सारे कष्ट झेले मेरे गुरु भाइयों ने। लेकिन मेरे गुरुदेव मेरे साथ थे। वे कहते थे, यश का सिंहासन सबको चाहिए, इस अपयश को झेलना पड़ेगा। और फिर अपना काम तो ऐसे निकल आया, जैसे काजल की कोठरी से बिना कालिख लगाये बाहर कोई आ जाये।

    आचार्य जी, आज आपने छेड़ दिया, इसलिए बोल रही हूँ। चुनना होगा, प्रसिद्धि के बाद, सेवा या सिंहासन। आप दिल्ली जाना क्यों चाहते हो? अमेठी जाओ... मैंने अंतर में झाँका। गुरुदेव की तरफ देखा, मुझे पता था, गुरुदेव मेरे रोम-रोम से परिचित हैं।
    सद्गुरु वही है जो अपने शिष्य के अंतःकरण को जानता हैं। छोटे-छोटे जानवरों के बच्चों से मैं घिरी रहती थी, मेरा व्यक्तिगत जीवन उन्होंने देखा था। राजनीति मेरा स्वाभाव नहीं है। वो जानते थे, राजनीति में ये बिखर जाएगी। मैंने गुरुदेव से कहा, मेरी एक गुरुबहन थी, उससे मिलते हुए चलते हैं। उसके घर के सामने कोई नवजात शिशु को पेड़ के नीचे छोड़ गया था। एक महात्मा उसे गोद में लेकर डेढ़ दिन बैठे रहे, सारी जनता उन्हें घेर कर बैठ गयी, कि ये नवजात शिशु को लेकर आप क्यों बैठे हो। उन्होंने कहा, जो इसका पालन करेगी वो आएगी। जब हम वहां पहुंचे तो मैंने देखा बड़ा मजमा लगा हुआ है। भीड़ को चीर कर जैसे ही सामने पहुंची, वो महात्मा जी उठे और मेरी गोद में उस बालक को देकर बोले, ऋतम्भरा, चंडी बन गरजी हो, अब वात्सल्य की धारा बहाओ।
    ये आयोजित नहीं था, ये प्रायोजित नहीं था। और गोद में वो बालक आया, तो मेरी आँखों से अश्रुपात होने लगा। गुरुदेव (स्वामी परमानंदजी महाराज) के पास जब मैं पहली बार आई और मेरा कुंडलिनी जागरण हुआ, तो वात्सल्य इतना प्रबल हुआ कि मुझे बहुत लम्बे समय तक लगता रहा कि मैं गुरुदेव की भी माँ हूँ। किसी श्रमिक महिला की गोद में किसी बालक को देखती थी, तो मेरी भाव-समाधि लग जाती थी। ऐसी विधि रची और उस बालक को लेकर हम आ गए। दो कमरों का एक घर लिया दिल्ली में। धीरे-धीरे 22 बच्चे हो गए, जिनका लालन-पालन मैं और मेरी गुरु-बहन करते थे। अगर नारी-निकेतन की महिला का वात्सल्य जागे, वृंदावन आश्रम की कोई महिला नानी का कर्तव्य निभाए, तो अनाथाश्रम, महिलाश्रम और वृद्धाश्रम की कोई ज़रुरत नहीं है। ऐसी कल्पना आई कि ऐसा एक वात्सल्य परिवार बन सकता है। अब वो बालक 24 वर्ष का हो गया है।

