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    गुरुदेव के संस्मरण ~ संत दरिया के गांव धरकंधा में

    दरिया साहेब का जन्म 1634 ई. में बिहार प्रांत के रोहतास ज़िले के धरकंधा ग्राम में हुआ था। संत दरिया साहब के जीवन के बार में कुछ किंवदंतियां ही मिलती हैं। कहते हैं कि उनके पिता उज्जैन से बिहार में जगदीशपुर आ गए थे। उनका नाम पृथुदेव सिंह था। वह समय औरंगजेब के शासन का था जब हिन्दुओं को धर्म परिवर्तन के लिए कहा जा रहा था। कहते हैं कि अपने भाई के प्राण बचाने के लिए दरिया के पिता ने इस्लाम मत स्वीकार कर लिया था। दरिया की माँ एक दिन उन्हें गोद में लिए बैठी थीं। अचानक एक पीर साहब आए और उन्होंने दरिया के सिर पर हाथ फेरकर उनका नाम ‘दरियाशाह’ या ‘दरियादास’ रख दिया। दरिया साहब में पांच वर्ष की उम्र से ही संत के लक्षण दीखने लगे थे। बचपन में विवाह हो जाने के बावजूद, पन्द्रह साल की आयु में दरिया ने वैराग्य स्वीकार कर लिया। 
    संत दरिया साहब, कबीर के विचारों से बहुत प्रभावित थे। वह कहते थे- ‘सोइ कहो जो कहै कबीरा, दरियादास पद पायो हीरा।’ उनकी चिंतन धारा पर सतनामी संप्रदाय, कबीर की ज्ञान धारा और सूफी मत का बहुत प्रभाव पड़ा था। इस कारण उनकी साधना, भगवत चिंतन का मूल आधार थी - प्रेम साधना। उनकी दृष्टि में प्रेमत्व का ज्ञानी ही, परमात्मा की अपार ज्योति का वर्णन कर सकता है। वह कहते थे- ‘सोभा अगम अपार, हंसा बंस सुख वापही।’ कोई ज्ञानी कर विचार, प्रेमतत्व जाके बसे। 
    संत दरिया ही वे संत हैं जिनका प्रसिद्द उद्घोष है, ‘नाम न जाना रे अभागा नाम न जाना रे।’
    सन 1780 में आप इस भूलोक से बैकुंठ को प्रस्थान कर गए।
    दरिया गैर-पढ़े लिखे आदमी थे; अति गरीब घर में पैदा हुए -- धुनिया थे, मुसलमान थे। लेकिन बचपन से एक ही धुन थी कि कैसे प्रभु का रस बरसे, कैसे प्रार्थना पके। बहुत द्वार खटखटाए, न मालूम कितने मौलवियों, न मालूम कितने पंडितों के द्वार पर गए लेकिन सबको छूंछे पाया। वहां बात तो बहुत थी, लेकिन दरिया जो खोज रहे थे, उसका कोई भी पता न था। वहां सिद्धांत बहुत थे, लेकिन दरिया को शास्त्र और सिद्धांत से कोई लेना न था। वे तो उन आंखों की तलाश में थे जो परमात्मा की बन गयी हो। वे तो उस हृदय की खोज में थे, जिसमें परमात्मा का सागर लहराने लगा हो। वे तो उस आदमी की छाया में बैठना चाहते थे जिसके रोएं-रोएं में प्रेम का झरना बह रहा हो।
    सो, बहुत द्वार खटखटाए लेकिन खाली हाथ लौटे। पर एक जगह गुरु से मिलन हो ही गया।

    जो खोजता है वह पा लेता है। देर-अबेर गुरु मिल ही जाता है। जो बैठे रहते हैं उन्हीं को नहीं मिलता है; जो खोज पर निकलते हैं उन्हें मिल ही जाता है। और ख्याल रखो, ठीक द्वार पर आने के पहले बहुत से गलत द्वारों पर खटखटाना ही पड़ता है। यह भी अनिवार्य चरण है खोज का। जब तुम खोज लोगे तब तुम पाओगे कि जो गलत थे उन्होंने भी सहारा दिया। गलत को गलत की तरह पहचान लेना भी तो ठीक को ठीक की तरह पहचानने का कदम बन जाता है।
    तो गए बहुत द्वार-दरवाजों पर। जहां जहां खबर मिली वहां गए।
    एक जगह मिली। और जिसके पास मिली, उस आदमी का क्या नाम था यह भी ठीक ठाक पक्का पता नहीं है। उस आदमी के तन-प्राण ऐसे प्रेम में पगे थे कि लोग उन्हें 'संत प्रेमजी महाराज' ही कहने लगे थे इसलिए उनके ठीक नाम का कोई पता नहीं है।
    क्षण भर भी देर नहीं होती। आंख खोजने वाली हो, आंख खोजी की हो तो जहां भी रोशनी होगी वहां जोड़ बैठ जाएगा।

