गुरु कहे सो कीजै, करै सो नाहीं
चरनदास की सीख यह रख ले उर मांहि।।
बड़ा अनूठा वचन है और एकदम से समझ में न पड़े ऐसा वचन है। समझ पड़ जाए तो बड़ी संपदा हाथ लग गई।
‘गुरु कहै सो कीजिए करै सो कीजै नाहिं।’
उलटा लगता है। साधारणत तो हम सोचेंगे गुरु जैसा करे वैसा करो। लेकिन चरणदास कहते है गुरु जो कहे वैसा करो जो करे वैसा नहीं। क्यों! क्योंकि गुरु जो कर रहा है वह तो उसकी आत्मदशा है। गुरु का कृत्य तो उस पार का कृत्य है।
गुरु जो बोलता है वह तुमसे बोलता है। इसलिए तुम्हारा ख्याल रख कर बोलता है। गुरु जो करता है वह अपने स्वभाव से करता है अपनी स्थिति से करता है अपनी समाधि से करता है। गुरु का कृत्य उसके भीतर से आता है। गुरु के शब्द तुम्हारे प्रति अनुकंपा से आते हैं। इस भेद को खूब समझ लेना।
तो गुरु के शब्द ही तुम्हारे लिए सार्थक है--गुरु का कृत्य नहीं। हां, शब्दोें को मान कर चलते रहे तो एक दिन गुरु के कृत्य भी तुममें घटित होंगे। वह अपूर्व घड़ी भी आएगी वैसा सूरज तुम्हारे भीतर भी उगेगा। वैसे मेघ तुम्हारे भीतर भी घिरेंगे। वैसा मोर तुम्हारे भीतर भी नाचेगा। वैसी वर्षा निश्चित होनी है।
- लेकिन अगर तुमने पहले से ही गलत कदम उठाया गलत कदम यानी गुरु ने जैसा किया वैसा किया--तो चूक जाओगे।
और आमतौर से आदमी वही करता है। आदमी कहता है कि गुरु जैसा करता है वैसा ही हम करें तो गुरु जैसे हो जायेंगे। कभी न हो पाओगे। तुम्हारा कृत्य ही तुम्हारे मार्ग में बाधा बन जाएगा।
- यह भी मन में विचार उठते हैं बार-बार कि मुझसे ऐसा कहा लेकिन खुद तो ऐसा करते हैं तो मैं क्यों मानूं!
तथाकथित विचारशील लोग जो बहुत विचारशील नहीं हैं ज्यादा से ज्यादा थोड़े तर्कनिष्ठ हैं उन सब ने यही समझाया है कि गुरु का वक्तव्य और व्यक्तित्व एक सा होगा। यह बात गलत है। गुरु का वक्तव्य और व्यक्तित्व अगर एक सा होगा तो वह व्यक्ति गुरु हो ही नहीं सकता। वह किसी के काम का नहीं होगा।
गुरु का व्यक्तित्व एक होगा और उसके वक्तव्य तो बहुत तरह के होंगे। क्योंकि जितने लोगों को वक्तव्य देगा उतने तरह के होंगे।
सदा ध्यान में रखो क्या कहा गया है। उसी को करो उतना ही करो। और जो तुम से कहा गया है उसे तो बिल्कुल बहुमूल्य सम्पदा की तरह सुरक्षित रखना।
हर आदमी की अलग दशा है।
याद रखना! इतने दिन तक चूकते रहे चलेगा। लेकिन गुरु मिला और फिर चूके फिर नहीं चलेगा। फिर तो निश्चित ही तुम अपराधी हो। फिर तो तुम बहाने ही कर रहे थे इतने दिन से कि गुरु नहीं है इसलिए कैसे जाएं उस पार। कोई नाव का खेवैया नहीं, कोई पतावर को सम्हालने वाला नहीं कैसे जाएं उस पार तो इतने दिन तक तुम जो बाते कर रहे थे--कैसे जाएं उस पार वे सब झूठी मालूम पड़ती है। तुम जाना नहीं चाहते थे। अब खेवैया मिला अब नाव द्वार पर खड़ी है पतवार तैयार है बस तुम्हारे बैठने की देर है कि नाव छुटे लेकिन तुम नाव में बैठते नहीं।
- गुरु का मिलन रोज-रोज की बात नहीं। हो सकता है एक बार मिलना हो गया गुरु से फिर जन्मों-जन्मों तक न हो।
इसलिए अबकी अवसर मत खोना!
