गुरुदेव के संस्मरण ~ देवर्षि नारद से साक्षात्कार
नारद का व्यक्तित्व अगर ठीक से समझा जा सके तो दुनिया में एक नये धर्म का आविर्भाव हो सकता है।
-एक ऐसे धर्म का जो संसार और परमात्मा को शत्रु न समझे, मित्र समझे
–एक ऐसे धर्म का, जो जीवन-विरोधी न हो, जीवन-निषेधक न हो, जो जीवन को अहोभाव, आनंद से स्वीकार कर सके
–एक ऐसे धर्म का, जिसका मंदिर जीवन के विपरीत न हो, जीवन की गहनता में हो !
कहा जाता है कि नारद ढाई घड़ी से अधिक एक जगह नहीं टिकते।
क्या टिकता है ?
ढाई घड़ी बहुत ज्यादा समय है।
कुछ भी टिकता नहीं है।
डबरे टिकते हैं, नदियां तो बही चली जाती हैं।
नारद धारा की तरह हैं।
बहाव है उनमें।
प्रवाह है, प्रक्रिया है, गति है, गत्यात्मकता है।
भक्ति यानी प्रेम–ऊर्ध्वमुखी प्रेम।
भक्ति यानी दो व्यक्तियों के बीच का प्रेम नहीं, व्यक्ति और समष्टि के बीच का प्रेम।
भक्ति यानी सर्व के साथ प्रेम में गिर जाना। भक्ति यानी सर्व को आलिंगन करने की चेष्टा। और, भक्ति यानी सर्व को आमंत्रण कि मुझे आलिंगन कर ले !
भक्ति कोई शास्त्र नहीं है–यात्रा है।
भक्ति कोई सिद्धांत नहीं है–जीवन-रस है। भक्ति को समझ कर कोई समझ पाया नहीं। भक्ति में डूब कर ही कोई भक्ति के राज को समझ पाता है।
नाद कहीं ज्यादा करीब है विचार से। गीत कहीं ज्यादा करीब है गद्य से। हृदय करीब है मस्तिष्क से।
भक्ति-शास्त्र शास्त्रों में नहीं लिखा है–भक्तों के हृदय में लिखा है।
भक्ति-शास्त्र शब्द नहीं सिद्धांत नहीं, एक जीवंत सत्य है।
जहां तुम भक्त को पा लो, वहीं उसे पढ़ लेना; और कहीं पढ़ने का उपाय नहीं है।
भक्ति बड़ी सुगम है लेकिन जिनकी आँखों में आंसू हों, बस उनके लिए !
~ परमगुरु ओशो
नारद सर्वथा अनूठे हैं, वे सतत गोविंद के सुमिरन में रहते है, तथा उनके हृदय में नारायण (भगवान विष्णु) का सदा वास रहता हैै और उनकी जुबां पर बस नारायण.. नारायण...।
वे समस्त सदशिष्यों के लिए प्रेरणा है, यही तो हमे भी जीना है, सतत गोविंद का सुमिरन और हृदय में गुरुदेव, जुबां पर गुरुदेव..
और उनके स्वप्न को विस्तार देना।
गुरुदेव का देवर्षि नारद से साक्षात्कार :- " कल तक की यात्रा बहुत सुंदर रही और हम लोगों को मंदिर में दर्शन भी हुए और बहुत ही सुंदर विलक्षण अनुभव, आदि शंकराचार्य जी की समाधि पर हुए हैं। आज (12 जून, 2009) बद्रीनाथ मंदिर के प्रांगण में हम कुछ मित्रों के साथ बैठे थे।
वहां पर दिव्य संतो की उपस्थिति का आभास हुआ। विशेष रूप से देवर्षि नारद जी की उपस्थिति की प्रतीति हुई। देवर्षि नारद नारायण (विष्णु) के परम भक्त हैं। निश्चित्त रूप से वहां विचरण करने आए होंगे। पूरी दुनियां में past life Regression के जो इतने प्रयोग हो रहे हैं पूरे विश्व में और हमारी ओशोधारा में, इससे एक बात साफ हो गई है कि जो भी अतीत के संत थे, वे कहीं नष्ट नहीं हुए हैं। उनकी उपस्थिति आत्मलोक में, शिवलोक में, विष्णु लोक में है ही।
उनकी गति प्रकाश की रफ्तार से भी तेज है। जो भी भक्ति भाव से, प्रेम से उनका स्मरण करता है, वे उस स्मरण से खिंचकर चले आते हैं। उनको कभी मानचित्र देखने की आवश्यकता नहीं होती है। इस रूप में देवर्षि नारद की उपस्थिति भी है, जैसे अन्य संतों की उपस्थिति है।
इसलिए वहां एक भाव आया कि अगर देवर्षि नारद की उपस्थिति है, तो निश्चित्त रूप से वे हमें आशीर्वाद देने आएंगे। मैं समझता हूं कि लगभग दस मिनट बाद किसी ने मेरा दाहिना पैर स्पर्श किया। वहां पर बहुत मित्र बैठे हुए थे। मुझे लगा कि उनमें से शायद किसी ने स्पर्श किया है।
धीरे से मेरी आंख खुली और मैंने देखा कि यहां तो कोई भी नहीं है। सब लोग तो दूर-दूर बैठे हुए हैं। फिर मेरी आंख बंद हो गई और मैंने कहा कि मेरा पैर स्पर्श किसने किया? तो तुरंत आवाज आई कि जिसको तुमने बुलाया था।
मैंने कहा कि देवर्षि नारद जी यह आपने क्या किया, आप और चरण स्पर्श कर रहे हैं; आप तो मुझे लज्जित कर रहे हैं, शर्मिंदा कर रहे हैं। उन्होंने कहा- आपने सुना होगा कि मैं हरि के दासों का दास हूं, और आप हरि के दास हो, इस तरह मैं आपका भी दास हूं। अतः आपको आश्चर्य क्यों हो रहा है?
