आदरणीय स्वामी शैलेन्द्र सरस्वती जी,
एक साधक होने के नाते गुरु सत्ता पर उठे प्रश्न और शिष्यों की निर्दोषता को नष्ट होते न देख सका तो इन प्रश्नो को पूछने के लिए विवश हो गया। इसमें मेरी कोई व्यक्तिगत मंशा नहीं है। आशा है आप और सभी मित्र मेरी और मेरे जैसे कई ओशोधारा साधकों की स्थिति को समझेंगे।
आप एवं आपके लोगों द्वारा ओशोधारा और सद्गुरु ओशो सिद्धार्थ औलियाजी के बारे में फैलाया जा रहा दुष्प्रचार दुर्भाग्यपूर्ण और निंदनीय है। जिनकी करुणा व कृपा से आपने ओमकार का ज्ञान पाया, समाधि में डूबे और आध्यात्मिक ऊँचाइयाँ छुई उनके बारे में इतने निचले स्तर का दुष्प्रचार अवांछनीय है। हम साधक हैं, श्रद्धा भी करते हैं, पर भ्रम फैलाने वालों को पहचानते भी हैं। आपने हम पुराने साधको के बीच एक समाधि सत्र के दौरान सन् २००२ में हमें यह बात बताई थी कि
नेपाल आश्रम में जब बड़े बाबा आपको साधना करवा रहे थे तो आप इतने हताश हो गए थे कि आपने छुरा तक उठा लिया था स्वयं को समाप्त करने के लिए कि बड़े बाबा के इतने प्रयासों के बावजूद आपको आत्मज्ञान घटित नहीं हो रहा । और इस घटना के कुछ ही दिनों बाद आप समाधी को, आत्मज्ञान को उपलब्ध हुए बड़े बाबा के मार्गदर्शन में । Your Omkar shravan and samadhi video link
:https://www.facebook.com/erdhirendra.singh/videos/2493590137545398/?t=163
आपके और माँ प्रिया के आत्मज्ञान के पश्चात् बड़े बाबा तो अपनी दुनिया में लौट जाना चाहते थे और अपने तरीके से ज्ञान बांटना चाह्ते थे। पर आपने ही उनसे अनुरोध किया था और ओशोधारा का जन्म हुआ। जिसके कारण वे सीनियर सद्गुरु त्रिविर की जिम्मेदारियों का वहन करने के लिए प्रतिबद्ध हुए। यह बात कई नए साधक नहीं जानते है इसीलिए इस बात का ज़िक्र आपकी ही कही हुई बात के आधार पर कर रहा हूँ। हैरानी है कि ओशोधारा की नई पीढ़ी को अब यह सच्चाई बताई ही नहीं जा रही है। बड़े बाबा तो सारे उत्सवों में आपकी और माँ की खूब तारीफ करते रहे लेकिन मुझे आपकी तरफ से बड़े बाबा की ओर प्रवाहित होता अहोभाव, धन्यता का भाव कभी नज़र नहीं आया। कम से कम पिछले ५ वर्षो में तो मुझे याद नहीं।.उनके बारे में दुष्प्रचार अत्यंत अशोभनीय और अवांछनीय है । और मै एक शिष्य होने के नाते इसकी निंदा करता हूँ।
हाल फ़िलहाल में आपने जो सम्बोधन दिए, पत्र लिखे, लोगों के बीच जो कहा और ओशोधारा एवं सद्गुरु बड़े बाबा के बारे में भद्दे दुष्प्रचार करने वालों का जो समर्थन किया वह आप पर कई प्रश्न खड़े कर देता है। मौजूदा हालात को देखे तो एक स्वाभाविक प्रश्न उठ जाता है की क्या इतने वर्षों से आपने एक मुखौटा ओढ़ रखा था सरलता, भोलापन, परम स्वीकार, शीलवान, प्रामाणिक, करूणावान , क्रांतिकारी संत, प्रेम और परम शिष्यत्व की मूरत का? जो कि समय की कसौटी पर कुछ और ही सिद्ध हुआ। जैसे:
१. मुरथल आश्रम में इस्तीफे की घोषणा करने के बाद लोगो को सम्बोधित करते हुए आपने कहा कि ऐसा लग रहा है जैसे पिंजरे से पंक्षी को छोड़ा गया, जैसे सर के ऊपर से बड़ा सा पहाड़ हट गया। तो क्या आप २० वर्षों से बंधन और परतंत्रता में थे ? ऐसा कौन सा पहाड़ था आपके सिर पर ? एक तथाता में जीने वाले सम्बुद्ध संत किस तरह विवश हो सकते थे? तो फिर संतोष, स्वीकारभाव और तथाता क्या बस मुखौटे भर थे ? यह किस तरह की अनुभव पर आधारित प्रामाणिक शिक्षा थी? क्यों २० वर्ष लग गए?