- प्रत्येक व्यक्ति को गुरु से अपने लिए आदेश लेना चाहिए। उसके सार्वलौकिक वक्तव्य पृष्ठभूमि का काम करेंगे। तुम्हारी समझ को निखारेंगे साफ करेंगे। लेकिन उसके निजी वक्तव्य तुम्हें गतिमान करेंगे तुम्हारी साधना के सोपान बनेंगे।
~ परमगुरु ओशो
बहुत से निगुरे और गुरुद्रोही मित्र आरोप लगाते हैं कि गुरुदेव (सद्गुरु सिद्धार्थ औलिया जी) ओशो से अलग हट कर कार्य कर रहे हैं और उन्हें ओशो से प्रेम नही है।
पर उन्हें मालूम नहीं इस पृथ्वी पर गुरुदेव से ज्यादा ओशो से प्रेम करने वाला दूसरा कोई, है ही नहीं। निगुरे और गुरुद्रोही चाहे जितना भी प्रदर्शन करें ओशो से प्रेम करने का, वो सिर्फ दिखावा है। वे अपने को ही धोखा दे रहे हैं।
गुरु से प्रेम की एक ही कसौटी है जो सन्त शिरोमणि चरण दास जी ने दी है :-
"गुरु कहे सो कीजै , करे सो नाहीं।
चरणदास की सीख यह , रख ले उर माहिं।।"
गुरुदेव ने इस सीख को अपने हृदय में धारण किया है, वे वही कर रहे हैं, जो परम गुरु ओशो ने आज्ञा दी है, जो उन्होंने कहा है। और विरोध करने वाले, दुर्गन्ध फैलाने वाले मित्र वह नही कर रहे हैं जो ओशो कह रहे हैं। वे वह कर रहे है, जो ओशो स्वयं कर रहे थे।
लकीर के फकीर हैं वे सब अपने गुरु की सम्पत्ति में नया कुछ तो नहीं जोड़ पाए। बस उनकी सम्पत्ति को मूढ़ता में उड़ा रहे हैं। और जो उनकी सम्पत्ति को बढ़ा रहें है, उनका विरोध कर रहे हैं। उनके इस कृत्य में कोई खूबी नही है। इसे मूढ़ से मूढ़ व्यक्ति भी कर सकता है.. वस्तुतः मूढ़ ही ऐसा करते है।
गुरुदेव कहते हैं :- "संत जो कहता है, हम उसे कहां सुनते हैं? बुद्ध ने करुणा की बात कही थी, लेकिन लोग उन्हें सुनकर मांसाहारी हो गए। मोहम्मद ने प्रेम की बात कही थी, लेकिन लोग उन्हें सुनकर जिहादी हो गए । ओशो ने साक्षी की बात कही थी, लेकिन लोग उन्हें सुनकर स्वार्थी, सम्वेदनहीन और ख़ुदगर्ज़ हो गए।"
गुरुदेव का आध्यात्मिक स्तर अति उच्च है। वे चाहते तो अलग धारा चला सकते थे। पर उन्होंने अपने गुरु के स्वप्न को विस्तार देने का निर्णय लिया। क्योंकि गुरुदेव, गुरु के साथ-साथ एक सदशिष्य भी हैं।
और सदशिष्य के सारे जीवन का चिंतन, सारा क्रियाकलाप केवल-केवल गुरुमय ही होता है। उनका एक ही उद्देश्य होता है, कि कैसे अपने गुरु की सम्पत्ति को और-और बढ़ाया जाए। ऐसा चिंतन, ऐसा संकल्प केवल सदशिष्य ही कर सकते हैं।
सम्राटों के सम्राट परमगुरु ओशो जिन्होंने अध्यात्म केे अकूत खजाने दिए, उसमें और कुछ जोड़ना!! अचम्भा है!! जरा चिंतन करे, मनन करे.. क्या यह कोई सामान्य चेतना कर सकती है!!!