फिर मुझे ख्याल आया कि एक संत थे, 80 वर्ष से भी ज्यादा उनकी उम्र थी। 1980-81 की बात मैं तुम्हें बता रहा हूं। रांची में मैं उन दिनों रहता था। जब मैं उनके चरण स्पर्श करता था, लेकिन उसके पहले वे मेरे चरण स्पर्श कर लेते थे। कई बार मैंने उनसे कहा कि अगर आप ऐसा करेंगे तो मैं आपके पास आना बंद कर दूंगा। उन्होंने एक बहुत ही अद्भुत बात कही- ‘जब तुम गंगा में जाते हो, तो गंगा पहले तुम्हारा चरण स्पर्श करती है, फिर तुम्हारा उद्धार करती है। तो ऐसा मान लो कि हम तुम्हारे चरण स्पर्श गंगा की तरह कर रहे हैं। मैंने कहा कि महर्षि नारद जी, मैंने यह माना कि गंगा की तरह आपने हमारा चरण स्पर्श किया और हमारे संघ पर अपनी कृपा बरसायी, तो इस रूप में हम आपके इस स्पर्श को स्वीकार करते हैं।"
सम्पर्क साधने की विधि :- "सम्पर्क साधने के तीन चरण हैं- पहली बात तो यह है कि आप जिस संत से भी जुड़े हुए हैं उससे सम्पर्क साधना बहुत आसान होता है।
अगर आप ओशोधारा में हो तो निश्चित्त रूप से अध्यात्म में पहली बार आपके कदम नहीं उठे हैं। आपके पास आपकी पृष्ठभूमि है। विगत काल में आप किन्हीं महापुरुषों के सम्पर्क में रहे होंगे। चाहे वे महापुरुष शंकराचार्य हों, नानक देव जी, बुद्ध, कबीर या महर्षि नारद हों। आप निश्चित्त ही उन महापुरुषों के सम्पर्क में कहीं न कहीं रहे हैं।
महापुरुषों से सम्पर्क साधने के लिए आप स्वयं गोविंद से जुड़ो, सुमिरन में चले जाओ। इस प्रयोग में उतरने के लिए कम से कम आधा घंटा चाहिए। वहां शॉर्ट कट (सरल रास्ता) नहीं है।
प्रथम चरण दस मिनट आप ओंकार को सुनें।
दूसरा चरण आप जिस संत से भी जुड़ना चाहते हैं, वैसा अभिप्राय करें। निश्चित्त रूप से आप शंकराचार्य जी की समाधि पर आये तो गुरु नानक देव का आह्वान तो करोगे नहीं। आप कहीं भी गये हो उसकी उपस्थिति के लिए आह्वान करोगे।
तीसरा चरण बहुत ही महत्त्वपूर्ण है- अब आप शून्य हो जाओ। शून्य होने की विधि क्या है?आप निराकार से जुड़ जाओ और निराकार में डूबते-डूबते समाधि में चले जाओ। शून्य में समाधिस्थ हो जाओ। और फिर चौथा चरण स्वयं घटित होगा और संत वहां प्रगट होंगें। आप यह अनुमान नहीं लगा सकते कि वे अपनी उपस्थिति कैसे दिखायेंगे। अगर उस वक्त आपको लगता है कि और भी किसी प्रमाण की जरूरत है, कहीं ऐसा तो नहीं कि यह मेरे मन की ही कल्पना है, तो फिर आप एक प्रमाण और रख सकते हैं।"
ठीक ऐसे ही तीर्थों में संत दर्शन हमको प्रेरणा के रूप में लेना है। उनसे आशीष लेने हैं, जैसे कि हम कहीं जाते हैं यात्रा पर, तो बड़ों का आशीष लेते हैं, और अपना पुरुषार्थ करते हैं।
तो संतो के आशीष तो लेने ही हैं। दुआ और दवा दोनों चाहिएं। अकेली दुआ से काम न चलेगा और अकेली दवा से भी न चलेगा। दुआ और दवा दोनों साथ-साथ चाहिएं।
