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    अध्यात्म जगत की ~ महाकृतघ्नता


    कृष्णमूर्ति को सस्ते में गुरु मिले, इसलिए गुरु की महत्ता कभी समझ में न आई। मुफ्त जो मिल जाए उसकी महत्ता समझ में नहीं आती। कृष्णमूर्ति ने गुरु नहीं चुने थे, गुरुओं ने कृष्णमूर्ति को चुन लिया था।
    कृष्णमूर्ति कहते हैं कि बिना गुरु के पाया जा सकता है। लेकिन जरा मजे की बात समझना, विडंबना समझना। मैंने कभी गुरु नहीं माना किसी को, गुरु बनाया नहीं किसी को, किसी से दीक्षा नहीं ली और मैं कहता हूं कि बिना गुरु के पहुंचना करीब-करीब असंभव है। और कृष्णमूर्ति को जितने गुरु मिले, शायद ही किसी और व्यक्ति को मिले हों! और जितनी दीक्षाएं कृष्णमूर्ति को मिलीं, शायद ही मनुष्य-जाति के इतिहास में किसी को मिली हों!

                                             ~ परमगुरु ओशो

    सन 1990 में ओशो के विदेह होने के उपरांत हमको लगा कि भगवत्ता का अनुभव करने के लिए अब किसी मार्गदर्शक का सहारा नहीं है।

    हमारी आशाएं छूट रहीं थीं क्योंकि हम इतने सक्षम नहीं थे कि अपने से ही बुद्धत्व प्राप्त कर सकें। हालांकि हमारा जीवन आराम से बसर हो रहा था, परन्तु आध्यात्मिक यात्रा का अंत सा हो गया था।

    लगभग इसी दौरान ओशो सिद्धार्थ जी हमारे यहां पधारे और हमें समाधि कार्यक्रम करने का न्यौता दिया।  मेरे पति और मैं 21 लोगों के पहले जत्थे में थे, जिन्होंने उनके मार्गदर्शन में कार्यक्रम में भाग लिया। प्रोग्राम में भाग लेते हुए शनैः-शनैः उनके प्रति एक गहरे प्रेम की अनुभूति होने लगी। हमें धीरे-धीरे विश्वास आने लगा कि जो ओशो, नानक, कबीर, बुद्ध, महावीर व अन्य सन्तों को अनुभव हुआ था वह हम भी अनुभव कर पाएंगे।

    ओशो सिद्धार्थ जी की उपस्थिति हमारे जीवन में उत्सव और बहार ले आई। उनके आशीर्वाद और दिशा निर्देशों से हमारी यात्रा बड़ी सरस व सुगम हो गई। स्वामी जी ने फिर इच्छा व्यक्त की कि हम उनके काम में सहयोग करें। वह चाहते थे कि हम भी उनके साथ कार्यक्रम संचालन करें और उसके लिए उन्होंने हमें प्रशिक्षित भी किया।

    स्वामी ( सद्गुरु ओशो सिद्धार्थ औलिया जी) को अपने परिवार के पास और अपने काम पर लौटना होता था। उनकी अनुपस्थिति में मुझे अच्छा नहीं लगता था। उनसे एक दिन की दूरी भी कठिन लगती थी। वह मेरे जीवन्त गुरु और मेरे जीवन का केंद्र बिंदु हो गए ।

     एक अवसर पर जब स्वामी जी बिलासपुर गए हुए थे और ओशो शैलेन्द्र जी आनंद प्रज्ञा करवाने जापान गए हुए थे , मैं बिल्कुल अकेली रह गयी थी। स्वामी जी ने मुझे ओंकार-ज्ञान और समाधि की कुंजी का राज दिया था। मेरे पास उस समय करने योग्य अन्य कोई कार्य नहीं था और बाकी सब जिम्मेदारियों से मुक्त थी , अतः 8 से 10 घंटे तक समाधि में जाने लगी और मुझे समाधि के गहन अनुभव हुए।

