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    गुरुदेव के संस्मरण ~ संत गुलाल के गांव भुरकुड़ा में

    संत गुलाल साहब का जन्म सत्रहवीं शताब्दी में उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जनपद के भुरकुड़ा गांव में हुआ था।संत गुलाल साहब सतनामी संत थे। उन्होंने जनमानस को सहृदयता, शांति और प्रेम का पाठ पढ़ाया। उस समय देश में औरंगजेब का शासन था। चारों ओर उथल-पुथल थी। ऐसे में गुलाल साहब का प्राकट्य समाज में एक नई ऊर्जा संचार में सहयोगी बना। उन्होंने ध्यान, भक्ति चिंतन से आम आदमी को अध्यात्म-पथ पर अग्रसर होने की प्रेरणा दी। उनका उद्घोष है कि ‘हरि भजन के बिना भवसागर के पार उतरना कठिन है। सुर, नर, मुनि, नाग सबके लिए भजन जरूरी है।’
    इन्होंने बुल्ला साहेब का शिष्यत्व ग्रहण किया।
    और बुल्ला साहेब की महाप्रयाण के बाद उनकी धारा को आगे बढ़ाया।
    1760 ई.में आप भूलोक से सतलोक को महाप्रयाण कर गए।
    गुलाल एक छोटे-मोटे जमींदार थे। और उनका एक चरवाहा था। उसकी आंखों में खुमार था। उसके उठने-बैठने में एक मस्‍ती थीं। कहीं रखता था पैर, कहीं पड़ते थे पैर। और सदा मगन रहता था। कुछ था नहीं उसके पास मगन होने को—चरवाहा था, बस दो जून रोटी मिल जाती थी। उतना ही काफी था। सुबह से निकल जाता खेत में काम करने, जो भी काम हो, रात थका मांदा लौटता; लेकिन कभी किसी ने उसे अपने आनंद को खोते नहीं देखा। एक आनंद की आभा उसे घेरे रहती थी। उसके बाबत खबरें आती थी—गुलाल के पास, मालिक के पास—कि यह चरवाहा कुछ ज्‍यादा काम करता नहीं; क्‍योंकि उसे खेत में नाचते देखा जाता था। मस्‍त डोलते मगन आसमान में उड़ते पक्षियों की तरह चहकते देखा था। काम ये क्‍या खाक करेगा। तुम भेजते हो गाएं चराने गाए एक तरफ चरती रहती है, यह झाड़ पर बैठकर बांसुरी बजाता है। बहुत शिकायतें आने लगीं।

    एक सीमा होती है। मालिक सुनते-सुनते थक गया था। कहा: मैं आज जाता हूं ओर देखता हूं। जाकर देखा तो बात सच थीं। बैल हल को लिए खड़े थे एक किनारे—कोई हांकने वाला ही नहीं था—और बुलाकी राम वृक्ष के नीचे आँख बंद किए डोल रहे थे। मालिक को क्रोध आ गया। देखा—यह हरामखोर, काहिल, आलसी….। लोग ठीक कहते है। उसके पीछे पहुंचे और जाकर जोर से एक लात उसे मार दी। बुलाकी राम लात खाकर गिर पडा। आंखे खोली। प्रेम और आनंद के अश्रु बह रहे थे। बोला अपने मालिक से: मेरे मालिक, किन शब्‍दों में धन्‍यवाद दूँ? कैसे आभार करूं, क्‍योंकि जब आपने लात मारी तब में ध्‍यान कर रहा था। जरा से बाधा रह गई थी। छूट ही नहीं रही थी। जब भी ध्‍यान करता वो अड़चन बन सामने खड़ी हो जाती थी। आपने लात मारी वह बाधा मिट गई। मेरी बाधा थी जब भी मस्‍त होता ध्‍यान में मगन होता मस्त होता, तो गरीब आदमी हूं, साधु-संतों को भोजन करवाने के लिए निमंत्रण करना चाहता था। लेकिन में तो गरीब आदमी हूं, सो कहां से भोजन करवाऊंगा, तो बस ध्‍यान में जब मस्‍त होता भंडारा करता हूं, मन ही मन मैं सारे साधु-संतों को बुला लाता हूं कि आओ सब आ जाओ दूर देश से आ जाओ। और पंक्‍तियों पर पंक्तियां साधुओं की बैठी थी और क्‍या-क्‍या भोजन बनाए थे। मालिक परोस रहा था, मस्‍त हो रहा था। इतने साधु-संत आये है, एक से एक महिमा वाले है। और तभी आपने मार दी लात। बस दही परोसने को रह गया था; आपकी लात लगी, हाथ से हाँड़ी छूट गई, दही बिखर गई, हांडी फुट गई। मगर गजब कर दिया मेरे मालिक, मैंने कभी सोचा भी न था कि आपको ऐसा कला आती है। हाँड़ी क्‍या फूटी, मानसी-भंडारा विलुप्‍त हो गया, साधु-संत नदारद हो गए—कल्‍पना ही थी सब, कल्‍पना का ही जाल था—और अचानक मैं उस जाल से जग गया, बस साक्षी मात्र रह गया।

