क्या गुरु मित्र हो सकते हैं !!!
कुछ समय पहले आपने कहा कि आप हमारे मित्र हैं और हम सब मित्र हैं। वास्तव में इस बात को स्वीकार करने में मुझे बहुत परेशानी हो रही है। ओशो, आप मेरे लिए सर्वाधिक प्यारे सदगुरु हैं। बताइये में कहां गलती पर हूँ?
उत्तर:- यह प्रश्न विवेक का है। में उसकी परेशानी समझ सकता हूँ। यह परेशानी उन सभी की है जो मेरे नज़दीक हैं मुझे प्रेम करते हैं और जिन्होंने मुझे हृदय से गुरु स्वीकार किया है। में यह कह रहा हूँ' " मैं तुम्हारा मित्र हूँ और तुम मेरे मित्र हो' कुछ विशेष कारण से मैं इस वक्तव्य को दे रहा हूँ। यह बात तुम्हारी समझ में नहीं आएगी।
इसी संदर्भ में मिलारेपा का प्रश्न था कि कुछ संन्यासी आपके प्रति आक्रोशपूर्ण क्यों हैं? आपसे नाराज़ क्यों हैं?
यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि शिष्यों के संघ में से कुछ ऐसे होते हैं जो आकस्मिक घटनावश वहां होते हैं। हवाओं का रुख मेरी ओर था और वे पहुंच गए। उन्होंने मेरे शिष्यों में अद्भुत ऊर्जा व सौंदर्य को देखा और वे लालची हो गए। यह खोज सत्य की खोज न थी, प्रेम की खोज न थी। यह मात्र लालच था। वे खुद भी आध्यात्मिक शक्तियों से संपन्न होना चाहते थे।
वे लोग संन्यासी बन गए; वे लोग शिष्य भी बन गए। लेकिन मेरे और उनके बीच की दूरी उतनी ही बनी रही। में चाहता था कि आक्रोश, नाराजगी आदि दुर्भावनाओं से उनका छुटकारा हो जाये। यह समस्या मेरी नहीं थी। समस्या उनकी थी। मैं तो हर संभव तरीके से उनकी सहायता करना चाहता था।
मात्र इसी कारण मुझे कहना पड़ा 'मैं तुम्हारा मित्र हूँ, तुम मेरे मित्र हो।'
जो लोग मेरे साथ नहीं थे, वे इस वक्तव्य से बहुत खुश हो गए कि अब वे लोग मेरी बराबरी पर हो गए हैं। ये वही लोग थे, जिनकी आप कभी कल्पना भी नहीं कर सकते। दूसरे ही दिन एक संन्यासी ने आकर मुझे खबर दी कि 'तीर्था' सबसे कह रहा है-- 'अब मेरा और ओशो के दर्जा एक बराबर हो गया है, अब हम मित्र हैं।' इसी चाहत के लिए वह यहां पन्द्रह वर्षों से लटक रहा था। राजेन लोगों से कह रहा था 'अब मैं शिष्य नहीं रहा बल्कि एक मित्र हूँ और मेरी व उनकी स्थिति एक समान है।'
ऐसे ही लोगों से मैं शांतिपूर्ण और अधिक प्रेमपूर्ण तरीके से छुटकारा पाना चाहता हूं। परंतु मुझे प्रेम करने वाले लोग दुखी हो गए। उन्होंने मुझे गुरु की भांति प्रेम किया। शिष्य होना इतना अधिक मूल्यवान है, तब मित्र होने की फिक्र ही कौन करता है।
मैं विवेक की परेशानी समझ सकता हूँ। वह सोलह वर्षों से मेरे साथ है। इन वर्षों में दिन-रात समर्पित होकर उसने मेरी देखभाल की है। उसका प्रेम व भक्ति में समझता हूँ। मुझे एक मित्र की भांति स्वीकार करना उसके लिए मुश्किल है। जिन्होंने शिष्यत्व के आनंद और उत्सव को जाना है, वे उसे कभी मित्र होकर नहीं जान पाएंगे।