अगर दवा के साथ-साथ दुवा भी मिलती रहे तो सोने पर सुहागा हो जाता है, और इस बात को हमें समझना है।
कभी-कभी हम कुछ जाने बगैर मंदिरों, मस्जिदों, देवालयों की आलोचना करने लगते हैं कि इनमें क्या रखा है? कभी भी बिना जाने किसी की आलोचना मत करो। पहले जानो फिर मानो।
तुम्हारा सद्गुरु (जीवित गुरु) तुम्हारा सुमिरन, तुम्हारी साधना, तुम्हारी समाधि ये तुम्हारे जीवन के केंद्र में हों और परिधि पर निश्चित्त ही महापुरुषों के, संतों के आशीर्वाद हों तो जीवन सार्थक हो जाता है। जीवन में फूल खिल जाते हैं। "
गुरुदेव ने ओशोधारा में अध्यात्म के सर्वश्रेष्ठ मार्ग 'सहज-योग' को प्रतिपादित किया है, जिसके 3 आयाम हैं - ज्ञान योग, भक्ति योग और कर्म योग। ज्ञान योग का अर्थ है स्वयं को आत्मा जानना और आनंद में जीना। भक्ति योग का अर्थ है परमात्मा को जानना और उसके प्रेम में जीना। कर्म योग का अर्थ है आत्मा और परमात्मा से जुड़कर संसार का नित्य मंगल करना।
ओशोधारा में गुरुदेव अध्यात्म के सारे खजाने, सारे रहस्य प्रदान करते जा रहे हैं...
सदा सुमिरन में रहो और साथ ही साथ सन्तों, दिव्यात्माओं के आशीष, देवताओं से मित्रता और उनका सहयोग भी प्राप्त करो!
औऱ क्या चाहिए!!
आध्यात्मिक जगत की यह 'मौज ही मौज हमार' की बेला है!!!
सभी प्रभु के दीवानों को प्रेम-निमन्त्रण है, कि आध्यात्मिक जगत की इस परमपावन बेला को इस जन्म में मत चूकें!
ओशोधारा में ध्यान-समाधि से चरैवेति तक संकल्प लेकर गुरुदेव के साथ अपने परम सौभाग्य की, परमजीवन की यात्रा का शुभारंभ करें।
गुरूदेव ने एक रहस्य की बात बताई है :- बैकुंठ में आत्मानन्द है पर ब्रह्मानन्द नहीं है, क्योंकि वहां भक्ति नहीं है।
भक्ति सिर्फ मनुष्य शरीर से ही सम्भव है।
सुमिरन सिर्फ सांसों के साथ ही किया जा सकता है।
सन्त सुमिरन का आनन्द लेने के लिए, सांस-सांस आत्मानन्द + ब्रह्मानन्द (सदानन्द) का आनन्द लेने के लिए ही पृथ्वी पर बार-बार आते हैं।
कहे कबीर ता दास को तीन लोक डर नांहि।।
गुरुरेको जगत्सर्वं ब्रह्मविष्णुशिवात्मकम्।
गुरोः परतरं नास्ति तस्मात्संपूजयेद् गुरुम्।।
ब्रह्मा, विष्णु, शिव सहित समग्र जगत गुरुदेव में समाविष्ट है। गुरुदेव से अधिक और कुछ भी नहीं है, इसलिए गुरुदेव की पूजा करनी चाहिए।
नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां
नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां
~ जागरण सिद्धार्थ
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⚘ JAI SADGURUDEV ⚘
ReplyDelete⚘ JAI OSHODHARA ⚘
🙏
सदगुरू शरणम् गच्छामि ।
ReplyDeleteजय गुरुदेव ।
जय ओशो ।
जय ओशो धारा ।
🙏🙏🙏🙏🙏
ऊँ नमो नारायण ��
ReplyDeleteजयगुरुदेव
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