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    मौलिकता बनाम नक़ल - और कुछ सवालों के जवाब

    मौलिकता बनाम नक़ल - और कुछ सवालों के जवाब

    प्रिय मित्रों ,
    Bombay के एक मित्र से ओशोधारा और फ्रेग्रेन्स के सम्बन्ध में मेरी बात हो रही थी। वे कह रहे थे कि उनके लिए दोनों ही परम्पराओं में कोई भेद नहीं है। उन्होंने कहा "ओशोधारा और फ्रेग्रेन्स में कई बातें हैं जो एक जैसी हैं। दोनों ही जगह साधक हैं , साधना के कार्यक्रम हैं और उन कार्यक्रमों का संचालन करवाने वाले पथप्रदर्शक गुरु हैं। जब दोनों जगह साधनायें हो रही हैं तो मै दोनों जगह क्यों न जाऊं ?" लेकिन मौजूदा परिस्थिति में जब दोनों जगह एक साथ जाना संभव नहीं था तो ओशोधारा के कई ऐसे मित्र जिनके मन का लगाव और हृदय के भाव स्वामीजी और माँ से जुड़े थे और उन्हें उनमें सरलता, भोलापन तथा प्रेम नजर आया वे साधक फ्रेग्रेन्स में चले गए। थोड़ा सा ठहर के मनन करें तो जब साधना के चुनाव का प्रश्न हो तो एक साधक की प्राथमिकता व्यक्तिगत मोह और संबंध के धुप छांव की होनी चाहिए या आत्म बोध के शाश्वत सुख की। क्योंकि मन की पसंद और सम्बन्धो का मोह तो अँधा होता है और बहुत सम्भावना होती है कि यह खाई में गिरा दे। मोह तो शीला ने भी किया था ओशो से और अंततः एक अपराधी बन बैठी। मोह तो लंकेश ने भी किया था भगवान शिव से पर रावण बन बैठा। साधना में प्रतिष्ठित होने के लिए आवश्यक कसौटी है जिवंत गुरु की उपस्थिति में मौलिक साधना और साधक के अनुभव की कसौटी, न की मन का मनोरंजन। मेरी समझ से मन की हर पसंद का आधार बाहरी सुख और मनोरंजन ही है। मन और भावनाओं की पसंद नापसंद से प्रेम और संबंधों की स्थापना तो हो सकती है पर मन के पार जाना नहीं हो सकता। शाश्वत चैतन्य से तो जोड़ तभी बैठ सकता है जब जिवंत सद्गुरु की उपस्थिति में अनुभवगत साधना की कसौटी हो।
    • साधना का उद्देश्य क्या है?
    जब साधनाएं और पथप्रदर्शक गुरु, साधक को दोनों जगह नजर आ रहे हो तो स्वाभाविक है कि साधक जिस गुरु के साथ भी अपना जुड़ाव महसूस करेगा वहीं जाना चाहेगा। यहां एक प्रश्न उठता है कि क्या साधना का उद्देश्य मात्र अशांत मन को थोड़ी देर ध्यान/समाधि के द्वारा शांत करना और नृत्य - गीत गाकर उत्सव मना लेना है ? यदि यही साधना का उद्देश्य है तो थोड़ी देर मन का शांत होना और उत्सव मना लेना तो ओशोधारा या फ्रेग्रेन्स कही भी चले जाओ क्या फर्क पड़ता है? और ओशोधारा या फ्रेग्रेन्स ही क्यों यूट्यूब पर उपलब्ध किसी भी वीडियो ध्यान प्रयोग से भी हो सकता है। फिर उसके लिए किसी गुरु के पास भी जाने की क्या आवश्यक्ता?
