गुरुदेव के परम पूज्य पिता श्री ~ स्वामी सहजानन्द भारती जी
उनके पुत्र स्वर्गीय पृथ्वीनाथ सिंह जी इसी विरासत के मालिक बने। वे अत्यंत मेधावी थे।
अपने पिता को अन्याय के खिलाफ सारी जिन्दगी लड़ते देख उन्होंने अपने पिता से अनुरोध किया कि वह पढ़ाई छोड़ खेती का कार्य करना चाहते हैं।
पिता स्वर्गीय सबलायक सिंह जी का हृदय आतुर हो गया क्योंकि वह जानते थे कि शिक्षा द्वारा ही पृथ्वीनाथ ज़िन्दगी में आगे बढ़ सकते हैं, लेकिन नन्हे बालक को कैसे समझाया जाए?
आश्विन की तपती धूप में वह अपने बेटे को अपने साथ धान के खेत में ले गए और बोले कि चलो खेत में पानी डालते हैं।
दोनो पिता पुत्र खेत में पानी उलीचने का कार्य करने लगे, थोड़ी देर में नन्हें पुत्र के पसीने छूट गए।
फिर पिता ने पुत्र को समझाया कि बेटा किसानी का रास्ता बहुत मुश्किल हैं। शिक्षा द्वारा ही ज़िन्दगी में आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त होता है।
पृथ्वीनाथ सिंह जी ने संकल्प लिया कि वह अब पढ़ेंगे। अपनी जिन्दगी की चुनौतियों के आगे हार न मानते हुए पृथ्वीनाथ सिंह जी प्रगति पथ पर आगे बढ़ते रहे। मेहनत ही तो इंसान के हाथ में हैं, फल देना या न देना तो ऊपर वाले के हाथ में है। अपनी कड़ी मेहनत और लगन के बल पर उन्होंने मिडिल स्कूल पास किया जो कि उस समय में अति दुर्लभ था।
आस पास के गांवों में से वह कुछ गिने चुने व्यक्तियों में से आते थे जिन्होने मिडिल स्कूल पास किया था।
अंततः पृथ्वीनाथ सिंह जी ने शिक्षक का पेशा अपनाया और नौकरी करते हुए मैट्रिक पास की।
उनका विज्ञान और अंग्रेजी का ज्ञान अद्भुत था। दूसरा विश्वयुद्ध आने पर वह ब्रिटिश फौज में भरती हुए और बर्मा की सीमा पर वीरता से लड़े।
अंग्रेज अधिकारी भी उनकी वीरता, शालीनता और अँग्रेजी के ज्ञान का आदर किया करते थे।
पृथ्वीनाथ सिंह जी मूलतः शिक्षक थे लेकिन गरीबी व अभाव ने उन्हें फौज में जाने के लिए विवश किया। बर्मा की सीमा पर युद्ध करने के लिए उन्हें जंगलों में अनुशासित जीवन जीना पड़ता था और यह अनुशासन धीरे-धीरे उनके जीवन का हिस्सा बन गया।
अनुशासित जीवन जीते-जीते श्री पृथ्वी नाथ सिंह जी का तन और मन फौलादी बन गया था।
उनका विवाह देशरानी जी से हुआ था। और जब वह स्वयं पिता बने तो वह अपने बच्चों को बर्मा के जंगल में हुए युद्ध के वृतांत बताया करते थे, जो कि सब बच्चे बहुत ध्यान से सुनते।
गुरुदेव अपने पिता से उनकी वीरता और शौर्य की कहानियाँ सुनते हुए बड़े हुए, तो स्वाभाविक तौर पर यह गुण उनके व्यक्तित्व का हिस्सा बन गए।
द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त होने के बाद उन्होंने बिहार पुलिस में कुछ समय काम किया और बाद में स्कूल में शिक्षक के रूप में कार्यरत रहे।
1950 के आस पास वे गोरखपुर के प्रसिद्ध संत शिव कुमार मुनि के शिष्य हुए, जिन्होंने मुनि समाज की स्थापना की थी। उनकी घोषणा थी-
‘हम भूप के भी भूप हैं, भगवान के भगवान हैं।
जो जीव को छोटा कहे, वह मूर्ख है नादान है।’
उस समय के प्रसिद्ध संत जानकी बाबा से भी उनका सत्संग चलता रहता था। बाबा उन्हें तथा बालक सिद्धार्थ को बहुत प्यार करते थे। वे बहुधा परिवार में आया करते थे और उनके घर पर ही ठहरते थे।
पृथ्वीनाथ सिंह जी ने अपनी साधना के साथ-साथ अपना पूरा ध्यान गुरुदेव की पढ़ाई पर केन्द्रित किया। गुरुदेव अपनी पढ़ाई पूरी कर 1966 में आर.आई.टी. जमशेदपुर, 1967 में भारतीय खनि विद्यापीठ में और 1975 में कोल इंडिया की सहायक कंपनी बी.सी.सी.एल., धनबाद में पदस्थापित हुए।
धनबाद में ही शिक्षक के रूप में कार्यरत उनके अनुज सुरेन्द्र जी के साथ माता-पिता भी आ गए। स्कूल के बगल में ही सुरेन्द्र जी का आवास था। पिताजी को स्कूल का माहौल रास आया और वे सुरेन्द्र जी के साथ ही रहने लगे। गुरुदेव से बहुधा उनकी मुलाकात होती रहती।
नवंबर, 1979 में एक दिन उन्होंने गुरुदेव से कहा - ‘मुझे तुम से एक जरूरी बात करनी है।’
गुरुदेव ने कहा - ‘जी, कहिए।’
पिताजी ने सकुचाते हुए - ‘मैं पूना जाना चाहता हूं। भगवान रजनीश से संन्यास लेना चाहता हूं।’
गुरुदेव - ‘तो इसमें संकोच की क्या बात है? वहां तो मैं भी जाना चाहता हूं।’
पिताजी आह्लादित हो गए और चहकते हुए बोले - 'तो चलो '।
गुरुदेव - ‘कब?’
