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    ओशो की मूल देशना ~ गुरु-शिष्य परंपरा


    सदगुरु तुम्हें कंप्यूटर बना देने में उत्सुक नहीं है। उसकी उत्सुकता है कि तुम स्वयं प्रकाश बनो, तुम्हारा अस्तित्व प्रामाणिक बने, एक अमर अस्तित्व- मात्र जानकारी नहीं, दूसरों ने जो कहा है वह नहीं, बल्कि तुम्हारा स्वयं का अनुभव।
    जैसे-जैसे शिष्य सदगुरु के निकट और निकट आता है, रूपांतरण का एक बिंदु और आता है- जब शिष्य भक्त बन जाता है।
    और इन सभी सोपानों में एक सौंदर्य है।
    शिष्य हो जाना एक महान क्रांति है, लेकिन भक्त होने की तुलना में कुछ भी नहीं। किस क्षण शिष्य परिवर्तित होकर भक्त बनता है? गुरु की ऊर्जा, उसका प्रकाश, उसका प्रेम, उसका मुस्कराना, उसकी उपस्थिति मात्र से शिष्य इतना पोषित हो जाता है- और बदले में वह कुछ दे नहीं सकता। ऐसा कुछ है ही नहीं जो वह दे सके। एक क्षण आता है जब वह गुरु के प्रति इतना अनुग्रहित होता है कि वह अपना सिर गुरु के चरणों में झुका देता है। स्वयं को देने के अतिरिक्त उसके पास कुछ भी नहीं होता। उसी समय से वह गुरु का ही अंग बन जाता है। गुरु के हृदय के साथ उसका हृदय धड़कने लगता है। वह गुरु के साथ एकलय हो जाता है। यही है गुरु के प्रति एकमात्र अनुग्रह, कृतज्ञता, कृतार्थता।

                                           ~ परमगुरु ओशो

    ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन की प्रमुख मां साधना जी से किसी पत्रकार ने पूंछा :-  क्या आपको नहीं लगता कि ओशो के बाद एक प्रभावी चेहरे के अभाव की वजह से ओशो के विचार उतनी तेजी से नहीं फैल सके हैं, क्योंकि कहीं ना कहीं वक्त आज 'टच एंड फील' का है, लोग व्यक्ति से पहले प्रभावित होते हैं, विचार उसे बाद में आकर्षित करते हैं।

    वे बोलीं ओशो ने कहा था, मेरे बाद कोई गुरु नहीं, कोई चेला नहीं, कोई उत्तराधिकारी नहीं। आप चेहरे की बात करते हैं, तो भविष्य में यह सब चेहरे विदा हो जाएंगे। चेहरे के साथ कल्ट आता है और कल्ट के साथ वही सबकुछ आता है, जो अन्य कल्टों के साथ आया और फिर उसमें फॉल आता है।
    तो, ओशो के बाद अब कोई नहीं। ओशो ने कहा कि मैं यहां उपलब्ध हूं, इसकी सूचना भर दे दो, लोगों को प्यास होगी तो आएंगे। हमें किसी भी प्रकार का विज्ञापन या लोगों को बुलाने का कार्य नहीं करना है।
    ' गुरुडम' ज्यादा चलने वाला नहीं है। आज की युवा पीढ़ी समझदार हो गई है। वह किसी के पैर नहीं छूती। आप बच्चे से घर में किसी के पैर छूने का कहते हैं तो वह मन मारकर ऐसा करता है, दिल से नहीं, क्योंकि इससे उसमें गिल्ट फील होती है। आप किसी को झुकाना क्यों चाहते हैं?

    आश्चर्य! क्या परमगुरु ने इन नासमझों को ही कहा था, कि मेरे लोग संसार के सबसे प्रतिभाशाली लोग हैं!
    जिन्हें अध्यात्म का abcd भी नही मालूम। परमगुरु ओशो के पास रहकर भी ये सिर्फ खोपड़ी में ही जीते रहे हैं।

    गुरु -शिष्य परंपरा अध्यात्म का आधार है, गुरु शिष्य के बिना अध्यात्म की यात्रा हो ही नही सकती।
    सारा अध्यात्म गुरु-शिष्य पर ही आधारित है।
    जो भी सुमिरन की गहराई में उतरें हैं उन सभी का अनुभव है, कि "गुरु और गोविंद एक ही हैं।'