    गुरु का मिलन तो प्रेम जैसा है। जैसे किसी को देखते ही प्रेम उमड़ आता है। अवश! तुम्हारा कुछ उपाय नहीं है; असहाय हो । कहते हो बस हो गया प्रेम। ऐसी ही गुरु की भी दृष्टि है। यह आखिरी प्रेम है। और सब प्रेम तो संसार में ले आते हैं; यह प्रेम संसार के बाहर ले जाता है। यह प्रेम की पराकाष्ठा है। और सब प्रेम तो अंततः शरीर पर ही उतार लाते हैं; यह प्रेम शरीर के पार ले जाता है। और सारे प्रेम तो स्थूल हैं; यह प्रेम सूक्ष्म का प्रेम है।
    यह 'प्रेमजी महाराज' दादू दयाल के शिष्य थे -- संत दादू के शिष्य थे।
    जैसे ही देखा प्रेमजी महाराज को, कोई कली खिल गई, बंद कली खिल गई।
    एक बार भी जो किसी सद्गुरु के निकट आ गया, अब जन्मों-जन्मों की सारी यात्रा इसी निकटता में ही चलेगी। सद्गुरु रहे कि जाए, देह में रहे कि मुक्त हो जाए, लौटे; कि न लौटे;  लेकिन जो एक बार किसी सद्गुरु से जुड़ गया, यह नाता कुछ ऐसा है कि जन्म-जन्म का है। यह गांठ बंधती है तो फिर खुलती नहीं। यह गांठ खुलनेवाली गांठ नहीं है। जुड़े ही न तो बात अलग लेकिन जुड़ जाए तो फिर जन्मों-जन्मों तक साथ चलता है।

                                                ~ परमगुरु ओशो
    हमारा देश संतो, बुध्दपुरुषों का देश रहा है। पर इतिहास गवाह है कि पुराने काल में करीब-करीब सभी संत, बुद्धपुरुष दूसरे संतों, बुद्धपुरुषों से मिलने नहीं जाया करते थे।
    इस कारण उनके बीच अमृत वर्षा का आनंद शिष्यों को कभी प्राप्त नहीं हो पाता था!
    जिसका अपना अलग ही मज़ा है!!
    भगवान बुद्ध और महावीर ने एक ही सराय में रात गुजारी थी, पर एक दूसरे से नहीं मिले। पर गुरुदेव (सद्गुरु ओशो सिद्धार्थ औलिया जी) ने एक नई परंपरा का आगाज़ किया है; सभी सन्तों, बुध्दपुरुषों, सूफियों के समाधि स्थलों, मज़ारों पर अपनी संगत के साथ जाकर उन्हें अहोभावमयमय श्रद्दांजलि देना और देह में उपस्थित सन्तों से भी मिलन का आनन्द लेना।
    प्रस्तुत आलेख उन्हीं क्षणों का विवरण है, जो ओशोधारा परिवार एवं अन्य धर्मप्राण पाठकों की आकांक्षाओं और प्यास को शायद तृप्त कर पाए, जो चाह कर भी इस ऐतिहासिक यात्रा में सम्मिलित नहीं हो पाए।

    20 फरवरी, 2007 सवेरे के 7 बजे। स्थान गुरुदेव ओशो सिद्धार्थ जी की जन्मभूमि कर्मा ग्राम। नवनिर्मित ओशोधारा सहाजानंद धाम का गेट। ग्रामीण जनसमूह बड़ी संख्या में उपस्थित, जिसमें हर उम्र के पुरुष, महिलाएं, अमीर, गरीब हाथ जोड़े अपने गुरुदेव के दर्शन को उत्सुक खड़े हैं। गहमागहमी तो है, पर अन्य दिनों की तरह उल्लास का शोर नहीं है। सभी के चेहरों पर, विशेषकर आँखों में, गुरु की विदाई का दर्द जैसे बोल रहा हो कि हमें छोड़कर क्यों जा रहे हैं। विगत 9 दिनों से मानो कर्मा की भूमि सजीव हो उठी थी, जब 11 फरवरी को गुरुदेव ओशो सिद्धार्थ जी पूरे 23 वर्षों के बाद यहाँ लौटे थे। हाँ, एक अंतर और परिलक्षित था कि पहले दिन उपस्थित जनसमूह के चेहरे मिलन के हर्ष से प्रदीप्त थे, पर आज विरह की वेदना में मुर्झाए सर झुके हुऐ थे।