    आँख से आंसू बह रहे है। आनंद के और प्रेम के शरीर रोमांचित है हर्षोन्माद से, एक प्रकाश झर रहा है। बुलाकी राम की यह दशा पहली बार गुलाल ने देखी। बुलाकी राम ही नहीं जागा साक्षी में, अपनी आंधी में गुलाल को भी बहा ले गया। आँख से जैसे एक पर्दा उठ गया। पहली बार देखा कि यह कोई चरवाहा नहीं; मैं कहां-कहां, किन-किन दरवाज़ों पर सद्गुरूओं को खोजता रहा, सदगुरू मेरे घर में मौजूद था। मेरी गायों को चरा रहा था। मेरे खेतों को सम्‍हाल रहा था। गिर पड़े पैरो में; बुलाकी राम, बुलाकी राम न रहे—'बूला साहेब' हो गए। पहली दफा गुलाल ने उन्‍हें संबोधित किया: 'बूला साहेब'। मेरे मालिक, मेरे प्रभु, साहेब का अर्थ: प्रभु। कहां थे नौकर, कहां हो गए शाह, शाहों के शाह।

    इधर गुरु का जन्‍म हुआ, इधर गुरु का आविर्भाव हुआ, उधर शिष्‍य के जीवन में क्रांति हो गयी। बूला साहेब को कंधे पर लेकर लौटे गुलाल। वह जो लात मारी थी। जीवन भर पश्‍चाताप किया, जीवन भर पैर दबाते रहे।
    बूला साहेब कहते मेरे पैर दुखते नहीं है, क्‍यों दबाते हो? वे कहते: वह जो लात मारी थी…..। तीस-चालीस साल 'बूला साहेब' जिंदा रहे, गुलाल पैर दबाते रहे। एक क्षण को भी साथ नहीं छोड़ते थे। आखिरी क्षण भी 'बूला साहेब' जब शरीर छोड़ रहे थे तब भी गुलाल पैर दबा रहे थे। 'बूला साहेब' ने कहा: अब तो बंद कर रे, पागल , पर गुलाल ने कहां कि कैसे बंद करूं? वह जो लात मारी थी।

    गुरु को लात मारी, बूला साहेब लाख समझाते रहे कि तेरी लात से ही तो मैं जागा, मैं अनुगृहीत हूं। तू नाहक पश्‍चाताप मर कर। लेकिन गुलाल कहते: वह आपकी तरफ होगी बात। मेरी तरफ तो पश्‍चाताप जारी रहेगा।