उन लोगों को मैंने उनकी माला व गैरिक वस्त्रों से मुक्त कर दिया। मैं भी उनके प्रति अपने उत्तरदायित्व से मुक्त हुआ। वे समझते थे कि माला धारण करने से और गैरिक वस्त्र पहनने से उनका दायित्व पूरा हो गया और उनके बुद्धत्व प्राप्ति का भार मुझ पर है। लेकिन मुझे उनसे छुटकारा मिल गया। वे समझते हैं कि मैंने उन्हें स्वतंत्रता दे दी लेकिन मैंने स्वयं को अनावश्यक उत्तरदायित्व से मुक्त किया है और स्वयं को निर्भार किया है। अंततः उन्हें ये महसूस होने दिया कि वे मुझसे किसी भी तरह निम्न स्थिति में नहीं हैं मेरे साथ बराबरी पर हैं।
मैं सदा ही उनके लिए गुरु हैं जो हकीकत में मुझे प्रेम करते हैं। जिन्होंने भक्ति, प्रेम व समर्पण सहित एक लंबी यात्रा मेरे साथ तय की है।
सभी अहंकारी लोग जो शिष्य बने हुए हैं, उनको मैं निराश नहीं करना चाहता। सबसे सही और सम्मानजनक रास्ता यही है कि मैं स्वयं हो घोषित करूं कि तुम मेरे मित्र हो और मैं तुम्हें पूरी स्वतंत्रता देता हूँ और वे एकदम खुशी से राज़ी हो गए। वे नहीं जानते कि उन्होंने क्या खो दिया है। वे स्वतंत्र हैं... वे मुझसे मिले, बंधे, पर अब वे पूरी तरह स्वतंत्र हैं। उनके अहंकार को बढ़ावा मिला। उनको बराबरी का दर्जा मिल गया। लेकिन मैंने ऐसा उपाय किया कि मुझे उन्हें नहीं छोड़ना पड़ा। उन्होंने खुद ही मुझे छोड़ दिया।
सच्चाई यह है कि जो सदशिष्य हैं वे सदा ही सदशिष्य बने रहते हैं। बुद्धत्व प्राप्ति के पश्चात भी वह अपना शिष्यत्व नहीं गंवाते। वास्तव में वे शिष्यतम के उच्चतम शिखर को प्राप्त कर लेते हैं।
अपने सद्गुरु के प्रति उनका अहोभाव, उनका समर्पण, उनकी भक्ति कभी कम नहीं होती, अपितु अधिकाधिक बढ़ती चली जाती है।
~ परमगुरु ओशो
सनातन धर्म का आधार और उसकी सतत जीवंतता का रहस्य ही गुरु-शिष्य परंपरा रही है। और यह समस्त आध्यात्मिक परंपराओं का आधार है। जहां यह परंपरा टूटी वहीं अध्यात्म का सार , essense विदा हो जाता है। फिर वहां राजनीति और धनलोलुपों, अहंकारियों की जमात इक्कठी हो जाती है।
नए साधकों के लिए यह बड़ी चुनौती है क्योंकि अहंकार को यही लोग आकर्षित करते हैं।
भारत में हमने कभी सदगुरु को मित्र नहीं माना। हमने (भारत में) सदा गुरु को गोविंद से भी ऊपर रखा है इसी कारण भारत अध्यात्म के शीर्ष पर सदा रहा है, और है, और रहेगा... जो ऊंचाइयां भारत ने स्पर्श की हैं और निरंतर स्पर्श करता जा रहा है,वह पश्चिम नें नहीं छुई है और न छू पायेगा...
क्योंकि इसका रहस्य केवल.. केवल... जीवंत गुरु-शिष्य परंपरा ही है। और यह दुर्लभ घटना सिर्फ भारत में ही पाई जाती है।
जिस दिन अगर भारत में भी हमने सदगुरु को मित्र बनाने की परंपरा प्रारम्भ कर दी तो भारत के लिए वह महादुर्भाग्य होगा और भारत में अध्यात्म का पतन हो जाएगा...।
और भारत की आध्यात्मिक परंपरा का पतन अर्थात पूरी मानवता का पतन!!!