    आप अपने सद्गुरु से प्रभावित होकर भगवा पहन कर उनका अनुगमन कर रहे हो। ये कोई रक्त का सम्बन्ध नहीं है, भाव सम्बन्ध ही तो है। ऐसा ही भाव सम्बन्ध है कि छः महीने में ही बच्चे की शक्ल उस माँ से मिलने लगती है, जिस माँ ने जन्म नहीं दिया, सिर्फ वात्सल्य गोद दिया। इतना बड़ा प्रभाव होता है प्रेम का। वात्सल्य में ये घटना हर पल होती है। ज़्यादातर बच्चियां छोड़ी जाती हैं, क्योंकि समाज के पास चिंतन के लिए दर्शनशास्त्र तो है, लेकिन व्यवहार में अपनी ही कोख में नश्तर चलाने में ज़रा भी संकोच नहीं। हम आँखें नहीं मूँद सकते इन सब स्थितियों से।
    अगर भगवान के लिए हम लाखों रुपये के बंगले बनवा सकते हैं तो अपनी किसी बच्ची के पैर में जूता पहनाने में क्यों संकोच होता है, ये समझ में नहीं आ रहा। धर्म वाणी से है, वो हृदय में नहीं है। और वो कर्म में नहीं उतरा, तो लगा कि एक उदहारण सामने रखें। कोई महिला एक दिन घर से बाहर रह जाये तो घर वाले मुँह फेर लेते हैं, ये कैसी उदारता है? लम्हों ने खता की, सदियों ने सज़ा पायी!   वसुधैव कुटुम्बकम् की अगर भावना है चित्त में, तो कर्म में क्यों नहीं है? मन में मेरे हमेशा विद्रोह है। लेकिन अब मैंने विद्रोह को प्रकट करने के अलग मार्ग अख्तियार कर लिए हैं। लोग कहते हैं, ऋतम्भरा, तुम्हारे व्यक्तित्व में विरोधाभास है। माता-पिता वृद्धाश्रम में हैं : उनको बच्चों का प्यार चाहिए।

    मैंने देश के प्रधानमंत्री को दो लाइनें लिख कर भेजी हैं-

    जीवन के प्रत्येक मोड़ पर, मैं अपनों से पूछ रही हूँ,
    हम दुनिया को बदल रहे, या हमको बदल रही है दुनिया।

    मन में पीड़ा है, मैं साध्वी हूँ, पर स्त्री भी हूँ। जानती हूँ स्त्री का चित्त कैसा होता है। स्त्री अगर माँ हो गयी है तो वो तृप्त हो गयी है। स्त्री का स्वरुप करुणा है, प्रेम है। ओशो भी यही कहते हैं कि पुरुष गणित के शिखर पर और स्त्री काव्य के केंद्र में है। मैं यहाँ बच्चों के बीच में रहती हूँ। बहुत आह्लाद और आनंद है।

    " जैसे ही तुमने छुआ, मेरा काव्य गीली चौपाई बन गया
    जैसे ही तुमने देखा, मेरा हृदय काव्य से ओत -प्रोत हो गया
    अब कौन करे मठ में पूजा, कौन घुमाए हाथ-सुमिरनी
    जीना हमें भजन लगता है, मरना हें हवन लगता है।

    संबंधों को जी रही हूँ, हो गयी हूँ। संतानें कमज़ोर हैं। बहुत सारी बेटियों की माँ हूँ। वात्सल्य मेरा ध्यान है, वात्सल्य मेरा लक्ष्य है।"
    फिर गुरुदेव ने उतने ही भावपूर्वक अंदाज में साध्वी के लिए ये सुभाषित अपनी संगत से कहे-

    ‘तुम सब ने ज्वालामुखी को देखा है, लेकिन तुमने ज्वालामुखी के क्रेटर को झील बनते नहीं देखा। मैं सोच रहा था कि झील में आग नहीं है, समुन्दर में ऊष्मा नहीं है, लेकिन चिंगारी अभी है। आग से जंगल जला देते हो या आग से भोजन बनाते हो, आग तो आग है। और ऋतम्भरा जी में जो आग है, वह सृजन के बवंडर से प्रभावित होकर अब वात्सल्य ग्राम बन गया है। लेकिन ये आग हम सबको प्रेरणा देती है। सच कहो तो जिसके जीवन में  चिंगारी नहीं, उस जीवन का कोई अर्थ नहीं। मैं इतना जानता हूँ कि ऋतम्भरा जी जो कर रही हैं और जो भी करेंगी, वो श्रेष्ठतम ही होगा। चाहे वो वात्सल्य ग्राम का रूप ले या वेदांत ग्राम का रूप ले। मैंने इनको राष्ट्र-प्रेम में जलते हुए देखा और आज वात्सल्य में प्रेम को लुटाते हुए देख रहा हूँ। लेकिन मुझे ये कहने में संकोच नहीं है कि साध्वी जी में जो आग है, जो ऊर्जा है, जो शक्ति है, उसे केवल वात्सल्य ग्राम तक समेट कर नहीं रखा जा सकता।’

