गुरुदेव के संस्मरण ~ अध्यात्म: एक अज्ञात चुनौती
पता चला उनका वास्तविक नाम लीला भंडारी है। शिमला रेडियो से उनके लोक गीत प्रसारित होते रहते हैं। संगीत में उनके उस्ताद श्री देशबन्धु शर्मा थे, जिनसे धर्मशाला में उन्होंने वर्षों तक संगीत की शिक्षा ली। दिल्ली कत्थक केन्द्र से बिरजू महाराज से उन्होंने कत्थक नृत्य सीखा। उनके पिता ब्रिटिश आर्मी में कैप्टन थे। भरा-पूरा परिवार था। मगर सत्य की प्यास ऐसी जगी कि उन्होंने आदि शंकराचार्य की पुरी परंपरा में संन्यास ले लिया। उनके गुरू हुए स्वामी उत्तम पुरी महाराज। संन्यास के बाद उन्होंने धर्मशाला छोड़ दिया और हिमाचल प्रदेश में ही नाहन के पास सिकार्डी में रहने लगीं, जहां उनके फुफेरे भाई स्वामी रामनाथ कुटिया बनाकर साधना करते थे।
स्वामी रामनाथ कभी आजाद हिंद फौज के सैनिक थे। बाद में नाथ परंपरा में दीक्षित हुए और सिकार्डी नदी के किनारे धूनी रमाने लगे। तपस्विनी मीरा पुरी जी ने उनकी कुटिया से थोड़ी ही दूरी पर अपनी कुटिया का निर्माण कराया और तपस्या में रत हो गईं।
गुरुदेव ने उन्हें गिरिडीह गौस बाबा ( सूफी बाबा के सद्गुरु) के उर्स में आने का निमन्त्रण दिया, जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। जून, 1987 में वे गिरिडीह उर्स में भाग लेने पहुंची, जहां उन्होंने गुरुदेव से शंकराचार्य की संत परंपरा, मंत्र साधना और संन्यास जीवन के बारे में अपने अनेक रोमांचक संस्मरण सुनाए।
बाद में वे गुरुदेव के घर पर रांची भी आईं, जहां गुरुदेव के परिवार से उनकी घनिष्टता हो गई।
एक दिन गुरुदेव ने उनसे पूछा - ‘ आप एक समृद्ध परिवार से हैं। फिर आपने घर क्यों छोड़ दिया? क्या घर में रहकर साधना नहीं की जा सकती थी?’
प्रत्युत्तर में तपस्विनी जी ने पूछा - ‘अगर आज आपकी मृत्यु आकर आपसे बोले कि चलिए आपका वक्त समाप्त हो गया। आप क्या कहेंगे?’
गुरुदेव सोच में पड़ गए। सर्वप्रथम बच्चों का ख्याल आया। बच्चे अभी छोटे थे। उनकी पढ़ाई अभी पूरी नहीं हुई थी। गुरुदेव ने आँखें बंद की और सोचा। उन्हें लगा कि वह अभी जाने के लिए तैयार नहीं हैं।
गुरुदेव ने कहा - ‘मैं तो अभी जाने के लिए तैयार नहीं हूँ।’
तपस्विनी जोर से हंसी। बोलीं - ‘इसका मतलब हुआ कि आपका बहुत कुछ Pending है। लेकिन मेरा कुछ भी Pending नहीं है। इसीलिए मैंने और मेरे जैसे अनेक संन्यासियों ने एक ही झटके में संसार छोड़ दिया।’
गुरुदेव - ‘अध्यात्म के मार्ग में परिवार या संसार छोड़ना जरूरी क्यों है?’
तपस्विनी - ‘मेरा और मैं दो ही बंध हैं। मुक्त होने के लिए पहले मेरा से मुक्त होना जरूरी है। अभी आप मेरा से मुक्त नहीं हुए। अगर मृत्यु की बेला आ जाए और आप जाने के लिए तैयार खड़े हैं, तो समझिए आप मेरा से मुक्त हैं।
सुनकर गुरुदेव ने जाना कि मुक्ति का मार्ग क्या है। जब ज़िन्दगी ऐसी हो कि कुछ भी करने के लिए Pending नहीं बचा, यही मुक्ति है।
आगामी कुछ वर्षों में तपस्विनी जी से गुरुदेव की कई बार मुलाकात हुई, व अनेक विषयों पर उनसे अध्यात्म पर चर्चा होती रही।
इस बीच जनवरी, 90 में ओशो विदा हो गए। जैसे पैरों तले से जमीन खिसक गई, गुरुदेव सोच में पड़ गए। क्या कोई ऐसा जीवित संत है, जो परमात्मा का पता बता सकता है?