पिताजी - ‘आज ही।’
गुरुदेव - ‘ऐसा कैसे संभव है? रेल में रिजर्वेशन कराना पड़ेगा। मेरी अभी तैयारी भी नहीं है।’
पिताजी - ‘फिर तुम्हारी मर्जी। तुम्हारी अभी उम्र है। मैं तो पका आम हूं। आज टपका कि कल टपका। मुझे तो आज ही किसी भी ट्रेन में बिठा दो, जो पश्चिम की ओर जाती हो। मैं बीच में कहीं से पूना जाने वाली ट्रेन पकड़ लूंगा।’
गुरुदेव ने उनका विशेष आग्रह देखते हुए उन्हें दिल्ली की ओर जाने वाली सियालदह एक्सप्रेस में बैठा दिया।
पूना में पिताजी ने ओशो से माला लेकर नवसंन्यास में दीक्षित हो गए। ओशो ने उन्हें नया नाम दिया ‘स्वामी सहजानंद भारती’।
पूना से आने के बाद स्वामी सहजानंद जी ने अपना पूरा ध्यान ओशो साहित्य के पठन-पाठन और अपनी साधना पर केन्द्रित किया। उनकी ज़िन्दगी में आमूल-चूल परिवर्तन होने लगा। वे अक्सर मौन रहने लगे। आवश्यक होने पर ही बोलते।
ओशो की एक किताब ‘संतों मगन भया मन मेरा’ वे अक्सर पढ़ते रहते। एक दिन उन्होंने सद्गुरू से कहा - ‘ये पढ़ो, रज्जब क्या कहते हैं। नाम बिना नाहीं निस्तारा।’
उस समय गुरुदेव को क्या पता था कि स्वामी सहजानंद जी के माध्यम से अस्तित्व उन्हें ॐकार साधना के लिए प्रेरित कर रहा था।
दिसंबर, 1983 में गुरुदेव का तबादला सी. एम.पी.डी. आई. रांची में हो गया।
पिता-पुत्र दोनों की साधना अपने-अपने ढंग से चलती रही। 31 अक्तूबर,1989 को गुरुदेव की माताजी ने देह त्याग कर दिया। स्वामी सहजानंद जी ने अब अपनी पूरी ऊर्जा साधना में लगा दी।
कार्यालय के काम से 19 जनवरी, 1990 को गुरुदेव रांची से धनबाद गए। 20 जनवरी को प्रातः गिरिडीह सूफी बाबा के दर्शन के लिए गए। वहीं ओशो के महापरिनिर्वाण का पता चला। शाम तक वे धनबाद पिताजी के पास पहुंचे।
पिताजी जैसे उन्हीं का इंतजार कर रहे थे। बोले - ‘तुम्हें पता तो होगा ही कि ओशो ने शरीर छोड़ दिया। मेरे लिए क्या आज्ञा है?’
गुरुदेव - ‘आप मेरे पिता हैं। मैं आपको कैसे आज्ञा दे सकता हूं? फिर भी बताएं आप क्या चाहते हैं?’