    जैसे ही गुरुदेव निकले जनसमुदाय मानो सभी एक साथ ही गुरुदेव का चरण स्पर्श कर लेना चाहते हैं। भीगीं आखों से गुरु की विदाई हुई और कारवां चल पड़ा धरकंधा ग्राम की ओर जो कर्मा से करीब 22 किलो मीटर दूर पूर्णतः ग्रामीण अंचल में अवस्थित है। यह ग्राम अपने समय के महानतम संत दरिया दास (1634-1780 ई.) जी का गाँव है। परमगुरु ओशो ने बिहार प्रांत के इस उपेक्षित अंचल में अवस्थित गुदड़ी में छिपे संत दरिया जैसे हीरे को विश्वविख्यात कर दिया है।
    पक्की सड़क छोड़कर अब हमारा कारवां करीब पाँच किलोमीटर नहर की कच्ची सड़क पर मुड़ गया, पर मुड़ते ही एक बड़ा-सा गढ्ढा मिला, जिसमें से होकर इन गाड़ियों का निकलना असंभव था। सभी निकल कर इधर उधर भागे।

    आश्चर्य कि सामने ही एक वृद्ध कुदाल लेकर बैठा था। वह बड़े प्रेम से बोला कि लीजिए मिट्टी काटकर रोड भर लीजिए। मानो वह वृद्ध इसी काम के लिए वहां बैठा था। संगत ने पाँच मिनट के भीतर ही उस गढ्ढे को भर दिया और कारवां आगे चल पड़ा। लगभग तीन किलोमीटर पहले ही गाड़ियों को रोक देना पड़ा। अब वहाँ से केवल पैदल ही धरकंधा तक की दो किलोमीटर की यात्रा पूरी की जा सकती थी। गुरुदेव गाड़ी से उतरे। उनका मुखमंडल प्रदीप्त था। लगता था गुरुदेव के रोएं-रोएं से मिलन का उल्लास फूट पड़ा था।
    उनके उतरते ही सफेद कपड़ों में लिपटा, पॉव में टूटी चप्पल बाँधे एक दरिया पंथी अधेड़ उम्र साधु ने अपनी आंखों पर से काला चश्मा उतारा और उठकर गुरुदेव को हाथ जोड़े- ‘सतनाम साहेब।’ गुरुदेव ने भी दोनों हाथ जोड़कर कहा -‘सतनाम।’  साधु अत्यंत ही विनम्र थे और गुरुदेव को प्रेमपूर्ण आँखों से निहार रहे थे। उन्होंने कहा कि वे यहाँ बैठे काफी देर से प्रतीक्षा कर रहे थे कि कोई आएगा।
    ओशोधारा संगत का परिचय दे गुरुदेव ने अपने आने का प्रयोजन उस साधु को बताया। साधू ने कहा-‘आज दरिया साहेब के मठ में वार्षिक उत्सव है और मुझे दरिया साहब ने स्वप्न में आदेश दिया कि धरकंधा जाओ। वहां एक परम संत आएंगे। उनका स्वागत करो। मैं आप लोगों के ही इंतजार में बैठा था।’

    मठ की तरफ बढ़ते कदमों के साथ बात भी चल पड़ी गुरुदेव ने असीमित मुस्कान के साथ साधु से पूछा कि अब भी क्या नाम को जानने वाले साधु दरियापंथ में हैं?  साधु ने बहुत विनम्रता से उत्तर दिया - हैं ना।’ उत्तर सुन गुरुदेव पुलकित हुए और एक प्रेम पूर्ण नजर हम सभी पर डाली। उनकी नजरें स्पष्ट शब्दों में बोल रही थी कि नाम का जानकार यह संत इतना विनम्र और निरअहंकारी है कि यह अपने ज्ञान का श्रेय तक लेना उचित नहीं समझता। गुरुदेव ने तत्व की कुछ बातें  साधु को बताई। प्रति उत्तर में साधु ने अपना नाम राजकिशोर दास बताया, और वे गुरुदेव का सान्निध्य पाकर आनंद से भाव विवह्ल हो उठे और उनके मुख से सद्गुरु दरिया साहब के ये वचन फूट पड़े।