    इस समय तक अपने जीवंत गुरु के प्रति मेरा प्रेम पूर्ण श्रद्धा और आत्मस्मरण में परिवर्तित हो चुका था। मैं चारों ओर उनकी कृपा, प्रेम और करुणा को स्पष्ट रूप से एहसास कर पा रही थी। मैं आत्मस्मरण के साथ ही गुरु की जीवंत उपस्थिति से इतनी लबा-लबा थी कि समय और स्थान की दूरी का कोई महत्व ही न था।

    इस बार जब स्वामी (सिद्धार्थ औलिया जी) वापिस आये तो मुझे देखते हुए कहा "सुहानी सन्ध्या आ गयी है, फूल की पंखुड़ियां फूट रही हैं और किसी भी समय बुद्धत्व का फूल खिल उठेगा।" स्वामी जी ने हर एक से आश्रम में कहा कि जल्द ही कुछ महीनों में हम अवतरित बुद्ध के जन्म का उत्सव मनाएंगे। जब मेरा समर्पण आत्मकेंद्रित हुआ तो मैंने अपनी साधना में जैसे एक लंबी उड़ान भरी।

     मैँ स्वामी जी के प्रति इतने श्रद्धा, प्रेम और समर्पण में सराबोर थी कि स्वामी जी मुझे जो भी कहते थे वह मेरे लिए पूर्ण और अंतिम सत्य था।

    अगर भगवत्ता के समकक्ष कुछ है, तो मेरे लिए वह स्वामी जी ही हैं।

                                             ~ मां ओशो प्रिया

    जितनी सम्भावनाएं उतने ही खतरे, जितनी ऊंचाइयां उतनी ही गहरी खाइयां!!
    गुरुदेव (सद्गुरु ओशो सिद्धार्थ औलिया जी) ने परमगुरु ओशो के तत्वज्ञान को जो ओशोजगत में कोई खोज नहीं सका उस रहस्य को उद्घाटित कर ओशोधारा में सच्चे साधकों के लिए उपलब्ध कराया।
    औऱ परमगुरु ओशो की आज्ञानुसार उनके अनुज स्वामी शैलेंद्र सरस्वती जी और उनकी पत्नी मां अमृत प्रिया जी को खोजा, जिन्हें  ध्यान का abcd भी पता नहीं था, उन्हें अध्यात्म के गूढ़ रहस्यों से परिचित कराया, और सम्मान स्वरूप अपने समकक्ष गुरुपद पर बिठाया। वे अब कह रहे हैं कि गुरूदेव ने दिया ही क्या है!
    गजब की महाकृतघ्नता!!!
    भारत में आप किसी भी व्यक्ति से पूंछ लो जिसे अध्यात्म का थोड़ा भी पता हो वह भी बता देगा, कि जो "सतनाम" देता है, वही हमारा गुरु होता है।' और ऐसे गुरु का ऋण कभी नही चुकाया जा सकता है, और फिर शिष्य का एक ही कर्तव्य होता है; गुरु आज्ञा ही केवलं।
    पर स्वामी जी और मां यह बात नहीं समझ सके!!
    यहां पर उनकी प्रज्ञा पर भी प्रश्न उठ जाता है??
    अतीत में आजतक किसी भी गुरु ने शरीर में रहते हुए अपने समकक्ष किसी को गुरुपद में नही बिठाया था।
    पर यह गुरुदेव की परम करुणा थी, परमगुरु ओशो के अनुज होने के नाते, और एक विराट आयोजन को सभी प्यासों तक पहुँचाने के लिए, उन्होंने अतीत की परम्परा से हटकर आप दोनों को  'गुरुपद' प्रदान किया।
    और आप लोगों ने गुरुदेव की इस महाकरुणा का अनादर कर दिया, और अब आप लोग गुरुदेव के द्वारा तैयार की गई इस  प्यारी बगिया "ओशोधारा" को नुकसान पहुँचाने के लिए नए-नए षडयंत्र रच रहे हैं।

