गुरुदेव के संस्मरण ~ संत गुलाल के गांव भुरकुड़ा में
इन्होंने बुल्ला साहेब का शिष्यत्व ग्रहण किया।
और बुल्ला साहेब की महाप्रयाण के बाद उनकी धारा को आगे बढ़ाया।
1760 ई.में आप भूलोक से सतलोक को महाप्रयाण कर गए।
गुलाल एक छोटे-मोटे जमींदार थे। और उनका एक चरवाहा था। उसकी आंखों में खुमार था। उसके उठने-बैठने में एक मस्ती थीं। कहीं रखता था पैर, कहीं पड़ते थे पैर। और सदा मगन रहता था। कुछ था नहीं उसके पास मगन होने को—चरवाहा था, बस दो जून रोटी मिल जाती थी। उतना ही काफी था। सुबह से निकल जाता खेत में काम करने, जो भी काम हो, रात थका मांदा लौटता; लेकिन कभी किसी ने उसे अपने आनंद को खोते नहीं देखा। एक आनंद की आभा उसे घेरे रहती थी। उसके बाबत खबरें आती थी—गुलाल के पास, मालिक के पास—कि यह चरवाहा कुछ ज्यादा काम करता नहीं; क्योंकि उसे खेत में नाचते देखा जाता था। मस्त डोलते मगन आसमान में उड़ते पक्षियों की तरह चहकते देखा था। काम ये क्या खाक करेगा। तुम भेजते हो गाएं चराने गाए एक तरफ चरती रहती है, यह झाड़ पर बैठकर बांसुरी बजाता है। बहुत शिकायतें आने लगीं।
एक सीमा होती है। मालिक सुनते-सुनते थक गया था। कहा: मैं आज जाता हूं ओर देखता हूं। जाकर देखा तो बात सच थीं। बैल हल को लिए खड़े थे एक किनारे—कोई हांकने वाला ही नहीं था—और बुलाकी राम वृक्ष के नीचे आँख बंद किए डोल रहे थे। मालिक को क्रोध आ गया। देखा—यह हरामखोर, काहिल, आलसी….। लोग ठीक कहते है। उसके पीछे पहुंचे और जाकर जोर से एक लात उसे मार दी। बुलाकी राम लात खाकर गिर पडा। आंखे खोली। प्रेम और आनंद के अश्रु बह रहे थे। बोला अपने मालिक से: मेरे मालिक, किन शब्दों में धन्यवाद दूँ? कैसे आभार करूं, क्योंकि जब आपने लात मारी तब में ध्यान कर रहा था। जरा से बाधा रह गई थी। छूट ही नहीं रही थी। जब भी ध्यान करता वो अड़चन बन सामने खड़ी हो जाती थी। आपने लात मारी वह बाधा मिट गई। मेरी बाधा थी जब भी मस्त होता ध्यान में मगन होता मस्त होता, तो गरीब आदमी हूं, साधु-संतों को भोजन करवाने के लिए निमंत्रण करना चाहता था। लेकिन में तो गरीब आदमी हूं, सो कहां से भोजन करवाऊंगा, तो बस ध्यान में जब मस्त होता भंडारा करता हूं, मन ही मन मैं सारे साधु-संतों को बुला लाता हूं कि आओ सब आ जाओ दूर देश से आ जाओ। और पंक्तियों पर पंक्तियां साधुओं की बैठी थी और क्या-क्या भोजन बनाए थे। मालिक परोस रहा था, मस्त हो रहा था। इतने साधु-संत आये है, एक से एक महिमा वाले है। और तभी आपने मार दी लात। बस दही परोसने को रह गया था; आपकी लात लगी, हाथ से हाँड़ी छूट गई, दही बिखर गई, हांडी फुट गई। मगर गजब कर दिया मेरे मालिक, मैंने कभी सोचा भी न था कि आपको ऐसा कला आती है। हाँड़ी क्या फूटी, मानसी-भंडारा विलुप्त हो गया, साधु-संत नदारद हो गए—कल्पना ही थी सब, कल्पना का ही जाल था—और अचानक मैं उस जाल से जग गया, बस साक्षी मात्र रह गया।