    ‘ज्ञानी से ज्ञानी मिले, होए तत्व की बात।
    गदहा से गदहा मिले, उछल के मारे लात।।’

    साधु की विनम्रता ने हम सभी का मन मोह लिया, लगा मानो संत दरिया ने अपना सर्वश्रेष्ठ शिष्य हमारे गुरुदेव की सेवा और अगवानी में भेजा हो।

    गुरुदेव ने पूछा - ‘आप का निवास कहां है?’

    साधु - ‘यहां से लगभग 40 कि.मी. दूर विंध्याचल पर्वत की एक गुफा में।’

    गुरुदेव - ‘दरिया साहब परमात्मा के लिए बेबाहा शब्द का बार-बार प्रयोग करते हैं। इसका क्या मतलब है?’

    साधु - ‘भोजपुरी में बाहा सीमा को कहते हैं। इस तरह बेबाहा का अर्थ हुआ बिना सीमा के, अर्थात असीम।’

    गुरुदेव -‘क्या आपको उस बेबाहा का पता है?’

    साधु - ‘अपने गुरूदेव और आप जैसे संतों की कृपा से यह ज्ञान प्रत्यक्ष हुआ है।’

    गुरुदेव -‘क्या आपको नाम, शब्द, समाधि और सुमिरन का भी ज्ञान है?’

    साधु - ‘गुरूदेव ने इसे भी प्रत्यक्ष किया है।’

    गुरुदेव - ‘फिर आप जंगल की गुफा में क्या कर रहे हैं? आपको सद्गुरू की भूमिका निभाने के लिए संसार में होना चाहिए।’

    साधु - ‘नहीं, वह मेरी क्षमता या भूमिका नहीं है। मेरा सौभाग्य एकांत वास में रहकर सुमिरन और आप जैसे पूरन संतों का दर्शन है, जिन्हें मेरे सद्गुरू भी पूज्य होना समझते हैं।’
    पीले फूलों से भरे खेत लहलहा रहे थे। हवाओं में उन्मत्त झूमते इन फूलों का भी शायद यही कहना था कि संत दरिया साहब के आश्रम में आपका स्वागत है, गुरुवर ओशो सिद्धार्थ जी!
    अंदर आश्रम में काफी भक्त खाना बनाने में व्यस्त थे और अचानक अपने बीच गुरुदेव और उनकी संगत को देखकर हतप्रभ रह गए। जुड़े हाथों से सभी ने सतनाम साहेब का उद्घोष किया और गुरुदेव ने भी हाथ जोड़ सतनाम कहा और एक प्रेमपूर्ण दृष्टि सभी पर डाली। महंत जी ने भी जुड़े हाथों से स्वागत किया।
    साधु राजकिशोर दास जी ने दरिया साहेब की समाधि दिखाई, जहाँ पूरी संगत के साथ गुरुदेव ने अपनी श्रद्धांजलि दी एवं चंद मिनटों का ध्यान कराया। प्रसाद के रूप में संत दरिया साहेब के समय से चले आ रहे चने की घुघुनी का बड़े प्रेम से हम सभी के बीच में वितरण हुआ। महंत जी तो जैसे किंकर्तव्यविमूढ़ थे, स्वयं खड़े होकर अपनी गद्दी पर गुरुदेव ओशो सिद्धार्थ जी को बिठाया।
    आश्रम की हालत देख बड़ी पीड़ा हुई। कि ऐसे महान संत का समाधि स्थल क्या ऐसी टूटी फूटी हालत में होना चाहिए, जिन्होंने कभी समाज को आध्यात्मिक आकाश में इतने ऊँचे उठाया था, शब्द और निर्वाण की बातें बताई थी। गुरुदेव ने भी हालत देख करुणामय शब्दों में उपस्थित साधक समूह को आश्वासन दिया और एक लाख रुपयों के अनुदान की घोषणा की। बाद में इसी अनुदान से आश्रम की टूटी दीवारों की मरम्मत कर दी गई।