२. ओशोधारा सन्यासियों की आध्यात्मिक यात्रा की जिम्मेदारी आपने उसी दिन ले ली थी जब आपने हम सबको शिष्य के रूप में अपनाया। हम सबकी डायरी पर निरंतर आपके हस्ताक्षर होते रहे। फिर भी आप यह कह सके कि हमने ठेका लिया है क्या सबका? क्या यह गुरु के रूप में शिष्यों को बीच मझदार में छोड़ना नहीं है? क्या यह गुरु की करुणा पर प्रश्नचिन्ह नहीं है? यदि सच में कोई बड़ा मसला था तो गुरु होने के नाते योग्य पटल पर मुद्दे को रखते व पूरे संघ को सत्य से अवगत कराते, बजाय इसके कि शिष्यों से मुँह फेर चले गए। और यदि कोई मसला नहीं है तो दुष्प्रचार का साथ देकर ओशोधारा संघ के साथ, शिष्यों के साथ, सद्गुरु बड़े बाबा के साथ अन्याय क्यों कर रहे हैं? और ऊपर से आपके लोग आपको पीड़ित क्यों बता रहे हैं? (they are playing victim card for you)
३. आपने और माँ ने अपने सन्देश में यह स्पष्ट कहा कि सद्गुरु त्रिविर के बीच मतभेद का कारण कार्यशैली है। यदि आपलोगों का बड़े बाबा से मतभेद एवं असंतोष था तो यह अस्वीकृति तो आपकी ओर से थी बड़े बाबा के प्रति जो कि सद्गुरु त्रिविर की अद्वितीय परंपरा के टूटने का कारण बनी। हम सभी जानते है कि ओशोधारा के भगीरथ और ध्यान, समाधी, सुमिरन एवं प्रज्ञा कार्यक्रम के मुख्य सूत्रधार ओशो सिद्धार्थजी ही हैं। और त्रिविर सद्गुरु की संरचना एक अद्वितीय प्रयोग थी अध्यात्म के इतिहास में जो कि कालांतर में असहमति के चलते खंडित हुई। यदि त्रिविर की संस्था टूटने का वास्तविक कारण आपका असंतोष था तो बड़े बाबा को तानाशाह की तरह क्यों पेश कर रहे है ?क्या आपके भीतर पनपता असंतोष कारण नहीं था?
४. यदि भीतर पनपता असंतोष, अस्वीकृती और असहमति कारण था विभाजन का और फिर आपने इस्तीफा देकर ओशोधारा संघ से अलग होने का निर्णय लिया तो यह पूरी तरह आपका निर्णय था। फिर बड़े बाबा पर यह इल्ज़ाम क्यों बार बार लगाया गया कि उन्होंने आपको एवं माँ को बेघर कर दिया? आश्रम में कोई कुछ लेकर तो नहीं आया था। सब कुछ तो संघ का था जिसके बारे में शायद ओशोधारा संसद में निर्णय लिया जा सकता था। आज कुछ मित्र आपके बेघर होने का रोना रो रहे हैं, अगर वह जो कह रहे है वही सत्य है तो क्या आप किसी फायदे के लिए आये थे जो नुकसान को आज गिनाया जा रहा है? मैं मानता हूँ कि फायदा नुकसान एक संत के लिए असंगत है। क्योंकि संत वस्तुओं का उपयोग करता है उनका गुलाम नहीं होता। और आश्रम बनवाना क्या बड़ी बात है भारत जैसे देश में जहा लोग भूखे भी रहकर आश्रम बनवा देते है। 6 महीने के भीतर एक नया आश्रम बन कर खड़ा हो जायेगा। आप कोई मिडिल क्लास बिजनेसमैन तो थे नहीं कि सब बर्बाद हो गया। आश्रम से आपकी विदाई के समय के वीडियो में तो आपने ही कहा था कि रीयूनियन हो गया और आप नेपाल, माधोपुर आश्रम में रहकर तथा भ्रमण कर ओशो के कार्य को फैलाएंगे। फिर मुरथल आश्रम के गेट से बाहर निकलते ही आपके लोगों द्वारा दुष्प्रचार क्यों शुरू कर दिया गया ? यदि प्रमाणिकता थी तो वहीं मुरथल आश्रम से विदाई के समय सबकी उपस्थिति में रीयूनियन का खंडन क्यों नहीं कर दिया? ओशोधारा के साधको के बार बार विनंती करने के बाद भी आप दुष्प्रचार को मौन समर्थन देते रहे जो आज बड़ी आग का रूप धारण कर चुकी है और सभी झुलस रहे हैं। क्या यही प्रमाणिकता और करुणा का वास्तविक रूप है ?