उन्होंने कहा -‘ नहीं, लेकिन मेरे सद्गुरू स्वामी उत्तम पुरी महाराज को पता है। हमलोग उनसे मिल सकते हैं।’
अगले दिन दोनों स्वामी उत्तम पुरी जी से मिलने नाहन पहुंचे। स्वामीजी अपनी कुटिया में धूनी रमा रहे थे। तपस्विनी जी ने उनसे गुरुदेव का परिचय कराया। वे आयुर्वेद और जड़ी-बूटियों के अनुभवी वैद्य भी थे।
उन्होंने गुरुदेव से पूछा - ‘आप क्या चाहते हैं?’
गुरुदेव - ‘क्या आप परमात्मा के बारे में जानते हैं?’
स्वामीजी - ‘जानता हूं?’
गुरुदेव - ‘क्या आप मुझे अनुभव करा सकते हैं?’
स्वामीजी - ‘करा सकता हूं। लेकिन इसके लिए आपको मेरी 3 इच्छाएं पूरी करनी होंगी।’
गुरुदेव - ‘जी, कहा जाए।’
स्वामीजी - ‘पहली इच्छा है कि मैंने समुद्र नहीं देखा है। मैं समुद्र स्नान का अनुभव लेना चाहता हूं।’
गुरुदेव - ‘मंजूर है। दूसरी बताएं।’
स्वामीजी - ‘मैं हवाई जहाज पर नहीं चढ़ा हूं। मैं उसका अनुभव करना चाहता हूं।’
गुरुदेव - ‘जी, मंजूर है। तीसरी इच्छा बताएं।’
स्वामीजी - ‘मेरी कुलदेवी कामाख्या है। मैं गौहाटी में उनका दर्शन करना चाहता हूं।’
गुरुदेव - ‘मंजूर है। हम कब यात्र शुरू कर सकते हैं?’
स्वामी जी - ‘कल। साथ में मीरा भी रहेगी’
गुरुदेव - ‘ठीक है। तैयार हो जाइए।’
गुरुदेव ने अपने मित्र पं. पुरुषोत्तम ठाकुर को फोन किया। वे दिल्ली कालका जी में रहते थे। गुरुदेव की यात्रओं की बहुधा वे ही व्यवस्था करते थे। प्यार से गुरुदेव उन्हें पंडित जी कहते थे। उन्होंने गुरुदेव की यात्रा की पूरी व्यवस्था कर दी और स्वयं भी साथ चलने का अनुरोध किया।
दूसरे दिन गुरुदेव, स्वामी उत्तम पुरी और तपस्विनी दिल्ली पहुंचे। वहां से पंडित जी के साथ हो लिए। ट्रेन से चारों कोलकता पहुंचे। टैक्सी से चारों दीघा गए। समुद्र में चारों ने स्नान किया।
स्वामी उत्तम पुरी ने गुरुदेव से कहा - ‘धन्यवाद, आपने मेरी पहली इच्छा पूरी कर दी।’
रात कोलकता कोल इंडिया के गेस्ट हाउस में चारों ठहर गए। अगले दिन वायुयान से चारों गौहाटी पहुंचे। स्वामी उत्तम पुरी वायुयान की यात्रा कर बहुत खुश नज़र आ रहे थे।
उन्होंने गुरुदेव से कहा - ‘आपको अनेक धन्यवाद। आपने मेरी दूसरी इच्छा भी पूरी कर दी।’
चारों कोल इंडिया के गौहाटी गेस्ट हाउस में ठहरे। अगले दिन सबेरे उन्होंने कामाख्या मंदिर का दर्शन किया। मंदिर के अंदर मां काली की मूर्ति के साथ रामकृष्ण परमहंस का चित्र भी थे। भगवान के साथ भक्त को प्रतिष्ठित देखकर गुरुदेव अत्यंत प्रसन्न हुए।
दोपहर तक चारों गेस्ट हाउस लौट आए। भोजन करने के बाद गुरुदेव आम का प्लेट लेकर स्वामीजी की सेवा में हाजिर हुए। थोड़ी देर बाद गुरुदेव ने स्वामी जी से निवेदन किया - ‘बाबा, मैंने आपकी तीनों इच्छाएं पूरी कर दीं। अब क्या आप मुझे परमात्मा का अनुभव कराएंगे?’
यह सुनते ही स्वामीजी दहाड़ मारकर रोने लगे। रोते-रोते उनकी सिसकियां निकलने लगीं। गुरुदेव ने कहा-‘आपको यूं रोता देख मैं स्तब्ध हूं। आखिर बात क्या है?’