    आज अधिकतर साधक साधना के नाम पर बस थोड़ी देर की शांति और नृत्य - गीत मनोरंजन ही कर रहे हैं। और इसी समझ के कारण आज ओशो जगत में अधिकांश साधक ऐसे हैं जो यह मानते हैं कि साधना के लिए ओशो के साहित्य , ऑडियो -वीडियो काफी हैं, उन्हें और किसी गुरु की आवश्यकता नहीं। यदि थोड़ी देर मन का शांत होना और उत्सव मना लेना ही साधना है तब तो सब ठीक है, पर ओशो कहते हैं कि यदि तुम्हारी साधना तुम्हे बुद्धत्व की मंज़िल तक नहीं ले जाती, तो तुमने अपना समय और जीवन व्यर्थ ही गँवाया। ओशो बार-बार यह भी कहते हैं कि किसी जीवंत सदगुरु से जुड़ो ।
    • जीवंत सद्गुरु अर्थात क्या ?
    मेरी दृष्टि में, जीवंत सद्गुरु वह हैं जिन्होंने न सिर्फ नाम के रहस्य को स्वयं जाना है बल्कि दूसरों को भी जनाने में सक्षम है। जो सदा साक्षी है, जो अपनी चिन्मय आत्मा में स्थित और निराकार ब्रम्ह के शाश्वत मूल से जुड़े है। क्योंकि जीवंत सद्गुरु अपने मूल से जुड़े हैं इसलिए वे सदा मौलिक(Original) हैं। मौलिकता ही तय करती है साधना और साधना में भेद। अपने मूल से जुड़कर ही ओशो ने मौलिक ध्यान विधियाों की रचना की और उनके रहते वह विधियां काम भी करती रही। सद्गुरु बड़े बाबा की मौलिकता का प्रमाण है ट्वीटर पर उपलब्ध उनके निरंतर ज्ञान का प्रवाह कि साक्षी क्या है? चैतन्य क्या है? आत्मा क्या है , आत्मस्मरण क्या है? परमात्मा क्या है? परमात्मा के प्रेम में कैसे पड़े? सद्गुरु के एक एक शब्द में जीवंतता की छाप है, वे उधार और बासे नहीं , सदा ताजगी से भरे हैं। सद्गुरु किसीकी नक़ल(copy) नहीं मौलिकता उनकी पूँजी है। मौलिकता(Originality)कसौटी है सच्चे सद्गुरु कीयदि मौलिकता की कसौटी पर देखें तो जहां फ्रेग्रेन्स के कार्यक्रम ओशो और ओशोधारा की नक़ल हैं तो वहीं बड़े बाबा के द्वारा रचित ओशोधारा के समाधि-सुमिरण कार्यक्रम सदा मौलिक हैं। सद्गुरु द्वारा रचित कार्यक्रमों में गंगा की तरह एक सतत प्रवाह है, नित नूतनम पदे पदे की झलक है। उनके पास अनंत ज्ञान का ऐसा खज़ाना है जिसका कभी क्षय होता नहीं जान पड़ता और इसका जीवंत प्रमाण है सद्गुरु द्वारा रचित समाधि सुमिरन के अद्वितीय श्रृंखलाबद्ध कार्यक्रम और हज़ारो साधकों की साधना के गहराई के अनुभव। यह विचारणीय है कि फ्रेग्रेन्स ग्रुप की परंपरा जिवंत सद्गुरु पर नहीं, मैत्री पर आधारित है।

    • फ्रेग्रेन्स के कुछ मित्रों ने मेरे २४ नवम्बर २०१९ के Facebook पर लिखे गए पत्र पर प्रश्न उठाए हैं ।
    मै कहना चाहूंगा कि मेरा वह पत्र सत्य के खोजी उन निष्ठावान और प्रामाणिक साधकों के लिए है, जो अपने चेतना की गहराई में उतर सत्य के अन्वेषण करने का साहस रखते हैं। इस पत्र में ट्वीटर, फेसबुक, YouTube पर मौजूद तथ्यों के साथ वे video clips डाले गए हैं जिनकी प्रमाणिकता सिद्ध है और जिन्हे खुली आँखों और विवेक से कोई भी सामान्य बुद्धि का व्यक्ति समझ सकता है बशर्ते वह मानसिक और भावनात्मक तौर पर अँधा न हो और किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित न हो। यह पत्र केवल सभी सच्चे साधकों को सम्बोधित है ताकि भ्रम की धुंध के पार सत्य के सूर्य का हम दर्शन कर सकें