५. आपलोगों के भीतर पनपते असंतोष के कारण त्रिविर की सत्ता को भंग करना अनिवार्य हो गया था। भविष्य में ओशोधारा में बस एक सद्गुरु की सत्ता स्थापित होने जा रही थी। ऐसे में आप एवं माँ एक आचार्य की तरह कार्यकर्म का संचालन नहीं करना चाहते थे इसीलिए इस्तीफा देना आपने बेहतर समझा। यदि यह सत्य है तो आपने ही तो सार्वजानिक रूप से कहा कि " हमे सद्गुरु, बाबा , ओशो जैसे संबोधनों से न बुलाया जाय , हम आपके गुरु नहीं हम तो बस आपके मित्र हैं। " प्रश्न यह उठ ही जाता है कि सद्गुरु बने रहने की सत्ता का मोह यदि कारण था तो आप ऐसी घोषणाएं एवं दिखावा क्यों करते हैं कि हमें सद्गुरु, बाबा एवं ओशो जैसे सम्बोधन से न पुकारा जाए ? और यदि इतने सरल और निरहंकारी हैं तो इतनी छोटी सी बात के लिए संघ एवं शिष्यों को छोड़ के क्यों गए? और यदि चले ही गए अपने स्वयं के असंतोष के कारण तो आपके लोग आपको विक्टिम की तरह और बड़े बाबा को खलनायक की तरह क्यों प्रस्तुत कर रहे हैं ? आपने ही तो यह कहा था कि जहाँ रहेंगे बड़े बाबा मैं नहीं रहूँगा वहां। क्या यह परिदृश्य आपकी सरलता और निरहंकारिता पर प्रश्न नहीं खड़े करता?
६. आप सार्वजानिक रूप से मस्तो बाबा के बचाव में तमाम शिकायतों के बावजूद, उनके पक्ष में आगे आये तो फिर जब ओशोधारा के बारे में, सद्गुरु ओशो सिद्धार्थ औलियाजी के बारे में जिनके माध्यम से आप स्वयं ज्ञान को उपलब्ध हुए, जब उनकी पगड़ी आपके फेसबुक पोस्ट पर उछाली जा रही थी तो उसको मौन समर्थन कैसे दे पाए?आपने उसका खंडन क्यों नहीं किया ? ऐसी घटनाएं, और भद्दा प्रचार बार बार आपके लोगों द्वारा किया गया जो सभी ओशोधारा साधकों को व्यथित कर दे। आज भी आपके साथ उठने बैठने वाले लोग लगातार पिछले एक महीने से ओशोधारा की जड़ें खोदने में लगे हुए हैं। यदि मस्तो बाबा के पक्ष में खड़े होना न्याय के पक्ष में खड़े होना था, आपका प्रेम था, तो क्या जिनसे आपने ऊंकार का ज्ञान पाया और आत्मज्ञान को उपलब्ध हुए क्या वह आपके गुरु नहीं थे? क्या उनके प्रति प्रेम एवं सम्मान समाप्त हो गया? क्या ओशोधारा संघ के प्रति आपका कोई प्रेम नहीं रहा?
७. ओशो के शिष्य होने के नाते आपका अहोभाव प्यारे परमगुरु ओशो के प्रति देखते ही बनता था और प्रेरणादायक था। पर आश्चर्य ! यह अहोभाव कभी सद्गुरु बड़े बाबा के सन्दर्भ में नजर नहीं आया। क्या बड़े बाबा का कोई आध्यात्मिक योगदान आपके जीवन में नहीं है? क्या अहोभाव और शिष्यत्व में भी पक्षपात है? क्या यह गुरुद्रोह नहीं हैं?