संयत होने में स्वामी जी को थोड़ी देर लगी। फिर उन्होंने कहा-‘ मैंने यही सवाल बार-बार अपने गुरू से पूछा कि मुझे परमात्मा का अनुभव कब कराओगे? हर बार गुरू ने यह कहकर टाल दिया कि उचित वख्त आने दो।’
स्वामीजी ने अपने पांव दिखाकर कहा - ‘देखो, मेरे पांवों में उंगलियां नहीं हैं। इसके बावजूद मैं प्रतिदिन जंगल जाता था। ईंधन के लिए लकड़ियां ले आता था। गुरू और अपने लिए खाना बनाता था। रात सोते समय पांव दबाता था। ऐसे ही 30 वर्ष बीत गए। एक दिन गुरू ने कहा कि अब उनके जाने का समय आ गया।’ यह कहकर वे फिर रोने लगे।
स्वामी उत्तम पुरी जी ने अपने गुरु से कहा - ‘आप ऐसे कैसे जा सकते हैं। आपने मुझे परमात्मा का अनुभव कराने का वचन दिया है।’
गुरू - ‘तू मूरख है। अगर मुझे परमात्मा का पता होता, तो मैंने बहुत पहले ही बता दिया होता।’
यह कहकर गुरू ने प्राण त्याग दिए। स्वामी उत्तमपुरी ने गुरुदेव से कहा -‘आप भी मूरख हो। अगर मुझे परमात्मा का पता होता, तो मैंने नाहन में ही बता दिया होता।’
गुरुदेव - ‘आपको बहुत बहुत धन्यवाद कि आपने इतना जल्द मुझे सत्य बता दिया। क्या पता मैं भी आपकी तरह कितने साल झूठी आशा में गंवा दिया होता।’
वापसी यात्र में जब ट्रेन मुगलसराय पहुंची, स्वामी उत्तम पुरी ने गुरुदेव से कहा - ‘आपको दिल्ली चलने की जरूरत नहीं। यहीं से आप रांची चले जाएं।’
गुरुदेव ने उन्हें, स्वामी मीरापुरी जी को तथा पंडित जी को धन्यवाद कहा और प्रभु की यात्रा में एक और पड़ाव पार करने के एहसास से भरे हुए अपने घर रांची के लिए रवाना हो गए।
("बूंद से समंदर तक का सफ़र" से संकलित )
मीरापुरी,स्वामी रामनाथ, स्वामी उत्तम पुरी जी और उनके जैसे तमाम प्रभु के प्रेमी साधक जिन सबकी प्यास निष्ठा और संकल्प में कोई भी कमी नहीं रहती पर सही मार्गदर्शक (पूरा गुरु) न मिल पाने के कारण यात्रा कहीं भी नही हो पाती। अध्यात्म के इस महाभटकाव के कारण साधकों का सारा जीवन व्यर्थ चला जाता है। सब गुरुदेव की तरह प्रज्ञावान नही होते जो सीधे मुद्दे की बात कर सकें!!
साधक तो सारी जिंदगी गुरु की सेवा करते रहते और एकदिन गुरु विदा हो जाते हैं, और उनके हाथ खाली के खाली रह जाते हैं ।
दूसरे जीवित गुरु को खोजने के लिए भी कम ही लोगों में प्रज्ञा होती है, ज्यादातर साधकों में साहस ही नहीं होता और न ही प्रज्ञा, कि अगर इस गुरु से आत्मज्ञान की यात्रा नहीं हुई तो किसी दूसरे गुरु को खोज कर उनके श्री-चरणों से जुड़ा जाए, ज्यादातर साधक इस भ्रम में रहते हैं एक न एक दिन अपने आप आत्मज्ञान हो जाएगा।
या बहुत से साधक भय में रहते है कि पूर्व गुरु से धोखा तो नही होगा!!
जबकि जीवित पूरे गुरु (ऐसा गुरु जो स्वयं परमात्मा को जानता हो तथा सभी को प्रभु की यात्रा पर ले जाने के लिए तैयार हो) से जुड़ना और परमात्मा की यात्रा में प्रवेश करना अपने पूर्व गुरु के प्रति असली श्रद्दांजलि होती है।
क्योंकि अध्यात्म के रहस्य सिर्फ जीवित (शरीर में विद्यमान) गुरु ही प्रदान कर सकते है, ऐसा ही गोविंद का विधान है।
गुरुदेव के साथ घटी यह महत्वपूर्ण घटना पूरे आध्यात्मिक जगत को बदलने वाली साबित हुई , अस्तित्वगत यह घटना सच्चे और निष्ठावान साधकों के लिए वरदान बन गई।
इस तरह की घटना की प्रेरणा ने ही गुरुदेव को आध्यात्मिक जगत में महाक्रांति के लिए प्रोत्साहित किया। अध्यात्म जगत के अंधकार और भटकावों को देखकर गुरुदेव के भीतर महाकरुणा का जन्म हुआ कि मैं सच्चे और निष्ठावान साधकों को अध्यात्म का पूरा मानचित्र उपलब्ध कराऊंगा!