    यहां, मै यह स्पष्ट कर दूँ कि मै एक सामान्य अन्तर्मुखी साधक हूँ जो सन २००१-२००२ मे Jabalpur ओशोधारा से जुड़ा । मुझे स्मरण है कि अपने शहर मुंबई से स्वामी सूरजप्रकाशजी के बाद मै दुसरा व्यक्ति हूँ ओशोधारा से जुड़ने वालाऔर शुरुवाती few hundreds साधकों में से एक हूँ । ओशोधारा से जुड़ने के कई वर्ष पहले ओशो पूना कम्यून से मैंने सन्यास की दीक्षा ली थी। मस्तो, मैत्रेय को मै तब से जानता हूँ जब हम साथ ही ओशोधारा के कार्यक्रम किया करते थे। हमेशा से साधना का सातत्य ही मेरा एकमात्र उद्देश्य रहा और किसी भी प्रकार के गुटबाजी से स्वयं को हमेशा सदा दूर रखा। मै ओशोधारा का कोई आचार्य भी नहीं हूँ। ना कभी त्रिविर हाउस के नज़दीकी प्रभावशाली लोगों में से एक बनने का प्रयास किया, ना ऎसी कोई मंशा है , क्योंकि सद्गुरु का प्रेम और उनकी करुणा मुझ जैसे हज़ारों back benchers तक भी बेशर्त बरसती है। एक साधक और शिष्य होने के नाते मेरा यह छोटा सा प्रयास है सद्गुरु की बसाई इस बगिया के फूलों को गुलदस्ते के फूल बनने से बचाने के लिए।

    • एक दुर्भाग्यपूर्ण सत्य - जिनसे बस जीवन का एक महत्वपूर्ण सबक लिया जा सकता है
    अध्यात्म के एक पथिक होने के नाते , आज की परिस्थिति में, अपनी आंतरिक प्रेरणा के फलस्वरूप शोध करने के पश्चात जो तथ्य सामने आये और उन् कड़ियों को जोड़कर जो तस्वीर उभर कर आयी उसे पूरी प्रमाणिकता से ऊपर दिए गए पत्र के लिंक में सभी के समक्ष रखने का प्रयास किया है। हाल में हुई घटनाएं , पत्र , audio , वीडियो क्लिप्स , सार्वजानिक सम्बोधन इस बात के प्रमाण है कि यह एक दुर्भाग्यपूर्ण सत्य है जिनसे बस जीवन का एक महत्वपूर्ण सबक लिया जा सकता है कि बुद्धत्व एक ऐसा पौधा है जिसे निरंतर सुमिरन के जल से सींचा जाय तो ओशो जैसा विराट वटवृक्ष बन सकता है और न सींचा जाय तो अहंकार, मोह और महत्वकांक्षा के विषाक्त जहर से प्रभावित होते देर नहीं लगती
    ऊपर link में दिए गए पत्र में मौजूद सारे तथ्यों को प्रस्तुत करने के बावजूद कई हठी, अति भावुक और मोहग्रस्त लोग हैं जो अपनी समझ पर मोह की झूठी पट्टी को बांधे इतनी सम्मोहित स्थिति में हैं कि वे सत्य को देखना ही नहीं चाहते । सच कहो तो यह वे लोग हैं जो स्वयं पूरी बात नहीं जानते और जाने अनजाने ओशोधारा को विघटित करने के षड्यंत्र के हिस्से हैं।
    • मस्तो पर लगे आर्थिक अनियमितताओं के आरोप और दान दी गई जमीन, यह दो अलग अलग बातें हैं