इधर गुरु का जन्म हुआ, इधर गुरु का आविर्भाव हुआ, उधर शिष्य के जीवन में क्रांति हो गयी। बूला साहेब को कंधे पर लेकर लौटे गुलाल। वह जो लात मारी थी। जीवन भर पश्चाताप किया, जीवन भर पैर दबाते रहे।
बूला साहेब कहते मेरे पैर दुखते नहीं है, क्यों दबाते हो? वे कहते: वह जो लात मारी थी…..। तीस-चालीस साल 'बूला साहेब' जिंदा रहे, गुलाल पैर दबाते रहे। एक क्षण को भी साथ नहीं छोड़ते थे। आखिरी क्षण भी 'बूला साहेब' जब शरीर छोड़ रहे थे तब भी गुलाल पैर दबा रहे थे। 'बूला साहेब' ने कहा: अब तो बंद कर रे, पागल , पर गुलाल ने कहां कि कैसे बंद करूं? वह जो लात मारी थी।
गुरु को लात मारी, बूला साहेब लाख समझाते रहे कि तेरी लात से ही तो मैं जागा, मैं अनुगृहीत हूं। तू नाहक पश्चाताप मर कर। लेकिन गुलाल कहते: वह आपकी तरफ होगी बात। मेरी तरफ तो पश्चाताप जारी रहेगा।
~ परमगुरु ओशो
बीच आंगन में 90 वर्षीय महंत राम रामाश्रयदास जी बैठे हुए थे। उनकी गर्दन कांप रही थी और हाथ भी। गुरुदेव ने उन्हें प्रणाम किया, उन्होंने भी बड़े अहोभाव से प्रणाम किया। जैसे करुणापूर्ण उनकी आँखे हमारे गुरुदेव को निहार रही थी, मानो कह रही हों कि बहुत इंतजार करवाया, मैं धन्य हुआ। दोनों संतों का मिलन कैसा था, शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। शत्रुघ्नदास गुरुदेव और संगत को लेकर पहले बुल्ला साहेब की समाधि के अंदर ले गए। आश्रम प्रांगण में काफी समाधियाँ बनी हुई थीं। गुरुदेव ओशो सिद्धार्थ जी बुल्ला साहेब, गुलाल साहेब, भीखा साहेब व अन्य सन्तों की समाधियों पर चादर चढ़ाते, पुष्पांजलि देते और फिर आंखें बंद कर उनका प्रेमपूर्ण आवाहन कर उनसे जुड़ जाते। और सारी संगत गुरुदेव के साथ इस अभूतपूर्व रहस्यमय मिलन के रोमांच! से भर जाती। और अपने सौभाग्य पर गौरवान्वित होती।
सभी पुनः गुरुदेव के साथ आश्रम प्रांगण में संत रामाश्रयदास जी के सामने उपस्थित हुए। और उनकेे सामने हम सब बैठ गए। उनकी प्रेममय आंखें सबको निहार रही थीं। उनकी गर्दन का झूलना जारी था। किसी ने कहा कि संत की गर्दन शारीरिक कष्ट के चलते झूल नहीं रहीं, बल्कि गुरुदेव के आगमन की खुशी में झूम रही हैं। दोनों संत प्रेम से एक दूसरे को निहारते रहे। जुबां से कम और मौन में बातें ज्यादा हुईं। अचानक कॉंपते हाथों से संत रामाश्रयदास जी ने ठीक अपने सामने इंगित किया और सप्रेम बोले कि पालकी वहाँ रखी है, देख के जाइऐगा। गुरुदेव ने एक छोटा ठहाका लगाया और बाल सुलभ आनंद में बोले कि हाँ, मैंने शादी भी पालकी पर चढ़ने के लिए किया। इतना सुनना था कि संत रामाश्रयदास के चेहरे पर और साथ ही उपस्थित जनसमूह के चेहरों पर भी एक आनंद की लहर गुजर गई। गुरुदेव की इतनी सहजता शायद उपस्थित जन-समूह के लिए एक प्रेरणा थी।
संत से विदा ली गई और गुरुदेव के साथ हम सभी ने बड़े हाल में रखी पालकी को देखा, जो अतिप्राचीन थी। गुरुदेव ने उस पालकी को बड़े प्रेम से सहलाया, जैसे उससे उनका पुराना नाता रहा हो।
हालांकि इसका राज तो गुरूदेव और संत रामाश्रयदास जी ही जानते हैं!!