    कह रही हैं, हम किसी के चरणों में क्यों झुकें! इन अहंकारियो, महाज्ञानियों! को झुकने का रहस्य ही नही मालूम है।
    कि यह एक अहोभाव है, उस परम के प्रति, क्योंकि गुरु एक तरफ तो हमारे जैसा है, और दूसरी तरफ परमात्मा है। गोविंद सीधे हमारी कोई मदद नही कर सकता, गुरु के रूप में आकर ही वह हमें उस परमजीवन की यात्रा पर ले जाता है।
    और गुरु के श्री-चरण-कमलों में झुकने से बड़ा इस जगत में कोई दूसरा आंनद नही है।
    एक सदशिष्य ही इसका अनुभव कर सकता हैं!!
    अहंकारी इस परम सौभाग्य से चूक ही जाते हैं।
    इन्हें ये राज ही नहीं मालूम अध्यात्म की यात्रा
    "गुरु से शुरू होती है, और सतत गुरु पर ही चलती रहती है...।"

    इन इंटेलिजेंट सन्यासियों में इतनी भी समझ नही है, कि यदि जीवित गुरु की जरूरत नही है तो ओशो की क्या जरूरत थी! राम काफी थे, कृष्ण काफी थे, फिर बुद्ध, महावीर, आदि सन्तों, की क्या जरूरत थी, फिर से आने की...
    इन्हें इतनी भी प्रज्ञा नही है, कि अस्तित्व निरन्तर जीवित गुरु को भेज रहा है, क्यों???
    ये नासमझ! गुरु-सत्ता को इनकार कर, वास्तव में परमात्मा को ही इंकार कर रहे हैं!!

    चलो इनको तो क्षमा भी किया जा सकता है। पर उनका क्या!!
    जिन्हें गुरुदेव (सद्गुरु ओशो सिद्धार्थ औलिया जी) ने अध्यात्म के जगत में चलना सिखाया, अध्यात्म के रहस्यों से परिचय कराया।
    वे भी ऐसी नादानी कर रहे हैं, स्वतन्त्रता के नाम पर गुरु-सत्ता को इनकार कर, गुरू का विरोध कर, और उनके महायोगदान को विनष्ट करने का षड्यंत्र कर, अध्यात्म जगत का सबसे बड़ा अपराध, गुरुद्रोह कर रहे हैं। खुद तो भ्रमित हैं हीं, और मित्रों को भी भ्रमित करने में लगे हुए हैं...।

    गुरुदेव (सद्गुरु ओशो सिद्धार्थ औलिया जी) की एक खास विशेषता है, कि जो भी नया रहस्य उन पर उतरता है, वे कुछ छिपाते नहीं , शिष्यों को सब बता देते हैं।

    एक बार समाधि कार्यक्रम के दौरान गुरुदेव ने बताया हमने पिछले जन्म को जानने की तरह ही, भविष्य को जानने की विधि भी खोज ली है। पर 'मां' ने इसका प्रयोग कराने से मना करा दिया है।
    ऐसे ही एक बार उन्होंने बताया, हमने आज्ञाचक्र के माध्यम से देवताओं से संपर्क स्थापित करने की टैलीपैथी की विधि खोज ली है, पर 'मां' ने उस ज्ञान को सबको देने से मना करा दिया है।
    गुरुदेव मां का बहुत सम्मान करते रहे हैं, और उनकी बातें काटते नही थे।
    पर हम सभी आश्चर्य में पड़ जाते थे! कि आखिर 'मां'  क्यों मना करती हैं!!
     अगर गुरुदेव नहीं देंगे तो वह ज्ञान एक दिन खो जाएगा!! जैसे अतीत में बहुत से रहस्य खो गए।

    स्वामी जी और उनकी पूरी टीम कभी नही चाहती थी, कि गुरुदेव (सद्गुरु ओशो सिद्धार्थ औलिया जी) परमगुरु ओशो के बाद दूसरे सद्गुरु के रूप में प्रतिष्ठित हों। बस ओशो ही प्रथम और अंतिम सद्गुरु के रूप में रहें। उनके बाद कोई गुरु नहीं। (स्वामी जी, मां और उनकी पूरी टीम के भीतर भी वही रोग रहा है, जो सारे तथाकथित ओशो सन्यासियों में है।)
    उन सभी को एक अज्ञात भय रहा है, कि भारतीय जनमानस में कहीं धीरे-धीरे गुरुदेव अलग से प्रतिष्ठित न हों जाएं।