    आप सबकी भविष्य में जो ऊंचाइयां और अनंत संभावनाएं थी, गुरु के खिलाफ, गुरुद्रोह कर वह सब तो व्यर्थ कर ही दी हैं तथा योगभ्र्ष्ट होकर पतन की तरफ भी अपने कदम बढ़ा दिए हैं...।
    ओशोधारा के आध्यात्मिक इतिहास में आप सभी के गुरुदेव और ओशोधारा संघ के प्रति किए गए द्रोह को, आप सबकी महाकृतघ्नता के रूप में सदा स्मरण रखा जाएगा।

    नाव जितने गहरे सागर में पहुंचती हैं, कुशल नाविक की जरूरत उतनी बढ़ती जाती है। और अध्यात्म के सागर की तो अंनत गहराईयां हैं।
    यह जो परमजीवन की यात्रा है, इसमें जीवित सद्गुरु की सदा जरूरत पड़ती है।
    और अगर संक्षेप में कहा जाए, तो यह परमजीवन की
    यात्रा गुरु से ही शुरू होती है, और सतत गुरु पर ही चलती रहती है।

    सदशिष्य का तो एक ही प्रयास रहेगा, कि कैसे उसके हृदय में गुरु का स्थापन हो और साथ ही साथ कैसे वह सतत गोविंद के सुमिरन में जिए।
    और गोविंद से उसकी बस एक ही प्रार्थना होगी, कि मेरे आगे के सारे जन्म बस गुरु के परम पावन चरणों मे ही बीतें, वे सदा मेरे गुरु रहें और मैं सदा उनका शिष्य रहूं।"
     गुरुदेव कहते हैं:- कुछ ऐसे मूढ़ होते हैं, जो अपनी आध्यात्मिक यात्रा के साथ साथ अन्य साधकों की यात्रा भी क्षत-विक्षत कर देते हैं। ईश्वरीय न्याय उन्हें क्षमा नहीं करता। वे भारी कर्मबंध के शिकार होते हैं। उनकी मृत्यु अत्यंत पीड़ा और विषाद में होती है। उनके आगे के कई जन्म बुरी तरह प्रभावित हो जाते हैं।

    गुरुदेव ने ओशोधारा में अध्यात्म के सर्वश्रेष्ठ मार्ग 'सहज-योग' को प्रतिपादित किया है, जिसके 3 आयाम हैं - ज्ञान योग, भक्ति योग और कर्म योग। ज्ञान योग का अर्थ है स्वयं को आत्मा जानना और आनंद में जीना। भक्ति योग का अर्थ है परमात्मा को जानना और उसके प्रेम में जीना। कर्म योग का अर्थ है आत्मा और परमात्मा से जुड़कर संसार का नित्य मंगल करना।

    जिन्हें भी 84 लाख योनियों के आवागमन से मुक्त होकर परम जीवन की यात्रा में प्रवेश करना है, उन सभी प्रभु के प्यासों को प्रेम भरा आमंत्रण हैं! कि ओशोधारा में आएं और "ध्यान-समाधि" कार्यक्रम से चरैवेति तक के कार्यक्रम का संकल्प लेकर प्रभु के राज्य में प्रवेश करें!!