    ध्यान रखने योग्य है कि मस्तो पर लगे आर्थिक अनियमितताओं के आरोप और उनके द्वारा २००५ में आश्रम को दान दी गई जमीन, यह दो अलग अलग बातें हैं। दोनों बातों को एक साथ जोड़ कर देखना गलत होगा। जहां तक दान का सवाल है, हम सभी आश्रम में अपनी अपनी क्षमता अनुसार दान देते रहे हैं पर इसका अर्थ यह नहीं कि संघ का अनुशासन दान देने वालों पर लागु नहीं होता। उन्होंने जमीन तो २००५ में दान दी थी बस गिफ्ट डीड की रजिस्ट्री भर हाल ही में करवाई। और यह भी ध्यान रखने योग्य है कि मस्तो पर लगे आर्थिक अनियमितताओं के आरोप की रकम उनकी त्रिविर हाउस की जमीन की रकम से कई गुना अधिक है।
    • झूठ और अफवाह के आधार पर सहानुभूति
    यह अफवाह उड़ाई गयी कि स्वामीजी और माँ मुरथल आश्रम में कैद की स्थिति में थे। पर इससे बड़ा झूठ और क्या हो सकता है? इसका प्रमाण वे videos है जिनका लिंक मेरे पिछले पत्र में डाला गया है।
    खाली हाथ चले जाने के झूठ का प्रमाण भी वही लोग हैं जो आश्रम से ले जाये गए लैपटॉप और कम्प्यूटर्स के data का गलत उपयोग ओशोधारा साधकों को बरगलाने के लिए कर रहे हैं। किसी भी संस्था के data को चुराना और दुरूपयोग करना पुरे विश्व में illegal कृत्य है। और जब स्वामीजी अपने जिद, असंतोष और महत्वाकांक्षा के चलते ही ओशोधारा ट्रस्ट से इस्तीफा देकर गए तो उन्हे पूरी तरह से अपने निर्णय की जिम्मेदारी लेनी चाहिए बजाय यह कहने के कि मुझे निकाला गया। रीयूनियन video में उनके मुख से निकले वचन को कैसे झूठलायेंगे कि वे ओशो और ओशोधारा के प्रचार प्रसार के लिए जा रहे हैं।
    विदाई का video इस बात का प्रमाण है की सैकड़ों साधकों, आचार्यों, caretakers और स्टाफ की उपस्थिति के बीच स्वामीजी और माँ को पुरे सम्मान सहित अश्रुपूर्ण , भावभीनी विदाई दी गयी।
    सद्गुरु त्रिविर की संस्था को समाप्त करने का मुख्य कारण स्वामीजी के भीतर पनपता असंतोष और मत्वाकाँक्षा ही थी जिसके कारण सद्गुरु बड़े बाबा को वह कदम उठाने के लिए बाध्य होना पड़ा। यह निर्णय बड़े बाबा के द्वारा कोई ऐसे ही रातोंरात नहीं ले लिया गया।

    मेरे पत्र में लिखी बातों के अलावा और भी ऐसी कई बातें हैं, जिनका इस समय तक मेरे पास कोई ऑडियो, वीडियो या सोशल मीडिया clips नहीं है। इसी कारण अपने पिछले पत्र में इनका जिक्र नहीं किया था परंतु फ्रेग्रेन्स के मित्रों द्वारा पूछे गए कई सवालों के जवाब इनमे निहित है इसलिए अब इनका जिक्र कर रहा हूं। जैसे:
    १. 2005 में मस्तो ने 1.5 एकड़ जमीन ओशोधारा को लिखित रूप से दान में दी थी लेकिन दान की रजिस्ट्री नहीं कराई।14 वर्षों में उस जमीन पर त्रिविर हाउस का निर्माण ओशो नानक ध्यान मंदिर ट्रस्ट ने किया और अपने नाम से सी.एल.यू. कराया। अगस्त २०१९ में मस्तो उसी दान में दी हुई जमीन के लिए ढाई करोड़ रूपए मांगने लगेसंगत के पास पैसा न होने के कारण और ट्रस्ट नियमों के अधीन न होने के कारण सद्गुरु ने २.५ करोड़ रूपये देने से इंकार कर दिया क्योंकि दान के बाद वह जमीन ओशोधारा की थी जिस पर संगत ने कई रूपये खर्च करके निर्माणकार्य करवाए थे ।