    इसीलिए गुरुदेव के द्वारा सांसारिक जीवन को सुंदर बनाने के लिए निर्मित कार्यक्रम; धूनी चिकित्सा, सूफी दरबार, शिव दरबार, विष्णु दरबार का इन सबके भीतर  सदा विरोध रहा।

    मैं बार बार कहता हूँ ऐसे सद्गुरु अतीत में हुए नही और इस समय वर्तमान में भी नही है, गुरुदेव जैसी विराट चेतना इस समय पृथ्वी पर दूसरी कोई नही है। गोविंद के इतने खजाने और संसार को सुंदर बनाने के इतने राज, इतने प्रज्ञा सूत्र किसी के पास आज तक नही रहे हैं।
    परमगुरु ओशो के पास सारे खजाने तो थे, पर उन्होंने  दिए किसी को नही!!

    ओशो का जीवन्त सन्देश, तथा पूरी पृथ्वी पर अध्यात्म का खजाना, अगर कहीं पर है, तो वह ओशोधारा में ही है। और गुरुदेव ने इसे देने के लिए कोई शर्त भी नहीं रखी हैं, बेशर्त दोनों हाथों से लुटा रहे हैं..
    यही उनकी परमकरुणा है।

    गुरुदेव ने ओशोधारा में अध्यात्म के सर्वश्रेष्ठ मार्ग 'सहज-योग' को प्रतिपादित किया है, जिसके 3 आयाम हैं - ज्ञान योग, भक्ति योग और कर्म योग। ज्ञान योग का अर्थ है स्वयं को आत्मा जानना और आनंद में जीना। भक्ति योग का अर्थ है परमात्मा को जानना और उसके प्रेम में जीना। कर्म योग का अर्थ है आत्मा और परमात्मा से जुड़कर संसार का नित्य मंगल करना।

    ओशोधारा में उन्होंने हमारे लिए परमजीवन की यात्रा का, हम सभी को अपने साथ, बैकुंठ ले जाने का सारा आयोजन रच दिया है।
    हमें सिर्फ इतना करना है, बस हृदय में गुरुदेव के श्री-चरण-कमल, गोविंद का सुमिरन, और देवताओं से सहयोग लेकर कर्म...
    और कर्म क्या!
    गुरुसेवा ; गुरुदेव के विराट स्वप्न को पूरा करना.. जो वस्तुतः परमगुरु ओशो का ही स्वप्न है, गोविंद का ही स्वप्न है।

    यह तो आने वाली पीढियां ही गुरुदेव का सही मूल्यांकन करेंगी।
    और अगर हम अब भी गुरुदेव के संग-साथ होने का लाभ नहीं उठा पाए, तो हमसे ज्यादा अभागा शायद ही कोई होगा!!!

    गुरूदेव ने एक रहस्य की बात बताई है :- बैकुंठ में आत्मानन्द है पर ब्रह्मानन्द नहीं है, क्योंकि वहां भक्ति नहीं है।
    भक्ति सिर्फ मनुष्य शरीर से ही सम्भव है।
    सुमिरन सिर्फ सांसों के साथ ही किया जा सकता है।
    सन्त सुमिरन का आनन्द लेने के लिए, सांस-सांस आत्मानन्द + ब्रह्मानन्द  (सदानन्द) का आनन्द लेने के लिए ही पृथ्वी पर बार-बार आते हैं।

    हृदय में गुरूदेव और हनुमत स्वरूप सिद्धि के साथ गोविंद का सुमिरन!
    गुरूदेव ने आध्यात्मिक जगत में महाक्रान्ति ला दी है; ओशोधारा के साधकों के जीवन के केंद्र में गुरु हैं, सत-चित-आनन्द के आकाश में उड़ान है और सत्यम-शिवम-सुंदरम से सुशोभित महिमापूर्ण जीवन है!!