    गुरुदेव ने साध्वी जी को अपनी पुस्तक  "प्रेम उपनिषद " भी भेंट की और अपनी संगत के साथ बहुत प्रेमपूर्वक माहौल में विदा ली।
       ("बूंद से समंदर तक का सफ़र" से संकलित )
    गुरुदेव का सच्चे साधकों को प्रेमपूर्ण आवाहन हैं :-    "है बड़ा भाग्य मानुष होना,भारत में पुनःजन्म लेना।
    क्या पता कि मौका मिले न फिर, इसलिए न अवसर यह खोना।
     देने को राम रतन प्यारे, योगी आया तेरे द्वारे।
    अथ सद्गुरु शरणं गच्छामि,भज ओशो शरणं गच्छामि।।"

    गुरुदेव ने ओशोधारा में अध्यात्म के सर्वश्रेष्ठ मार्ग 'सहज-योग' को प्रतिपादित किया है, जिसके 3 आयाम हैं - ज्ञान योग, भक्ति योग और कर्म योग। ज्ञान योग का अर्थ है स्वयं को आत्मा जानना और आनंद में जीना। भक्ति योग का अर्थ है परमात्मा को जानना और उसके प्रेम में जीना। कर्म योग का अर्थ है आत्मा और परमात्मा से जुड़कर संसार का नित्य मंगल करना।

    प्रभु के सच्चे और निष्ठावान साधकों! का ओशोधारा में स्वागत है कि वे ध्यान-समाधि से चरैवेति तक का संकल्प लेकर गुरुदेव के साथ अपने परमजीवन की यात्रा का शुभारंभ करें।

    हृदय में गुरूदेव और हनुमत स्वरूप सिद्धि के साथ गोविंद का सुमिरन!
    गुरूदेव ने आध्यात्मिक जगत में महाक्रान्ति ला दी है; ओशोधारा के साधकों के जीवन के केंद्र में गुरु हैं, सत-चित-आनन्द के आकाश में उड़ान है और सत्यम-शिवम-सुंदरम से सुशोभित महिमापूर्ण जीवन है!!

    गुरुदेव द्वारा प्रदत्त सुमिरन+हनुमत स्वरूप सिद्धि अति उच्चकोटि की साधना है।
    हनुमान स्वयं इसी साधना में रहते हैं, वे सदैव भगवान श्रीराम के स्वरूप के साथ कण-कण में व्याप्त निराकार राम का सुमिरन करते हैं।

    गुरुदेव ने अब सभी निष्ठावान साधकों को यह दुर्लभ साधना प्रदान कर आध्यात्मिक जगत में स्वर्णिम युग की शुरूआत कर दी है।

    सदा स्मरण रखें:-
    गुरु को अंग-षंग जानते हुए सुमिरन में जीना और गुरु के स्वप्न को विस्तार देना यही शिष्यत्व है।
    गुरु+गोविंद+शिष्य यह सिनर्जी ही सारे अध्यात्म का सार है!!
    और यह सतत चलता रहेगा, चरैवेति.. चरैवेति...।
     षड़ंगादिवेदो मुखे शास्त्रविद्या, कवित्वादि गद्यं सुपद्यं करोति। 
    मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥

    - वेद एवं षटवेदांगादि शास्त्र जिन्हें कंठस्थ हों, जिनमें सुन्दर काव्य निर्माण की प्रतिभा हो, किंतु उनका मन यदि गुरु के श्री चरणों के प्रति आसक्त न हो तो इन सदगुणों से क्या लाभ?

                नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां
                नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां

                                ~ जागरण सिद्धार्थ

     वृंदावन यात्रा : गुरुदेव और साध्वी ऋतम्भरा जी।
      https://youtu.be/S3Gh0x_oaWY

            
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    9 comments:

    1. Sad guru osho ko pranam🙏🙏🙏

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    2. Sadhvi Rutumbhara ,a great orator of Earstwhile leader of Durgavahini/ Vishwahindu Paris had who has been warning of increasing population of Muslims which according to her may overtake Hindu population may form Govt.N may impose Shariyat laws in India in future. She also advocates to increase population of Hindus propotionatly to thwart their motive to rule over India. However now she become a great seeker of truth and loves Osho.Her views must be debated.

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    3. जय गुरू देव

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    4. प्रेमम शरणं गच्छामि भज ओशो शरणं गच्छामि।
      जय गुरुदेव जय ओशोधारा।।

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    5. ⚘JAI SADGURUDEV ⚘ ⚘🕉⚘
      ⚘JAI OSHODHARA ⚘ ⚘⚘
      🙏

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    6. ⚘JAI SADGURUDEV ⚘
      ⚘JAI SADGURUDEV ⚘
      🙏

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