जीवित गुरु आग है जिनको परवाने बनने का साहस हो वे ही साधना जगत में आगे बढ़ सकते हैं। जीवित गुरु की अग्नि हमारे अहंकार को भस्म कर देती है, इसीलिये अहंकारी लोग जीवित गुरु से बचते हैं इसलिए वे मित्र बनाना चाहते हैं। क्योंकि 'उनकी' आग में हमारा जो झूठा व्यक्तित्व है वह राख हो जाने वाला है हालांकि यह भी अटल सत्य है की इस महापीड़ा के बाद ही हमारा अमृत स्वरूप भी प्रकट होता है।
पर पहला चरण ही कठिन से कठिनतम है कि किसी जीवित और मौलिक सदगुरु के श्री-चरणों में समर्पित होना।
क्योंकि 'वो' सदा हमारे अहंकार पर ठोकर पर ठोकर मारते रहेंगे...
'वे' हमें पूरा मिटाकर ही छोड़ेंगे ताकि हमारे भीतर उस अमर-अचलपुरुष का जन्म हो सके।
स्मरण रखें गुरु को मित्र बनाते ही, वही जो जीवन का महासौभाग्य बन सकता था वह महादुर्भाग्य बन जाता है!
जिनके पिछले जन्मों के पुण्य एकत्रित हुए है ऐसे सौभाग्यशाली पीछे नहीं हटते सदगुरु के श्री-चरण ही उनके जीवन का ठिकाना होता है। और सदगुरु के श्री-चरणों का आश्रय जिन्हें मिल गया उनके सौभाग्य की तो कोई तुलना ही नही है...।
जन्म-मरण प्रत्येक व्यक्ति के कर्मों के नियमानुसार निर्धारित होते हैं।
हम आत्मबेहोशी में जन्मों-जन्मों से जन्म-मरण के चक्र में आ-जा रहे है।
जीवन का सबसे महत्वपूर्ण लक्ष्य आत्मज्ञान है, ब्रह्म ज्ञान है। प्रत्येक साधक को इसे जाने बिना विदा नहीं होना चाहिए।
पर मृत्यु हमारे हाथ में नहीं है कब आ जाये कोई नहीं जानता।
आखिर गुरु का शिष्यों को सबसे बड़ा दान क्या है!!
गुरु का सदशिष्यों का एक ही परम दान है और वो है कि वह उसे अपने जैसा ही बना देते है आत्म प्रतिष्ठित, ब्रह्म प्रतिष्ठित, सांस-सांस गोविंद के सुमिरन में प्रतिष्ठित...।
इससे बड़ा दूसरा कोई दान नही हो सकता है, यह परमदान है।
सदशिष्यों के जीवन में यह परमसौभाग्य की घड़ी जन्मों-जन्मों के पुण्य कर्मों से ही आती है।
और फिर तो मृत्यु भी अमृत बन जाती है। मृत्यु फिर जैसे भी आये अभी आए, कल आए या जब आए फिर तो हर क्षण सतत उत्सव चलता रहता है।
परमगुरु ओशो के बाद गुरूदेव (सद्गुरु ओशो सिद्धार्थ औलिया जी) का अवतरित होना यह अस्तित्व की परम करुणा ही है सभी सदशिष्यों, सभी प्रभु के प्यासों के लिए।
दृष्टा, साक्षी, ध्यान, समाधि और सुमिरन आज तक आध्यात्मिक जगत में दूर आकाश के फूल रहे हैं! पर ओशोधारा में सद्गुरु ओशो सिद्धार्थ औलिया जी ने इन आकाश के फूलों को धरती पर उतार दिया है।
अतीत में जिस परम स्थिति को बुद्ध, महावीर, कबीर, आदि.. ही पा पाते थे वह महारहस्य गुरुदेव ने अब सभी सच्चे और निष्ठावान साधको के लिए उपलब्ध करा दिया है।
अब कोई भी बहाने बनाने की गुंजाइश नहीं रही!
अब चूके तो जिम्मेवारी हमारी ही होगी!!