हमारे पथ प्रदर्शक स्वामी शत्रुघ्नदास जी बड़े उत्साह से हम लोगों को विभिन्न साधना कक्षों से गुजारते, दूसरी मंजिल की एक दिवाल तक लाये और कहा कि यही वह दीवार है, जिस पर कभी संत भीखा बैठे थे और जिसे चला कर वे एक आगंतुक संत कीनाराम जी, जो कि बाघ पर चढकर मिलने आए थे, उनका स्वागत किया था। मिथक जो भी हो पर आज भी वह दीवार अपने उद्गम से ही तिरछी खड़ी है।
महंत रामाश्रय दास जी ने अगले साल 2008 में अपना शरीर छोड़ दिया। नए महंत शत्रुघ्नदास जी का निमंत्रण स्वीकार कर गुरुदेव मुरथल से उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करने स्वयें भुरकुड़ा पहुंचे। सभी संतों के लिए गुरुदेव के मन में अथाह प्रेम और सम्मान अनिर्वचनीय है।
("बूंद से समंदर तक का सफ़र" से संकलित )
गुरुदेव ने ओशोधारा में अध्यात्म के सर्वश्रेष्ठ मार्ग 'सहज-योग' को प्रतिपादित किया है, जिसके 3 आयाम हैं - ज्ञान योग, भक्ति योग और कर्म योग। ज्ञान योग का अर्थ है स्वयं को आत्मा जानना और आनंद में जीना। भक्ति योग का अर्थ है परमात्मा को जानना और उसके प्रेम में जीना। कर्म योग का अर्थ है आत्मा और परमात्मा से जुड़कर संसार का नित्य मंगल करना।
गुरूदेव कहते हैं :- "आध्यात्मिक व्यक्ति मैं उसे कहता हूँ जो साक्षी रहकर जगत को सत्यम् शिवम् सुंदरम् बनाने की दिशा में प्रयत्नशील रहता है। न वह किसी का अमंगल करता है, न अपना अमंगल होते हुए देखता है। वह अपना तथा औरों के जीवन को सुंदर बनाने की चेष्टा करता रहता है।"
गुरूदेव ने एक रहस्य की बात बताई है :- बैकुंठ में आत्मानन्द है पर ब्रह्मानन्द नहीं है, क्योंकि वहां भक्ति नहीं है।
भक्ति सिर्फ मनुष्य शरीर से ही सम्भव है।
सुमिरन सिर्फ सांसों के साथ ही किया जा सकता है।
सन्त सुमिरन का आनन्द लेने के लिए, सांस-सांस आत्मानन्द + ब्रह्मानन्द (सदानन्द) का आनन्द लेने के लिए ही पृथ्वी पर बार-बार आते हैं।
प्रभु के सच्चे और निष्ठावान साधकों! का ओशोधारा में स्वागत है कि वे ध्यान-समाधि से चरैवेति तक का संकल्प लेकर गुरुदेव के साथ अपने परमजीवन की यात्रा का शुभारंभ करें।
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥
- वेद एवं षटवेदांगादि शास्त्र जिन्हें कंठस्थ हों, जिनमें सुन्दर काव्य निर्माण की प्रतिभा हो, किंतु उनका मन यदि गुरु के श्री चरणों के प्रति आसक्त न हो तो इन सदगुणों से क्या लाभ?
नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां
नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां
★ भुरकुड़ा आश्रम में बूला साहेब, गुलाल साहेब, भीखा साहेब के समाधि-स्थल का दर्शन करें 👇 ★
~ जागरण सिद्धार्थ
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⚘JAI SADGURUDEV ⚘
ReplyDelete⚘JAI OSHODHARA⚘
🙏
Sadguru charno me naman ahobhav
ReplyDeleteGratitude Respected Beloved Sadgurudev🙏❤️
ReplyDeleteMeri koi oshodhara ma aane mein madad Karen
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