                                                 ~ परमगुरु ओशो

     21 फरवरी, 2007 को कर्मा से सद्गुरू ने अपनी संगत के साथ श्रद्धांजलि यात्रा आरंभ की। दरिया साहब के धरकंधा समाधिस्थल का दर्शन कर गुरुदेव की संगत भुरकुड़ा की तरफ रवाना हुई। करीब चार बजे यह कारवां भुरकुड़ा पहुँचा। गुरुदेव की अगवानी में ओशोधारा के काफी मित्र गुलाल साहब के आश्रम के बाहर प्रतीक्षा रत मिले। गुरु के उतरते ही सारी भीड़ हर्षित हो उठी और चरण स्पर्श की तो होड़ सी मच गई। आश्रम के एक नौजवान संन्यासी शत्रुघ्न दास ने विनम्र प्रणाम किया और हम सभी को आश्रम के आँगन में ले आए।
    बीच आंगन में 90 वर्षीय महंत राम रामाश्रयदास जी बैठे हुए थे। उनकी गर्दन कांप रही थी और हाथ भी। गुरुदेव ने उन्हें प्रणाम किया, उन्होंने भी बड़े अहोभाव से प्रणाम किया। जैसे करुणापूर्ण उनकी आँखे हमारे गुरुदेव को निहार रही थी, मानो कह रही हों कि बहुत इंतजार करवाया, मैं धन्य हुआ। दोनों संतों का मिलन कैसा था, शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। शत्रुघ्नदास गुरुदेव और संगत को लेकर पहले बुल्ला साहेब की समाधि के अंदर ले गए। आश्रम प्रांगण में काफी समाधियाँ बनी हुई थीं। गुरुदेव ओशो सिद्धार्थ जी बुल्ला साहेब, गुलाल साहेब, भीखा साहेब व अन्य सन्तों की समाधियों पर चादर चढ़ाते, पुष्पांजलि देते और फिर आंखें बंद कर उनका प्रेमपूर्ण आवाहन कर उनसे जुड़ जाते। और सारी संगत गुरुदेव के साथ इस अभूतपूर्व रहस्यमय मिलन के रोमांच! से भर जाती। और अपने सौभाग्य पर गौरवान्वित होती।
    सभी पुनः गुरुदेव के साथ आश्रम प्रांगण में संत रामाश्रयदास जी के सामने उपस्थित हुए। और उनकेे सामने हम सब बैठ गए। उनकी प्रेममय आंखें सबको निहार रही थीं। उनकी गर्दन का झूलना जारी था। किसी ने कहा कि संत की गर्दन शारीरिक कष्ट के चलते झूल नहीं रहीं, बल्कि गुरुदेव के आगमन की खुशी में झूम रही हैं। दोनों संत प्रेम से एक दूसरे को निहारते रहे। जुबां से कम और मौन में बातें ज्यादा हुईं। अचानक कॉंपते हाथों से संत रामाश्रयदास जी ने ठीक अपने सामने इंगित किया और सप्रेम बोले कि पालकी वहाँ रखी है, देख के जाइऐगा। गुरुदेव ने एक छोटा ठहाका लगाया और बाल सुलभ आनंद में बोले कि हाँ, मैंने शादी भी पालकी पर चढ़ने के लिए किया। इतना सुनना था कि संत रामाश्रयदास के चेहरे पर और साथ ही उपस्थित जनसमूह के चेहरों पर भी एक आनंद की लहर गुजर गई। गुरुदेव की इतनी सहजता शायद उपस्थित जन-समूह के लिए एक प्रेरणा थी।

    संत से विदा ली गई और गुरुदेव के साथ हम सभी ने बड़े हाल में रखी पालकी को देखा, जो अतिप्राचीन थी। गुरुदेव ने उस पालकी को बड़े प्रेम से सहलाया, जैसे उससे उनका पुराना नाता रहा हो।
    हालांकि इसका राज तो गुरूदेव और संत रामाश्रयदास जी ही जानते हैं!!
    हमारे पथ प्रदर्शक स्वामी शत्रुघ्नदास जी बड़े उत्साह से हम लोगों को विभिन्न साधना कक्षों से गुजारते, दूसरी मंजिल की एक दिवाल तक लाये और कहा कि यही वह दीवार है, जिस पर कभी संत भीखा बैठे थे और जिसे चला कर वे एक आगंतुक संत कीनाराम जी, जो कि बाघ पर चढकर मिलने आए थे, उनका स्वागत किया था। मिथक जो भी हो पर आज भी वह दीवार अपने उद्गम से ही तिरछी खड़ी है।
    गुरुदेव के साथ पूरी संगत संत गुलाल साहब के खेत में जो कि कुछ ही दूरी पर है, उपस्थित हुई। खेत में गेहूँ की बालियाँ हवा के झोंके में मानो थिरक रही थी। पास ही एक बड़े चबूतरे पर बहुत सारे जंगली पौधे उग आऐ थे। हमारे गाइड संन्यासी शत्रुघ्नदासजी ने कहा कि इसी झाड़-झंकाड़ वाली जगह पर कभी बुल्ला साहेब ध्यान करने बैठे थे कि उनके मालिक गुलाल साहब लोगों की शिकायत पर आ धमके थे... और उन्होंने वह पूरी अद्भुत घटना का विस्तार से वर्णन किया। । यही वह परमपावन जगह थी। जहां संत और एक सद्शिष्य का जन्म एक साथ हुआ। ऐसी प्यारी घटना और ऐसी प्यारी जगह पूरी पृथ्वी पर शायद नहीं है। गुरुदेव भी प्रेम के आवेग में आनंद अनुभूति कर रहे थे। ऐसा लगा मानो इस घटना के वे चश्मदीद गवाह हैं। शाम ढल चुकी थी। सुरमयी अंधेरे ने खेत और चबूतरे को घेरना शुरू कर दिया था। सबकी तंद्रा तब टूटी, जब गुरुदेव ने कहा कि गुलाल साहब के खेत का एक पौधा ले चलते हैं और मुरथल आश्रम में लगाते हैं।