और आध्यात्मिक जगत में उन्होंने वह कर दिया जो आज तक किसी ने नहीं किया। उन्होंने आत्मा-परमात्मा को स्वयं जाना और समस्त सच्चे साधकों के लिए केवल अध्यात्म का खूबसूरत मानचित्र ही पेश नही किया बल्कि प्रायोगात्मक रूप से ओशोधारा में उसे उपलब्ध करा कर अध्यात्म जगत में महाक्रांति कर दी है।
अब किसी भी सच्चे और निष्ठावान साधकों को भटकने की जरूरत नहीं है!!!
गुरूदेव कहते हैं:- "अध्यात्म का मार्ग कठपगलों के लिए नहीं, साधकों के लिए है। शोषकों या शोषितों के लिए नहीं, सद्शिष्यों के लिए है। दौलत और शोहरत के भूखों के लिए नहीं, सहज और आत्मिक जीवन जीने वालों के लिए है। सियासत और शरारत में समय बर्बाद करने वालों के लिए नहीं, भाव और प्रेम में बहने वालों के लिए है।"
गुरुदेव ने ओशोधारा में अध्यात्म के सर्वश्रेष्ठ मार्ग 'सहज-योग' को प्रतिपादित किया है, जिसके 3 आयाम हैं - ज्ञान योग, भक्ति योग और कर्म योग। ज्ञान योग का अर्थ है स्वयं को आत्मा जानना और आनंद में जीना। भक्ति योग का अर्थ है परमात्मा को जानना और उसके प्रेम में जीना। कर्म योग का अर्थ है आत्मा और परमात्मा से जुड़कर संसार का नित्य मंगल करना।
ओशोधारा के 28 तल के समाधि कार्यक्रमों में 1 से 14 (ध्यान-समाधि से निर्वाण-समाधि तक) कार्यक्रम हमें कृष्ण के ज्ञानयोग में प्रतिष्ठित करा देते है और 15 से 28 (सहज सुमिरन से चरैवेति तक) के कार्यक्रम हमें कृष्ण के भक्तियोग में प्रतिष्ठित करा देते हैं, तो प्रज्ञा के 21 कार्यक्रम हमें संसार को सुंदर बनाने की समझ जगाते है जिससे हम ज्ञानयोग+ भक्तियोग के साथ कृष्ण के कर्मयोग में प्रतिष्ठित हो जाते हैं।
ओशोधारा में परमपावन परमजीवन की यात्रा में सभी प्रभु के प्यासों को प्रेम आमंत्रण हैं! कि गुरुदेव के साथ ध्यान-समाधि से चरैवेति तक की यात्रा के परमसौभाग्य में प्रवेश करें।
गुरूदेव ने एक रहस्य की बात बताई है :- बैकुंठ में आत्मानन्द है पर ब्रह्मानन्द नहीं है, क्योंकि वहां भक्ति नहीं है।
भक्ति सिर्फ मनुष्य शरीर से ही सम्भव है।
सुमिरन सिर्फ सांसों के साथ ही किया जा सकता है।
सन्त सुमिरन का आनन्द लेने के लिए, सांस-सांस आत्मानन्द + ब्रह्मानन्द (सदानन्द) का आनन्द लेने के लिए ही पृथ्वी पर बार-बार आते हैं।
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे, ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्॥
यदि शरीर रूपवान हो, पत्नी भी रूपसी हो और सत्कीर्तिचारों दिशाओं में विस्तरित हो, मेरु पर्वत के तुल्य अपार धन हो, किंतु गुरु के श्री चरणों में यदि मन आसक्त न हो तो इन सारी उपलब्धियों से क्या लाभ?
नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां
नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां
~ जागरण सिद्धार्थ
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कोटि कोटि नमन प्यारे सदगुरु🌹🙏 आपने हमें भटकने से ही नहीं बचाया, बल्कि हमें तो अध्यात्म की एबीसीडी भी नहीं पता थी, कहां संसार में उलझे थे और आपने ही हमें बुलाया, सारे भ्रमो को दूर किया, आत्म अनुभव करवाया, अहो भाव
ReplyDeleteVery nice....
ReplyDeleteBhut Sundar likha h...
ReplyDelete⚘ JAI SADGURUDEV ⚘
ReplyDelete⚘ JAI OSHODHARA ⚘
🙏
Nice Awareness of Our Beloved Sadgurudev.
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद
ReplyDeleteप्यारे सदगुरू बड़े बाबा औलिया जी के श्रीचरणो में श्रद्धा पूर्वक प्रणाम नमन ।
ReplyDelete🙏🙏🙏🙏🙏
अहोभाव नमन।
ReplyDeleteजय ओशो जय ओशोधारा।।।
ॐ सद्गुरु गोविन्दाय परमतत्वाय नारायणाय नमः
ReplyDeleteप्यारे गुरुदेव बड़े बाबा के चरणों मे
अहोभाव सहित नमन
जय ओशो
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