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    शिष्यत्व ~ परम सौभाग्य !!!

    शिष्य होना बड़ी कठिन बात है। इस संसार में उससे ज्यादा कठिन बात कोई भी नहीं। क्योंकि शिष्य होने का अर्थ है कि हमने किसी और का सहारा पकड़ लिया। और हमने सहारा बेशर्त पकड़ा; पाने की आशा से नहीं, प्रेम के भरोसे में पकड़ा। कहीं पहुंच जाएंगे इस लोभ से नहीं; किसी ने हमारे भीतर वीणा जगा दी, किसी ने हमारे भीतर एक नए संगीत को जन्म दे दिया, और हमारे पैर बंधे हुए उसके पीछे चलने लगे। जैसे सांप नाचने लगता है बांसुरी को सुन कर ऐसा ही गुरु को देखकर, सद्गुरु को देखकर शिष्य अपना भान खो देता है। अपनी अकड़, अपना होना खो देता है। दूर की बांसुरी बजने लगी; अज्ञात की पुकार आ गयी। बिना पूंछे; कहां जा रहा हूँ! कहां ले जा रहे हो!
    क्योंकि बताने का कोई उपाय नहीं है। पूछा, कि बताने का कोई उपाय नहीं है। जाने से ही जाना जाता है। होने से ही हुआ जाता है। उस मंज़िल के संबन्ध में कुछ भी कहा नहीं जा सकता। तुम जाओगे, जानोगे, देखोगे, तो हो। श्रद्धा के किसी गहन क्षण में यात्रा शुरू होती है शिष्य की।

     शिष्य का अर्थ है जो सीखने को तैयार है। सीखने को  तैयार कौन है ? सीखने को वही तैयार है जिसने यह अनुभव कर लिया कि अब तक अपने कई उपाय किये, कुछ भी सीख न पाया। सीखने को वही तैयार है जिसने अपने अज्ञान की पीड़ा की प्रतीति कर ली। सीखने को वही तैयार है जिसने देख लिया अपने हृदय के गहन अंधकार को। सीखने को वही तैयार है जिसने देख लिया कि मैं अपने जीवन को सिर्फ उलझा रहा हूं, सुलझा नहीं रहा। और जितना सुलझाने की कोशिश करता हूँ, बात और उलझती चली जाती है। ऐसे पीड़ा के क्षण में, ऐसी संताप की अवस्था में, अपनी परिस्थिति को पूरा-पूरा देखकर, अपनी यात्रा की व्यर्थता को समझ कर शिष्यत्व का जन्म होता है। तब कोई सीखने को तैयार होता है। और जो सीखने को तैयार है उसे अपनी अस्मिता और अहंकार को छोड़ देना पड़ता है। क्योंकि अहंकार सीखने न देगा। अहंकार अपने से ऊपर किसी को रखने को कभी राज़ी ही नहीं है।

                                        ~ परमगुरु ओशो


      शिष्य होना जीवन का परम सौभाग्य है, पर यह उन्हीं के लिए है, जो अपने सिर को गुरु चरणों में चढ़ाकर, उनके साथ चलने को तैयार होने का, परम साहस कर पाते हैं!!

    ओशोधारा में गुरुदेव (सद्गुरु ओशो सिद्धार्थ औलिया जी) ने ज्ञानयोग और भक्तियोग की अद्भुत शराब ढाली है।
    कुछ कच्चे पियक्कड़ ज्ञान की शराब पीकर ही बहक जाते हैं, और भक्ति की असली शराब पीने से चूक जाते हैं...।
    और अध्यात्म जगत का सबसे बड़ा अपराध कर बैठते हैं, जिसे गुरुद्रोह कहा जाता है, जिसकी निंदा सर्वत्र की गई है।

    ओशोधारा में जो मित्र शिष्य बनने नही, गुरु बनने आये थे, उन सबने गुरुद्रोह किया।
    तो जो भी गुरु बनने की आकांक्षा लेकर आएगा और सुमिरन नही करेगा। उसकी बुद्धि एक दिन निश्चित ही भ्रष्ट होगी और वह गुरुद्रोह करेगा।
    जितने भी गुरुद्रोही है और उस जमात में शामिल हो रहे हैं, और आगे जो होंगें, वे वही होंगें जो गुरु बनने की वासना लेकर आएंगे, और ऐसे मित्र सुमिरन में कभी नहीं उतरेंगे, सुमिरन की महिमा को वे अपने जीवन में कभी उतारने का प्रयास नहीं करेंगे...
    और ज्ञान के अहंकार में गुरु से कपट करेंगे ही!!