जिन्हें भी आध्यात्मिक यात्रा करनी है उन्हें चेत जाना चाहिए!,
गुरु कभी मित्र नही हो सकता है, यदि अध्यात्म का, सनातन धर्म का, सारे गुरुजनों का अपमान करना हो, मज़ाक बनाना हो तो गुरु को मित्र मज़े से बनाइये!!
लेकिन ध्यान रखें इससे आप संसार और अध्यात्म दोनों से पतित हो जाएंगे।
चुनाव आपका है!!!
गुरुदेव कहते हैं:-
हमारी नज़र में हमेशा जो ख़ास रहे
पास रहकर भी सालों साल कहाँ पास रहे
कारवाँ लुटने से बच गया इंशाल्लाह
माना कुछ दिन तक हम भी तनिक उदास रहे।
प्रज्ञावान साधक वही है जो गुरु को हृदय चक्र में प्रतिष्ठित कर अपने जीवन के एक-एक क्षण का उपयोग समाधि, सुमिरन की साधना में लगाता है।।
ओशोधारा के सदशिष्यों को बस दो ही काम तो करना है पहला गुरु को हृदय चक्र में प्रतिष्ठित करना।
दूसरा जो भी समाधि, सुमिरन कार्यक्रम कर रहे हैं जो बताया गया है उसे जीवन की फेहरिस्त में पहले नंबर पर रखकर पूरी निष्ठा से करना... और बात बन जाएगी।
सभी सच्चे और निष्ठावान साधकों को जो अपने इस जन्म को अंतिम जन्म बनाना चाहते हैं उन सभी का ओशोधारा में स्वागत है ध्यान समाधि से चरैवेति तक का संकल्प लेकर परमजीवन की अपनी यात्रा का शुभारंभ करें और अपने परम सौभाग्य पर इतराएं।
गुरुदेव ने ओशोधारा में अध्यात्म के सर्वश्रेष्ठ मार्ग 'सहज-योग' को प्रतिपादित किया है, जिसके 3 आयाम हैं - ज्ञान योग, भक्ति योग और कर्म योग। ज्ञान योग का अर्थ है स्वयं को आत्मा जानना और आनंद में जीना। भक्ति योग का अर्थ है परमात्मा को जानना और उसके प्रेम में जीना। कर्म योग का अर्थ है आत्मा और परमात्मा से जुड़कर संसार का नित्य मंगल करना।
गुरूदेव ने एक रहस्य की बात बताई है :- बैकुंठ में आत्मानन्द है पर ब्रह्मानन्द नहीं है, क्योंकि वहां भक्ति नहीं है।
भक्ति सिर्फ मनुष्य शरीर से ही सम्भव है।
सुमिरन सिर्फ सांसों के साथ ही किया जा सकता है।
सन्त सुमिरन का आनन्द लेने के लिए, सांस-सांस आत्मानन्द + ब्रह्मानन्द (सदानन्द) का आनन्द लेने के लिए ही पृथ्वी पर बार-बार आते हैं।
हृदय में गुरूदेव और हनुमत स्वरूप सिद्धि के साथ गोविंद का सुमिरन!
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः।।
अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरं।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः।।
अनेकजन्मसंप्राप्तकर्मबन्धविदाहिने ।
आत्मज्ञानप्रदानेन तस्मै श्री गुरवे नमः।।
नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां
नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां
~ जागरण सिद्धार्थ
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हम बहुत शौभाग्यशाली हैं कि हमे परमगुरु ओशो और अब उनकी कृपा से सदगुरु ओशो सिद्धार्थ औलिया जी मिले हैं। नमन अहोभाव जी।
ReplyDeleteसुनो मेरे मीता, ओ साथी रे
ReplyDeleteहम तुम तुम हम दिया बाती रे।।
अनहद के जैसा कोई गीत है नही
पीर जैसा कोई मीत है नहीं ।
धन्य जिसकी मुर्शिद से है यारो रे।।
ओशो गीता ����
Jai baba ki
ReplyDeleteअहो भाव अहो भाव अहो भाव
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