    महंत रामाश्रय दास जी ने अगले साल 2008 में अपना शरीर छोड़ दिया। नए महंत शत्रुघ्नदास जी का निमंत्रण स्वीकार कर गुरुदेव मुरथल से उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करने स्वयें भुरकुड़ा पहुंचे। सभी संतों के लिए गुरुदेव के मन में अथाह प्रेम और सम्मान अनिर्वचनीय है।

                  ("बूंद से समंदर तक का सफ़र" से संकलित )
    गुरुदेव ने ओशोधारा में अध्यात्म के सर्वश्रेष्ठ मार्ग 'सहज-योग' को प्रतिपादित किया है, जिसके 3 आयाम हैं - ज्ञान योग, भक्ति योग और कर्म योग। ज्ञान योग का अर्थ है स्वयं को आत्मा जानना और आनंद में जीना। भक्ति योग का अर्थ है परमात्मा को जानना और उसके प्रेम में जीना। कर्म योग का अर्थ है आत्मा और परमात्मा से जुड़कर संसार का नित्य मंगल करना।

    गुरूदेव कहते हैं :- "आध्यात्मिक व्यक्ति मैं उसे कहता हूँ जो साक्षी रहकर जगत को सत्यम् शिवम् सुंदरम् बनाने की दिशा में प्रयत्नशील रहता है। न वह किसी का अमंगल करता है, न अपना अमंगल होते हुए देखता है। वह अपना तथा औरों के जीवन को सुंदर बनाने की चेष्टा करता रहता है।"

    गुरूदेव ने एक रहस्य की बात बताई है :- बैकुंठ में आत्मानन्द है पर ब्रह्मानन्द नहीं है, क्योंकि वहां भक्ति नहीं है।
    भक्ति सिर्फ मनुष्य शरीर से ही सम्भव है।
    सुमिरन सिर्फ सांसों के साथ ही किया जा सकता है।
    सन्त सुमिरन का आनन्द लेने के लिए, सांस-सांस आत्मानन्द + ब्रह्मानन्द  (सदानन्द) का आनन्द लेने के लिए ही पृथ्वी पर बार-बार आते हैं।

    प्रभु के सच्चे और निष्ठावान साधकों! का ओशोधारा में स्वागत है कि वे ध्यान-समाधि से चरैवेति तक का संकल्प लेकर गुरुदेव के साथ अपने परमजीवन की यात्रा का शुभारंभ करें।

    हृदय में गुरूदेव और हनुमत स्वरूप सिद्धि के साथ गोविंद का सुमिरन!
    गुरूदेव ने आध्यात्मिक जगत में महाक्रान्ति ला दी है; ओशोधारा के साधकों के जीवन के केंद्र में गुरु हैं, सत-चित-आनन्द के आकाश में उड़ान है और सत्यम-शिवम-सुंदरम से सुशोभित महिमापूर्ण जीवन है!!

    गुरुदेव द्वारा प्रदत्त सुमिरन+हनुमत स्वरूप सिद्धि अति उच्चकोटि की साधना है।
    हनुमान स्वयं इसी साधना में रहते हैं, वे सदैव भगवान श्रीराम के स्वरूप के साथ कण-कण में व्याप्त निराकार राम का सुमिरन करते हैं।

    गुरुदेव ने अब सभी निष्ठावान साधकों को यह दुर्लभ साधना प्रदान कर आध्यात्मिक जगत में स्वर्णिम युग की शुरूआत कर दी है।

    सदा स्मरण रखें:-
    गुरु को अंग-षंग जानते हुए सुमिरन में जीना और गुरु के स्वप्न को विस्तार देना यही शिष्यत्व है।
    गुरु+गोविंद+शिष्य यह सिनर्जी ही सारे अध्यात्म का सार है!!
    और यह सतत चलता रहेगा, चरैवेति.. चरैवेति...।
    षड़ंगादिवेदो मुखे शास्त्रविद्या, कवित्वादि गद्यं सुपद्यं करोति। 
    मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥

    - वेद एवं षटवेदांगादि शास्त्र जिन्हें कंठस्थ हों, जिनमें सुन्दर काव्य निर्माण की प्रतिभा हो, किंतु उनका मन यदि गुरु के श्री चरणों के प्रति आसक्त न हो तो इन सदगुणों से क्या लाभ?

                  नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां
                  नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां

    ★ भुरकुड़ा आश्रम में बूला साहेब, गुलाल साहेब, भीखा साहेब के समाधि-स्थल का दर्शन करें 👇 ★

               

                                            ~ जागरण सिद्धार्थ 
            
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