    गुरुद्रोही सदा गुरु को अपने अनुसार चलाना चाहेंगे और यदि वह उसमें सफल नहीं होगें, तो गुरु के मिशन को नष्ट करना चाहेंगे। क्योंकि तभी उनकी प्रतिष्ठा कायम हो सकेगी!

    गुरुद्रोही चाहे जितना मिथ्या भ्रम में रहें, उनकी यात्रा का परिणाम अधोगमन ही है।
    क्योंकि गुरुद्रोह निंदनीय है..., अक्षम्य है...।
    क्योंकि जीवित गुरु के साथ समस्त गुरु-सत्ता, देव-सत्ता और स्वयं गोविंद होता है।

    । नियम जगत का अलग है, हुकम ब्रह्म का और।
         प्रभु रूठे गुरू ठौर है, गुरू रूठे नहिं ठौर।।

    ओशोधारा में गुरुदेव ने बहुत ही वैज्ञानिक और व्यवस्थित ढंग से अध्यात्म की यात्रा के सोपान निर्मित किए है; कि पहले आत्मा को जानो, ब्रह्म को जानो, और फिर उसके सुमिरन में रहते हुए कर्म करो।

    गुरुदेव ने सुमिरन का का ऐसा महा-रहस्य प्रदान किया है, जो अभी तक अतीत में किसी को उपलब्ध नही रहा है।
     जिसे भी सुमिरन का विज्ञान समझ में आ गया, जिसको जरा भी सुमिरन का रस मिल गया, उसके रोम-रोम से बस एक ही अहोभाव उठेगा -

           ।। राम तजूं पै गुरु न बिसारूँ ,
               गुरु के सम हरि कूँ न निहारूँ ।।
     गुरुदेव ने ओशोधारा में अध्यात्म के सर्वश्रेष्ठ मार्ग 'सहज-योग' को प्रतिपादित किया है, जिसके 3 आयाम हैं - ज्ञान योग, भक्ति योग और कर्म योग। ज्ञान योग का अर्थ है स्वयं को आत्मा जानना और आनंद में जीना। भक्ति योग का अर्थ है परमात्मा को जानना और उसके प्रेम में जीना। कर्म योग का अर्थ है आत्मा और परमात्मा से जुड़कर संसार का नित्य मंगल करना।

    आज तक अध्यात्म बहुत ही कठिन रहा, कुछ बिरले लोग ही इस परमयात्रा पर चल पाते थे। पर गुरुदेव ने पहली बार अध्यात्म के इतिहास में, ओशोधारा में, 28 तल के 'समाधि कार्यक्रम' और 21 तल के 'प्रज्ञा कार्यक्रम' बनाकर, प्रभु की यात्रा को आज पूरी मानवता के लिए सरल बना दिया है। अब हर कोई आत्मा को जान सकता है, ब्रह्म को जान सकता है, उसके प्रेम में जी सकता है। और प्रज्ञापूर्ण होते हुए कर्मयोगी हो सकता है।

    अब कोई बहाना बनाने का अवसर बचा नही है!!
    अब अगर कोई नही चलता है, तो जिम्मेवारी उसकी है!!!