    गुरूदेव ने एक रहस्य की बात बताई है :- बैकुंठ में आत्मानन्द है पर ब्रह्मानन्द नहीं है, क्योंकि वहां भक्ति नहीं है।
    भक्ति सिर्फ मनुष्य शरीर से ही सम्भव है।
    सुमिरन सिर्फ सांसों के साथ ही किया जा सकता है।
    सन्त सुमिरन का आनन्द लेने के लिए, सांस-सांस आत्मानन्द + ब्रह्मानन्द  (सदानन्द) का आनन्द लेने के लिए ही पृथ्वी पर बार-बार आते हैं।

    हृदय में गुरूदेव और हनुमत स्वरूप सिद्धि के साथ गोविंद का सुमिरन!
    गुरूदेव ने आध्यात्मिक जगत में महाक्रान्ति ला दी है; ओशोधारा के साधकों के जीवन के केंद्र में गुरु हैं, सत-चित-आनन्द के आकाश में उड़ान है और सत्यम-शिवम-सुंदरम से सुशोभित महिमापूर्ण जीवन है!!

    गुरुदेव द्वारा प्रदत्त सुमिरन+हनुमत स्वरूप सिद्धि अति उच्चकोटि की साधना है।
    हनुमान स्वयं इसी साधना में रहते हैं, वे सदैव भगवान श्रीराम के स्वरूप के साथ कण-कण में व्याप्त निराकार राम का सुमिरन करते हैं।

    गुरुदेव ने अब सभी निष्ठावान साधकों को यह दुर्लभ साधना प्रदान कर आध्यात्मिक जगत में स्वर्णिम युग की शुरूआत कर दी है।

    सदा स्मरण रखें:-
    गुरु को अंग-षंग जानते हुए सुमिरन में जीना और गुरु के स्वप्न को विस्तार देना यही शिष्यत्व है।
    गुरु+गोविंद+शिष्य यह सिनर्जी ही सारे अध्यात्म का सार है!!
    और यह सतत चलता रहेगा, चरैवेति.. चरैवेति...।

    मनमानी, गुरु से कटकर गुरु विरोध करना, गुरु के खिलाफ षड्यंत्र करना, गुरुद्रोह है, जो अक्षम्य है।


     ।। सदा और सर्व अवस्थाओं में अद्वैत की भावना करनी चाहिए, परन्तु गुरुदेव के साथ अद्वैत की भावना कदापि नही करनी चाहिए।।

    ।। आत्मज्ञान हो जाने के बाद भी शिष्य को गुरु का साथ कभी नहीं छोड़ना चाहिए। और सदा " गुरु कृपा ही केवलम।।"

    ।। गुरु से कुछ न दुराइये, गुरु से झूठ न बोल। बुरी-भली खोटी-खरी, गुरु आगे सब खोल।।

    ।। गुरु की ओर निहारिये, औरन स्यों क्या काम। गुरु उपदेश विचार कर, रखिये मन को थाम।।


            गुरुरवै शरण्यं गुरुरवै शरण्यं
            गुरुरवै शरण्यं गुरुरवै शरण्यं


                                             ~ जागरण सिद्धार्थ


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    11 comments:

    1. स्वामी और मां जी आप सबका कृत्य बहुत ही शर्मनाक है।

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    2. मेरे सद्गुरु बड़े बाबा औलिया जी के पावन चरणों में मेरा सादर प्रणाम । 🙏❣🌹🙏❣🌹🙏❣🌹

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    3. चलता है..

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    4. May be the Guru has fallen. Otherwise why the disciples will leave?

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      1. Sadguru has not fallen but the disciple in the mask of guru has fallen and is responsible for the mass spiritual suicide of the group Osho Fragrance he is trying to lead as Gurudev. The reason of his falling down is thanklessness towards Bade Baba Osho Siddharthaji. The reason of his falling down is his own personal ambition of competing with his own master. He is a traitor. The worst thing can happen to a disciple is going against his master, this is what is happening to him. The even worst part is people are leaving The True Master for a traitor. They will have to pay the cost of their Spiritual Growth.

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    5. स्वामी अमित आनन्दJanuary 9, 2020 at 7:23 AM

      गुरुद्रोह महापाप है!

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    6. जय गुरुदेव ।

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    7. Nice Explained. So Thanks & Gratitude Respected Beloved Sadgurudev.
      www.drsureshmishra.com

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