ओशो के बाल सखा स्वामी सुखराज भारती जी का सद्गुरु "ओशो सिद्धार्थ औलिया" जी के बारे में वक्तव्य
मैं स्वामी सुखराज भारती अपनी समग्रता से स्वीकार करता हूँ कि मैं पूरा खोखला खड़ा था। बातों का जमा खर्च कर रहा था। आज मैं 30 वर्ष पुराना सन्यासी हूँ। परन्तु साक्षी के आगे कुछ भी नहीं जान पाया।
क्या करूँ, यह प्रश्न लगातार खड़ा था, कोई हल नहीं खोज पा रहा था, पूंछूं तो किससे, ओशो अशरीरी हो चुके हैं। एक दो दफे कुछ अपने प्यारों से चर्चा भी हुई, तो शब्द का खोखला ज्ञान मिला, बस वही रटा-रटाया उत्तर कि ध्यान करो।
यात्रा हो रही थी, 5 ध्यानों की, जो साक्षी तक पहुंचा देते हैं। पर इसके आगे कैसे और क्या करूँ जो कि समाधि की यात्रा पर ले जावे, बुद्धत्व की यात्रा पर ले जावे। ऐसी सोच भी नहीं थी, और मार्ग भी ज्ञात नहीं था।
ओशो शैलेन्द्र जी गाडरवाड़ा 6-4-2001 को पधारे। परम आंनदित थे। बोले - "बुलाने आया हूँ। राजेंद्रनगर में ओशो समाधि शिविर हो रहा है आप को चलना है, मेरे साथ बीस दिन रहना है।" हुक्म का पालन किया और 11-4-2001 को राजेन्द्र नगर पहुंच गया।
वहां ओशो सिद्धार्थ जी मेरा इंतजार कर रहे थे। मुलाकात हुई। बोले - " आ गए । " ओशो सिद्धार्थ जी भारत सरकार के उपक्रम S.E.C.L. बिलासपुर में महाप्रबंधक हैं, ये वही महामानव हैं, जिन्होंने कली से फूल बनने की ठानी थी। सन 1980 में सन्यास लिया। उस समय ओशो ने उनके नाम की व्याख्या की, अब तुम्हें सिद्धार्थ से बुद्ध बनना है और आनन्द बांटना है। बस गुरु का आदेश हुआ, पालन करने की ठान ली।
जीवन के 16 बहुमूल्य वर्ष लगे। पर वह नाद एवं नूर का तिलिस्म, जो ओशो एवं जो सभी संतों की धरोहर है, जो बीजक में सार बन्द था, जिसे सीना-ब-सीना गुरु शिष्य परंपरा से ही जाहिर किया जा सकता है, उसे खोलने में कामयाब हुए। वह सूत्र हासिल कर लिया और बुद्धत्व को प्राप्त हुए। आत्मज्ञान को भगवत्ता को प्राप्त हुए।
खुद तो पा लिया, फिर गुरु देशना याद आई, मेरे 10,000 बुद्धा। यह कैसे संभव होवे, इस संकल्प को पूरा करने में लग गए।
ओशो ने अशरीरी रूप में मदद की और शैलेंद्र, प्रिया का नाम सुझाया। यह कलियां भी फूल बनने के प्रयास में रत हैं, मदद पहुचाओ। कैसे भी शैलेंद्र, प्रिया को ढूंढा और शीघ्र ही दोनों भी फूल बन गए।
जबलपुर के संचालक स्वामी आनन्द विजय जी बुद्धत्व को उपलब्ध हुए। आंखों देखी घटना, बगल में बैठे मित्र को आत्मज्ञान प्राप्त हुआ देखकर निहाल हुआ। ओशो आनन्द जी का कथन - "बहुत कसमसा रहा था। पानी का घटक हाइड्रोजन आक्सीजन इक्कठा हो गया पर पानी नहीं बन पा रहा था। एक गुरु जीवंत चाहिए था
राजेंद्रनगर में गुरु रूप धारे पुनः ओशो मिले ।
जब इन सब घटनाओं का साक्षी बना, तो मुंडेर पर खड़ा होकर चिल्ला-चिल्ला कर आवाज दे रहा हूँ, आवाहन कर रहा हूँ, कि ओशो पुनः पधार गये हैं।
और मेरे प्यारो, ख्याल रखना। ओशो हुजूर पुनः आपके समक्ष हैं। स्वामी आनंद सिद्धार्थ जी अपने अथक प्रयास से ओशो सिद्धार्थ हुए है। फिर सिलसिला चल पड़ा। ओशो की धारा बह निकली, स्वामी शैलेन्द्र सरस्वती जी, ओशो शैलेन्द्र हुए। मां अमृत प्रिया, ओशो प्रिया हुई।
यह पत्र नहीं, एक संदेश है। अगर इसको पढ़कर किसी को दुख पहुंचे या क्रोध आए तो मुझे गांव का एक मित्र मानकर क्षमा कर देना। मैं तो ओशो अवगुणी हूँ, और अज्ञानी भी मैं। गम नहीं स्वीकार करता, प्रभु शरण की अब बात है। और जो मित्र पढ़ रहे हैं, अगर उनको अच्छा न लगे तो -
" मुझको यारों माफ करना मैं (ओशो के) नशे में हूँ। पुनः मेरे प्रेम प्रणाम स्वीकार करें।
~ स्वामी सुखराज के प्रणाम 2001
ये बड़े गजब की बात है!!