    ।। हरि किरपा जो होय तो, नाहीं होय तो नाहिं,
       पै गुर किरपा दया बिन, सकल बुद्धि बहि जाहिं।। 

    गुरूदेव ने एक रहस्य की बात बताई है :- बैकुंठ में आत्मानन्द है पर ब्रह्मानन्द नहीं है, क्योंकि वहां भक्ति नहीं है।
    भक्ति सिर्फ मनुष्य शरीर से ही सम्भव है।
    सुमिरन सिर्फ सांसों के साथ ही किया जा सकता है।
    सन्त सुमिरन का आनन्द लेने के लिए, सांस-सांस आत्मानन्द + ब्रह्मानन्द  (सदानन्द) का आनन्द लेने के लिए ही पृथ्वी पर बार-बार आते हैं।

    हृदय में गुरूदेव और हनुमत स्वरूप सिद्धि के साथ गोविंद का सुमिरन!
    गुरूदेव ने आध्यात्मिक जगत में महाक्रान्ति ला दी है; ओशोधारा के साधकों के जीवन के केंद्र में गुरु हैं, सत-चित-आनन्द के आकाश में उड़ान है और सत्यम-शिवम-सुंदरम से सुशोभित महिमापूर्ण जीवन है!!

    गुरुदेव द्वारा प्रदत्त सुमिरन+हनुमत स्वरूप सिद्धि अति उच्चकोटि की साधना है।
    हनुमान स्वयं इसी साधना में रहते हैं, वे सदैव भगवान श्रीराम के स्वरूप के साथ कण-कण में व्याप्त निराकार राम का सुमिरन करते हैं।

    गुरुदेव ने अब सभी निष्ठावान साधकों को यह दुर्लभ साधना प्रदान कर आध्यात्मिक जगत में स्वर्णिम युग की शुरूआत कर दी है।

    सदा स्मरण रखें:-
    गुरु को अंग-षंग जानते हुए सुमिरन में जीना और गुरु के स्वप्न को विस्तार देना यही शिष्यत्व है।
    गुरु+गोविंद+शिष्य यह सिनर्जी ही सारे अध्यात्म का सार है!!
    और यह सतत चलता रहेगा, चरैवेति.. चरैवेति...।

    नालीकनीकाश पदाहृताभ्यां, नानाविमोहादि निवारिकाभ्यां।
    नमज्जनाभीष्टततिप्रदाभ्यां, नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम्।।

          गुरुरवै शरण्यं गुरुरवै शरण्यं
          गुरुरवै शरण्यं गुरुरवै शरण्यं

                                          ~ जागरण सिद्धार्थ

                    
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    10 comments:

    1. Pyare bhagwan bade babaji aur parmatma ko Anant sadarpoorwak prempoorna pranam.
      Jai bade babaji, Jai oshodhara

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    2. अमित आनन्दDecember 7, 2019 at 3:08 AM

      ओशोधारा से जुड़ना और गुरुदेव की शिष्यता ग्रहण करना, इस जन्म का सबसे बड़ा सौभाग्य है।

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    3. मेरे सद्गुरु बड़े बाबा औलिया जी के श्रीचरणो बारम्बार सजदा, नमन, अहोभाव ।

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    4. जय हो प्यारे सदगुरु बड़ेबाबा की
      जय ओशो
      जय ओशोधारा

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    5. मेरे जीवन का सबसे बड़ा उपहार ये है कि *सदगुरु* ने मेरे पूरे परिवार को अपने शिष्य के रूप में चुना।

      सदगुरु को नमन और अहोभाव

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    6. जिसने सदगुरू के श्रीचरणो में शरण मिल गई उसका जीवन धन्य हो गया, उस के परम सौभाग्य का उदय हो गया।
      मेरे कामिल मुर्शिद के श्रीचरणो में कोटि-कोटि नमन ।

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    7. सतगुरु औलिया बाबा के पावन चरणों में भक्ति भाव से नमन ��

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    8. मैं नेपाल मैं ओशो की सन्यास ग्रहण किया बात कहीं साल बिता कुछ समाज नहीं आया था जीवन बहुत ओशो को सुना फिर भी सुन्ता रहता हूँ बहुत को सुना दिल नहीं समझ पाए ।एक याइसा रास्ता मिला जहां दिल ठहर गया।फिर मुलाकात नहीं हुवा है मै उनको मिल्नेको आतुर हुँ ।मै सौंभाग्य मानताहू जीवन जीवन कि बसन्त मिलगाय अहो भाव,♥️������️मेरे मुर्शिद वन्दना, अनन्त यात्रा में मुझे स्वीकार किजिय ��������

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