ऐसी ही विलक्षण चेतना के धनी है हमारे गुरुदेव। जिन्होंने अपने गुरु के स्वप्न को अपना स्वप्न बना लिया। और निरंतर अध्यात्म के नए-नए रत्नों को उनके खजाने में जोड़ते जा रहे हैं। आज परमगुरु ओशो भी गुरुदेव पर नाज़ कर रहे होंगें।
हम शिष्यों को अपने गुरुदेव से सीखना चाहिए की शिष्यता क्या होती है। और अब हम सभी शिष्यों का कर्तव्य है कि अपने गुरुदेव के कार्य को और-और आगे बढ़ाएं, अपनी-अपनी प्रतिभा अनुसार। क्योंकि शिष्य गुरु का ही विस्तार होता है, गुरु शिष्यों के माध्यम से ही कार्य करते हैं। और वे शिष्य सौभाग्यशाली है जो गुरुसेवा में लगे है।
गुरुसेवा का अर्थ है, गुरु का स्वप्न अपना स्वप्न बना लेना, और गुरु के अंग-षंग होने का भी यही राज है। जिनके भी भीतर गुरु-शिष्य परम्परा के बीज हैं, जिन्हें प्रभु की प्यास है। उन सभी मित्रों को प्रेम भरा निमन्त्रण है, कि ओशोधारा में आएं और "ध्यान-समाधि" कार्यक्रम के माध्यम से इस महारास के भागी बनें, और परमजीवन की यात्रा में प्रवेश कर, अपने सौभाग्य पर इतराएं!!!
गुरुदेव ने ओशोधारा में अध्यात्म के सर्वश्रेष्ठ मार्ग 'सहज-योग' को प्रतिपादित किया है, जिसके 3 आयाम हैं - ज्ञान योग, भक्ति योग और कर्म योग। ज्ञान योग का अर्थ है स्वयं को आत्मा जानना और आनंद में जीना। भक्ति योग का अर्थ है परमात्मा को जानना और उसके प्रेम में जीना। कर्म योग का अर्थ है आत्मा और परमात्मा से जुड़कर संसार का नित्य मंगल करना।
गुरूदेव ने एक रहस्य की बात बताई है :- बैकुंठ में आत्मानन्द है पर ब्रह्मानन्द नहीं है, क्योंकि वहां भक्ति नहीं है।
भक्ति सिर्फ मनुष्य शरीर से ही सम्भव है।
सुमिरन सिर्फ सांसों के साथ ही किया जा सकता है।
सन्त सुमिरन का आनन्द लेने के लिए, सांस-सांस आत्मानन्द + ब्रह्मानन्द (सदानन्द) का आनन्द लेने के लिए ही पृथ्वी पर बार-बार आते हैं।
महाक्षीण दीनः सदा जाड्य वक्ता।
विपत्ति प्रविष्ट सदाहं भजामि ;
गुरुत्वं शरण्यं गुरुत्वं शरण्यं।।
नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां
नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां
~ जागरण सिद्धार्थ
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pranam sadguru dev.
ReplyDeleteॐ परमतत्वाय नारायणाय गुरुभ्यो नमः
ReplyDeleteअहोभाव
नमन गुरुदेव के श्री चरणों में
⚘ Jai Sadgurudev ⚘
ReplyDelete⚘ ⚘
🙏
जय गुरुदेव ।
ReplyDeleteजय ओशो ।
जय ओशो धारा ।
🙏🙏🌹🌹🙏🙏🌹🌹🙏🙏
ॐ सद्गुरु गोविन्दाय परमतत्वाय नारायणाय नमः
ReplyDelete🌷🌷🌷🌷🌷