    २. मस्तो के अपेक्षित ढाई करोड़ रुपये का न मिलना स्वामीजी को अन्यायपूर्ण लगा और 26 अगस्त,19 को उन्होंने माँ और मस्तो के साथ इस्तीफा देकर जाने की घोषणा कर दी। एक सोची-समझी रणनीति के तहत ओशोधारा को अधिक से अधिक क्षति पहुँचाने हेतु अपने लोगों द्वारा सोशल मीडिया पर सद्गुरु को बदनाम किया जाने लगा। तथा स्वयं को बेचारा बता कर संघ की सहानुभूति अर्जित करने और सद्गुरु पर दबाव बनाने लग गए।
    ३. यह बात दुर्भाग्यपूर्ण और निंदनीय है कि मस्तो ने बड़े बाबा से कहा था कि आप त्रिविर हाउस की जमीन से बाहर निकल जाएं, छोटे बाबा और माँ मेरे माता-पिता हैं, वे कहीं नहीं जाएंगे।
    ४. सन २०१७ में भी ओशोधारा के भीतर साजिश की खबर आयी थी और कई उँगलियाँ मस्तो पर उठी थी। समय रहते साजिश के बारे में स्वामी योगेश जी को कुछ मित्रों द्वारा पता चल गया था और उन्होंने सदगुरू बड़े बाबा को सारे घटनक्रम के बारे में अवगत करा दिया था। उस समय सद्गुरु को और संघ को साजिश की गंभीरता का पता नहीं चल पाया था और सचेत हो जाने के कारण दुर्भाग्य टल गया था।
    • नींव ही षड़यंत्र, विश्वासघात, डाटा की चोरी और दुष्प्रचार पर आधारित
    बहुत सी बाते लिखी जा सकती थी पर मैंने अपने पिछले पत्र में सिर्फ उन्ही प्रश्नों को उठाया जिनके तथ्य ऑडियो, वीडियो सोशल मीडिया पर उपलब्ध हैं। इसलिए यह कहना गलत होगा कि मै यूँ ही किसी की छवि को ख़राब करने का प्रयास कर रहा हूँ। फ्रेग्रेन्स अपना कार्यक्रम चलाएं, खूब आगे बढ़ें इसमें कोई आपत्तिजनक बात नहीं है। लेकिन फ्रेग्रेन्स के लोगों द्वारा प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष ढंग से सद्गुरु को सोशल मीडिया पर बदनाम करना, ओशोधारा के कार्यक्रमों की नक़ल करना, ओशोधारा के चोरी किये गए डाटा का उपयोग ओशोधारा के ही लोगों को बरगलाने के लिए करना, ओशोधारा संघ को तोड़ने के लिए करना गलत और अक्षम्य है।
    Fragrance के ओशोधारा संघ को तोड़ने के दुष्कृत्य का नमूना है यह नीचे दिया गया ऑडियो clip :


    Call from Fragrance to Oshodhara Sadhak to join them

    किसी आध्यात्मिक संस्था की नींव ही षड़यंत्र, विश्वासघात, डाटा की चोरी और दुष्प्रचार पर आधारित हो यह घोर अधर्म है। ऐसे अधर्म से कोई परम सत्य को पायेगा इसमें संदेह है। और यह बात फ्रेग्रेन्स के कर्ता धर्ता और उनसे जुड़े हर साधक के लिए विचारणीय है।
    साधना वहीं पर सच्ची है जहाँ पर मौलिकता हो। सवाल यह है कि यदि फ्रेग्रेन्स में मौलिकता नहीं है और उधार साधना की नक़ल भर है तो क्या उस स्थिति में भी साधक स्वामीजी के आकर्षण और माँ की ममता के नाम पर अपनी साधना की बलि चढ़ाएंगे? क्योंकि मौलिकता के अभाव में सिर्फ अपने मन की पसंद को तरजीह देना आध्यात्मिक सुसाइड भर है। जब मन की पसंद में ही अटक गए तो मन के पार कैसे जायेंगे? और यह अब तक की अर्जित साधना की क़ुरबानी भर होगी।
    मेरे पत्र को पढ़ने के लिए आपने जो इतना समय निकाला उसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।
    प्रेम नमन.
    ओशो निष्काम

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