    हमारा कारवां पुनः लौटा और बक्सर होते हुए गाजीपुर पहुँचा। रास्ते में गुरुदेव ने इस पूरे क्षेत्र की महिमा बताई और कहा कि यह क्षेत्र सदा से साधकों की पवित्र तपोभूमि रही है। ऋषि विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा के लिए स्वयं राम और लक्ष्मण बक्सर आए थे। फिर कारवां संत गुलाल साहब के गांव भुरकुड़ा के लिए रवाना हो गया...।
             ("बूंद से समंदर तक का सफ़र" से संकलित )
    गुरुदेव ने ओशोधारा में अध्यात्म के सर्वश्रेष्ठ मार्ग 'सहज-योग' को प्रतिपादित किया है, जिसके 3 आयाम हैं - ज्ञान योग, भक्ति योग और कर्म योग। ज्ञान योग का अर्थ है स्वयं को आत्मा जानना और आनंद में जीना। भक्ति योग का अर्थ है परमात्मा को जानना और उसके प्रेम में जीना। कर्म योग का अर्थ है आत्मा और परमात्मा से जुड़कर संसार का नित्य मंगल करना।

    हम तो हीरों की टकसाल लिए बैठे हैं
    लोग दो चार रतन लेकर ही भाग गए
    पास जो रुके रहे आशिक़ी में ‘मुर्शिद’ के 
    जन्मों जन्मों के लिए उनके भाग जाग गए

    गुरूदेव ने एक रहस्य की बात बताई है :- बैकुंठ में आत्मानन्द है पर ब्रह्मानन्द नहीं है, क्योंकि वहां भक्ति नहीं है।
    भक्ति सिर्फ मनुष्य शरीर से ही सम्भव है।
    सुमिरन सिर्फ सांसों के साथ ही किया जा सकता है।
    सन्त सुमिरन का आनन्द लेने के लिए, सांस-सांस आत्मानन्द + ब्रह्मानन्द  (सदानन्द) का आनन्द लेने के लिए ही पृथ्वी पर बार-बार आते हैं।
    प्रभु के सच्चे और निष्ठावान साधकों! का ओशोधारा में स्वागत है कि वे ध्यान-समाधि से चरैवेति तक का संकल्प लेकर गुरुदेव के साथ अपने परमजीवन की यात्रा का शुभारंभ करें।

    हृदय में गुरूदेव और हनुमत स्वरूप सिद्धि के साथ गोविंद का सुमिरन!
    गुरूदेव ने आध्यात्मिक जगत में महाक्रान्ति ला दी है; ओशोधारा के साधकों के जीवन के केंद्र में गुरु हैं, सत-चित-आनन्द के आकाश में उड़ान है और सत्यम-शिवम-सुंदरम से सुशोभित महिमापूर्ण  जीवन है!!

    गुरुदेव द्वारा प्रदत्त सुमिरन+हनुमत स्वरूप सिद्धि अति उच्चकोटि की साधना है।
    हनुमान स्वयं इसी साधना में रहते हैं, वे सदैव भगवान श्रीराम के स्वरूप के साथ कण-कण में व्याप्त निराकार राम का सुमिरन करते हैं।

    गुरुदेव ने अब सभी निष्ठावान साधकों को यह दुर्लभ साधना प्रदान कर आध्यात्मिक जगत में स्वर्णिम युग की शुरूआत कर दी है।

    सदा स्मरण रखें:-
    गुरु+गोविंद+शिष्य यह सिनर्जी ही सारे अध्यात्म का सार है!!
    और यह सतत चलता रहेगा, चरैवेति.. चरैवेति...।
    विदेशेषु मान्यः स्वदेशेषु धन्यः, सदाचारवृत्तेषु मत्तो न चान्यः।
    मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे, ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्।।

    - जिन्हें विदेशों में समादर मिलता हो, अपने देश में जिनका नित्य जय-जयकार से स्वागत किया जाता हो और जो सदाचार पालन में भी अनन्य स्थान रखता हो, यदि उनका भी मन गुरु के श्री चरणों के प्रति आसक्त न हो तो सदगुणों से क्या लाभ?

                    नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां
                    नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां

                                   ~ जागरण सिद्धार्थ     
                  
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    3 comments:

    1. ॐ परमतत्वाय नारायणाय
      गुरुभ्यो नमः
      अपने सौभाग्य पर इतराने का समय है हम ओशोधारा के लोग वास्तव मे कितने सौभाग्यशाली हैं कि हमे गुरुदेव के धरती प्रवास के समय जन्म मिला ,नामदान मिला ।
      अहोभाव प्यारे
      गुरुवर लाखों प्रणाम ।।

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