८. कई मित्रों द्वारा आपकी क्रन्तिकारी छवि पेश की जा रही है। पर सत्य तो यह है कि आप संगठित मतवादियों के साथ ही खड़े हैं जिनकी सोच का एक दायरा है, जो उस दायरे से आगे कुछ देखना ही नहीं चाहते और मान लिया है कि बस यही परमसत्य है। और सद्गुरु बड़े बाबा अपनी मौलिकता के साथ ओशोधारा संघ का मार्गदर्शन कर रहे हैं। उनका योगदान मौलिक है। उनका ज्ञान, प्रेम और अहोभाव बस ओशो तक सीमित नहीं है। वे उस सनातन धर्म का प्रतिपादन करते हैं जो निराकार शाश्वत है, नित् नूतन है, जीवंत है, आनंद से निनादित है और सदा उत्सवमय है । वे देवताओं की सत्ता का भी सम्मान करते हैं क्योंकि वे सदा कहते है की निराकार ब्रम्ह की सत्ता जो देवताओं में प्रकट हुई हुकुम के रूप में उसका सन्मान करो। वे हमें हुकुमी और हुकुम दोनों का सन्मान करना सिखाते हैं। और वे अकेले संत नहीं जो देवताओं का सन्मान करते हैं। स्वयं संत कबीर के गुरु संत रामानंदजी निराकार ब्रम्ह और मूर्तिपूजा दोनों किया करते थे। तो क्या उन्होंने अपने गुरु के लिए पाखंडी जैसे शब्दों का प्रयोग किया? जो आप अपने गुरु ओशो सिद्धार्थजी के बारे में अपने फेसबुक पेज पर कर रहे हैं? जाने अन्जाने में आप बार-बार विष्णुजी का मजाक उड़ा कर संत परम्परा एवं हिंदू पूजा पद्धति पर आक्षेप कर रहे हैं। स्वयं ओशो ने स्वामी रामकृष्ण परमहंस का जिक्र कई बार किया है कि वे काली की पूजा किया करते थे और निराकार ब्रम्ह की सत्ता को भी जानते थे। सूफी परंपरा, वेदांत एवं सखी संप्रदाय की साधना के द्वारा भी उन्होंने सत्य को जाना। तो क्या आप उनका भी यूं ही मज़ाक उड़ाएंगे? क्या आप प्यारे परमगुरु ओशो पर भी आक्षेप करेंगे और उनका मजाक उड़ायेंगे ?क्या दुनियाँ हमारी नाक के आगे ही समाप्त हो जाती है? क्या यह दुर्भाग्यपूर्ण नहीं है? आश्चर्य होता है जब वह लोग भी उँगलियाँ उठाते हैं जो कभी ओशोधारा में थे और जो प्रेम और भक्ति को प्रकट करते नहीं थकते थे।
९. जीवन को पूर्णता से स्वस्थ रहकर सार्थकता से जीने के लिए सद्गुरु बड़े बाबा १०० वर्ष जीने की बात करते हैं। यह सकारात्मकता से भरे बड़े बाबा के कहने का अंदाज़ है जो ज़िन्दगी की हमेशा बेहतर तस्वीर पेश करते हैं क्योंकि वे सत्यम शिवम् सुंदरम को जीते हैं। जीवन की लम्बाई कितनी होनी चाहिए यह कहना तो अच्छी बात है ताकि हम हमारे स्वास्थ्य का ख्याल रखें और अपने जीवन के उद्देश्य को पूरा करें। बड़े बाबा बार बार कहते है कर्म करते हुए साक्षी रहो और जो फल मिले उसमे तथाता को साधो। यही बात स्वास्थ्य में, जीवन में , बीमारी में और मृत्यु में लागु है। नकारात्मकता से भरे लोग तो स्वयं ओशो के आस-पास भी रहे और रजनीशपुरम में आप स्वयं इसके गवाह रहे। ओशो कम्यून में स्वयं ओशो के रहते आत्महत्या जैसी दुर्घटना हुई है। ऐसे कई लोग हैं जो अपने जीवन को गंगा में , तीर्थस्थानों पर आत्मघात कर समाप्त कर देते हैं। ऐसी बेवकूफी जो एक व्यक्ति स्वयं अपने साथ करता है उसमे वह स्वयं ही ज़िम्मेदार होता है।
आशा है आप मेरी बातों का मर्म, जो कि मेरे जैसे अनेक साधकों की पीड़ा से उठे प्रश्न हैं उन्हें समझेंगे।
Note: उपरोक्त सभी बातों में मैंने कहानी, चुटकुलों , कविताओं और दोहों में कही गयी बहुअर्थीय बातों को आधार नहीं बनाया है क्योंकि इसकी निष्पत्ति हर कोई अपने अपने ढंग से करेगा।
आपके श्री चरणों में नमन।
ओशो निष्काम
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