पिताजी - ‘जिस दुनिया में ओशो नहीं रहे, अब मेरा भी मन उसमें रहने का नहीं है। तुम आज्ञा दो तो मैं भी अब जाना चाहूंगा।’
गुरुदेव मौन हो गए। थोड़ी देर बाद संयत होकर बोले - ‘आपकी जैसी मर्जी।’
पिताजी - ‘तो 10-12 दिन में मैं भी विदा हो जाउंगा। तुमसे हमारी यह अंतिम मुलाकात है।’
31 जनवरी,1990 बसंत पंचमी के दिन स्वामी सहजानंद जी ने सुरेन्द्रजी को बुलाकर कहा - ‘आज मैं चला जाउंगा। आज बसंतपंचमी है। शुभ दिन है। पुआ-पकवान जो भी खिलाना हो, खिला दो।’
शाम को उन्होंने कहा - ‘एक कंबल नीचे बिछा दो। मुझे सब लोग एक-एक घूंट जल पिला दो।’
सबने वैसा ही किया। शाम सूरज ढल रहा था। स्वामीजी के मुख से स्पष्ट निकला - ‘ओ.....शो....।’ एक सूरज और ढल गया। अपने गुरू की याद में एक मुसाफिर और अपने घर को चला गया। वे जाते-जाते गुरूभक्ति की एक अनूठी मिसाल छोड़ गए।
("बूंद से समंदर तक का सफ़र" से संकलित )
गुरु के प्रति ऐसा अनूठा प्रेम.. यह उनकी चेतना की उच्चता को दर्शाता है, और यह संयोग नहीं है कि गुरुदेव जैसी विराट चेतना का उनके पुत्र के रूप में जन्म लेना!!
यह दर्शाता है कि वे अति विशिष्टचेतना संपन्न थे।
ऐसी महाविभूति परम चेतना परमपूज्य स्वामी सहजानन्द भारती जी के परम पावन श्री-चरण-कमलों में अहोभावमय प्रेमनमन।
गुरुदेव ने ओशोधारा में अध्यात्म के सर्वश्रेष्ठ मार्ग 'सहज-योग' को प्रतिपादित किया है, जिसके 3 आयाम हैं - ज्ञान योग, भक्ति योग और कर्म योग। ज्ञान योग का अर्थ है स्वयं को आत्मा जानना और आनंद में जीना। भक्ति योग का अर्थ है परमात्मा को जानना और उसके प्रेम में जीना। कर्म योग का अर्थ है आत्मा और परमात्मा से जुड़कर संसार का नित्य मंगल करना।
ओशोधारा में सभी सदशिष्यों का स्वागत है ध्यान-समाधि से चरैवेति तक का संकल्प लेकर परम पुनीत प्रभु की यात्रा में गुरुदेव के साथ प्रवेश करें।
गुरूदेव ने एक रहस्य की बात बताई है :- बैकुंठ में आत्मानन्द है पर ब्रह्मानन्द नहीं है, क्योंकि वहां भक्ति नहीं है।
भक्ति सिर्फ मनुष्य शरीर से ही सम्भव है।
सुमिरन सिर्फ सांसों के साथ ही किया जा सकता है।
सन्त सुमिरन का आनन्द लेने के लिए, सांस-सांस आत्मानन्द + ब्रह्मानन्द (सदानन्द) का आनन्द लेने के लिए ही पृथ्वी पर बार-बार आते हैं।
सदा स्मरण रखें:-
गुरु+गोविंद+शिष्य यह सिनर्जी ही सारे अध्यात्म का सार है!!
और यह सतत चलता रहेगा, चरैवेति.. चरैवेति...।
जीवात्मनं परमात्मनं दानं ध्यानं योगो ज्ञानम्।उत्कल काशीगंगामरणं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं॥
- परमात्मा का ज्ञान, दान, ध्यान, योग पुरी, काशी या गंगा तट पर मृत्यु - इन सबमें से कुछ भी गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, गुरुदेव से बढ़कर नहीं हैं॥
नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां
मो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां
~ जागरण सिद्धार्थ
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Beautifully expressed. Thank you.
ReplyDeleteपरमपूज्य स्वामी सहजानंद भारती जी को भावभीनी श्रद्धांजलि । सद्गुरु बड़े बाबा औलिया जी के श्रीचरणो में श्रद्धा पूर्वक प्रणाम नमन ।
ReplyDeleteShat shat Naman🙏🌷
ReplyDeleteGratitude gurudeo👏👏💝💝
ReplyDelete⚘ JAI SADGURUDEV ⚘
ReplyDelete⚘ JAI OSHODHARA ⚘
🙏
परमपूज्य स्वामी सहजानंद भारती जी के चरणो मे शत शत वंदन
ReplyDeleteजिन्हो ने हम सब के हदय सम्राट सदगुरु बडे बाबा जेसे सदगुरू की हम सब को भेंट देने के लिये
अहोभाव
शत शत नमन
Deleteसमाधिस्थ,,
ReplyDeleteगुरुदेव को शत शत नमन
प्रबोध कापड़िया,,गुजरात,,भावनगर
Naman
ReplyDeleteShat,shat naman.
ReplyDeleteSadguru Ke Prem aashis sadaiv hum par baraste rahe...
ReplyDeleteKoti koti Naman Ahobhav
Sadguru Mera pura.
ReplyDeleteBeautifully expressed.
Thank you.