    गुरुदेव द्वारा प्रदत्त सुमिरन+हनुमत स्वरूप सिद्धि अति उच्चकोटि की साधना है।
    हनुमान स्वयं इसी साधना में रहते हैं, वे सदैव भगवान श्रीराम के स्वरूप के साथ कण-कण में व्याप्त निराकार राम का सुमिरन करते हैं।

    गुरुदेव ने अब सभी निष्ठावान साधकों को यह दुर्लभ साधना प्रदान कर आध्यात्मिक जगत में स्वर्णिम युग की शुरूआत कर दी है।

    सदा स्मरण रखें:-
    गुरु को अंग-षंग जानते हुए सुमिरन में जीना और गुरु के स्वप्न को विस्तार देना यही शिष्यत्व है।
    गुरु+गोविंद+शिष्य यह सिनर्जी ही सारे अध्यात्म का सार है!!
    और यह सतत चलता रहेगा, चरैवेति.. चरैवेति...।

       ।। गुरु बिनु भवनिधि तरै न कोई!
           जो बिरंचि शंकर सम होई ।।


    पापांधकारार्क परंपराभ्यां तापत्रयाहींद्र खगेश्र्वराभ्यां।
    जाड्याब्धि संशोषण वाडवाभ्यां, नमो नमः    श्रीगुरुपादुकाभ्याम्।।

       
                 
          💐 नमो नमः श्री गुरूपदुकाभ्यां
                नमो नमः श्री गुरूपदुकाभ्यां 💐

                                               ~ ओशो जागरण

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    14 comments:

    1. Sadguru Dev ke Shree Charno mein Naman

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    2. स्वामी जी,
      प्रणाम ।
      परन्तु सद्गुरु जी तो इतना कुछ होने के बाद भी गुरुद्रोही द्वारा गाए हुए शबद ट्विटर पर हमें परोस रहे हैं, कृपया शंका का निवारण कीजिए ।

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    3. Pyare bhagwan bade babaji aur parmatma ko Anant koti koti pranam aur Anant ahobhav.
      Jai bade babaji aur Jai oshodhara.

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    4. प्रिय गुरुभाई ओशो अभय जी,

      मां ओशोधारा में जो भी गीत गाती थी, उसकी उन्हें payment दी जाती थी।
      इसलिए उनके द्वारा गाये सारे गीत, भजन, शबद
      ओशोधारा ट्रस्ट की संपत्ति है।
      मैं आशा करता हूँ,कि शायद आपकी शंका का निवारण हो गया होगा।

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    5. Oshodhara jaisa koi nhi.
      Sadguru osho Siddharth aulia ji,ka shisya hona prm saubhagya hai.
      Guru Dev ke chrnon men prnaam

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    6. सद्गुरु जैसा नहि कोई देव, जिस मस्तक भाग सो पाता है सेव । गुरू चरणों में शत शत नमन । 🙇‍♂️❣🙇‍♂️❣🙇‍♂️❣🙇‍♂️❣🙇‍♂️❣

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    7. गुरू मेरी पूजा, गुरू गोविन्द ।
      गुरू मेरा पारब्रम,गुरू भगवंत ।
      गुरुदेव के श्रीचरणो में श्रद्धा पूर्वक प्रणाम, नमन, अहोभाव ।

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    8. अपने सौभाग्य पर विश्वास नहीं होता कि इतने उच्च कोटि के सतगुरु के पावन चरणों में स्थान मिला। हृदय की गहराई से अहोभाव 🙏🙏🙏

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    9. Mangalmurti sadguru ke charno me koti koti naman...vari jau mhare sadguru

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    10. अहोभाव । अहोभाव । अहोभाव प्रभु ।
      ऐसा सतगुरु जे मिले उसनु सिर सौंपिए ।
      मेरे सद्गुरु देव जी के श्रीचरणो में श्रद्धा पूर्वक प्रणाम नमन ।

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    11. Tajinder Singh DasuyaApril 7, 2020 at 11:46 PM

      ❤❤❤JAI SADGURU,JAI OSHO DHARA,PYARA PYARA SATH TUMHARA..❤❤.. AAPKO PA KR YUN LAGTA HAI,LEHRON KO MIL GAYA KINARA....❤❤❤

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    12. प्रणाम प्रभु जी परम गुरु ओशो जी सदगुरुदेव ओशो सिद्धार्थ औलिया बाबा जी नमन आपको बाबाजी आपने पिछले 99 जन्मों में मनुष्य रूप मैं प्रकट होकर मानव जीवन का कल्याणनर्थ मार्गदर्शन किया है प्रभु जी आपका प्रेम करुणा कृपा आशीर्वाद हम भक्तों पर सदैव बरसता रहे आपकी कृपा का पात्र स्वामीनाथ (महेंद्र अमरनाथ)

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    13. सद्गुरु शरणं गच्छामि

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