ऐसी जड़बुद्धिता!! की उनसे आशा नही थी!!!
सुखराज भारती जी का यह 2001 में दिया वक्तव्य उन सभी मित्रों को झकझोरने और जगाने के लिए पर्याप्त है; झकझोरना उन पुराने मित्रों को है जो जान कर भी अंजान बन रहे हैं और जगाना उन मित्रों को है जो सत्य को नही जानते सिर्फ मोह में अज्ञानता वश गुरुद्रोहियों की जमात में शामिल हो रहे है।
जिन्हें भी प्रभु की सच्ची प्यास है, उन्हें "रुकैवेति" नही, "चरैवेति" की तरफ यात्रा करनी होगी।
इसलिए प्रज्ञावान साधकों को बहुत सावधान रहने की जरूरत है, अध्यात्म की यात्रा में आपका एक गलत निर्णय आपके जन्मों-जन्मों का भटकाव बन सकता है।
हे प्रज्ञावान और प्रभु के प्यासे साधकों!
अध्यात्म की यात्रा परमजीवन की यात्रा है। यह "रुकैवेति" से नहीं होगी, यह नित-नूतन "चरैवेति" की यात्रा है। चलते रहना है.. चलते रहना है...।
और यह चलते रहना कोई कर्म थोड़े ही है, कि थक गए, अब रुक जाओ; रुकैवेति.. रुकैवेति...???
यह चलते रहना तो नित नूतन सदानन्द+उत्सव की यात्रा है। जो गुरु के साथ सदा चलती रहेगी। चरैवेति.. चरैवेति...
गुरुदेव ने ओशोधारा में अध्यात्म के सर्वश्रेष्ठ मार्ग 'सहज-योग' को प्रतिपादित किया है, जिसके 3 आयाम हैं - ज्ञान योग, भक्ति योग और कर्म योग। ज्ञान योग का अर्थ है स्वयं को आत्मा जानना और आनंद में जीना। भक्ति योग का अर्थ है परमात्मा को जानना और उसके प्रेम में जीना। कर्म योग का अर्थ है आत्मा और परमात्मा से जुड़कर संसार का नित्य मंगल करना।
गुरूदेव ने एक रहस्य की बात बताई है :- बैकुंठ में आत्मानन्द है पर ब्रह्मानन्द नहीं है, क्योंकि वहां भक्ति नहीं है।
भक्ति सिर्फ मनुष्य शरीर से ही सम्भव है।
सुमिरन सिर्फ सांसों के साथ ही किया जा सकता है।
सन्त सुमिरन का आनन्द लेने के लिए, सांस-सांस आत्मानन्द + ब्रह्मानन्द (सदानन्द) का आनन्द लेने के लिए ही पृथ्वी पर बार-बार आते हैं।
हृदय में गुरूदेव और हनुमत स्वरूप सिद्धि के साथ गोविंद का सुमिरन!
गुरुरवै शरण्यं, गुरुरवै शरण्यं।
गुरुरवै शरण्यं, गुरुरवै शरण्यं।।
~ जागरण सिद्धार्थ
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Right...
ReplyDeleteJai Sadguru Dev
ReplyDelete★गोविंद की कृपा ~ जिसने जीवन में सदगुरू भेजा और सदगुरू की सेवा का आशीर्वाद दिया।
ReplyDelete★सदगुरू बड़े बाबा की कृपा ~ जिसने जीवन में गोविंद की अनुभूति कराई और सुमिरन का आशीर्वाद दिया।
Bahut sundar 💚
ReplyDeleteप्यारे सद्गुरु के चरणों मे नमन,अहोभाव भारत म पुनः एक बार धर्म की स्थापना के लिए । गुरुदेव की कृपा से प्यारे परमगुरु ओशो के 10000 बुद्धों का सपना पूरा हुआ ।
ReplyDeleteस्वामी अमृत कीर्ति
Shoshanna ji
ReplyDeleteAhobhave ahobhav
ReplyDelete🙏💐🙏
ReplyDeleteनमन 💐
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