गुरुदेव के संस्मरण ~ भगवान नारायण की अद्वैत बरसा
बद्रीनाथ मन्दिर में भगवान विष्णु के एक रूप "बद्रीनारायण" की पूजा होती है। यहाँ उनकी 1 मीटर (3.3 फीट) लंबी शालिग्राम से निर्मित मूर्ति है जिसके बारे में मान्यता है कि इसे आदि शंकराचार्य ने 8वीं शताब्दी में समीपस्थ नारद कुण्ड से निकालकर स्थापित किया था। इस मूर्ति को कई हिंदुओं द्वारा विष्णु के आठ स्वयं व्यक्त क्षेत्रों (स्वयं प्रकट हुई प्रतिमाओं) में से एक माना जाता है।
बद्रीनाथ में भगवान नारायण की गुरुदेव पर अद्वैत की बारिश :- " कुछ ही देर बाद मंदिर में भीतर जाने का बुलावा आ गया। हम सब भीतर गए। मन में भाव उठा कि नारद जी जिस नारायण को पूजते थे , जिनका स्मरण करते थे, जिनके सुमिरन में जीते थे, वे नारायण किस रूप में हैं? कथाओं में तो वर्णन है कि विष्णु के अवतार हैं नारायण। यहां उन्होंने तपस्या की थी बालक रूप में। शिव जी पहले यहां विद्यमान रहते थे। उन्होंने शिव जी से कहा कि हे महाराज! मुझे यह जगह बहुत पसंद आ गई है। आप अपने लिये कोई और जगह ढूंढ़ लो। यह तो हमने कहानियों में सुना था। ऐसे ही हमारे मन में आया कि नारायण यहां किस रूप में उपस्थित होंगे?
और उसके बाद आंखें बंद हुईं, और लगा जैसे नारायण प्रवचन कर रहे हैं- " मैं अद्वैत हूं। जो तुम यह पिण्डी देख रहे हो, इसमें भी मैं ही हूं। तुम जो आकाश देख रहे हो, यह भी मैं ही हूं। ये जो दो पुजारी हैं, इनमें भी मैं ही हूं। यह जो दीपक जल रहा है, उसकी ज्योति भी मैं ही हूं। क्षुद्र भी मैं हूं और विराट भी मैं ही हूं। हर मूरत मे मैं ही हूं और हर अमूरत में भी मैं ही हूं। हर रूप में मैं हूं, और हर अरूप में मैं ही हूं। अलकनंदा में मैं ही हूं, तुम में भी मैं ही हूं, तुम्हारे गुरु में भी मैं ही हूं। तुम्हारे शिष्यों में भी मैं ही हूं। यह जो सृष्टि का सारा खेल चल रहा है, इसमें मेरा ही रूप है। और जिस महर्षि नारद के तुमने दर्शन किये, उनमें भी मैं ही हूं। चरण मैं ही हूं, और जो चरण छू रहा है, उसमें भी मैं ही हूं। तू भी मैं ही हूं और मैं भी तू ही है। "
मानो काव्य की सुंदर पंक्तियां बरस रही हैं। तभी मैंने देखा कि आरती समाप्त हो रही है और पूजारी उन फूलों को लोगों को प्रदान कर रहे थे। तब मेरे मन में एक ख्याल आया कि नारायण तेरे दर्शन तो हो ही गये, लेकिन तेरी कृपा से अगर एक और प्रमाण मिल जाए, तो हम और भी आश्वस्त हो जाएंगे। और प्रमाण यह होगा कि यह पुजारी अपने हाथों से माला हमारी गर्दन में अभी डाल दे। तत्क्षण हम मान लेंगे कि आप की कृपा भी बरसी। और मैं कह ही रहा था कि पुजारी ने माला मेरे गले में डाल दी।
जब वहां से हम निकले, तो उसके बाद ऐसा लगा कि जैसे पूरा आकाश देवताओ से, दिव्य संतों से भरा हुआ है, और फूलों की बारिस हो रही है चारों तरफ। अलकनंदा नदी बह रही थी और वह अद्वैत का जो प्रसंग था वह चलता ही रहा - " ये जो फूल बरस रहे हैं, यह भी मैं ही हूं। ये जो दुकाने लगीं हैं, इनमें बैठे सभी लोगों में मैं ही हूं। और जो ग्राहक खरीद रहे हैं, ये सब मैं ही हूं। विक्रेता भी मैं ही हूं और ग्राहक भी मैं ही हूं।" अद्वैत का इतना सुंदर चित्रण सुनकर मैं अभिभूत हो गया।
गुरुदेव कहते हैं :- "आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक तीर्थ के बारे में एक बड़ा संभ्रम आध्यात्मिक जगत में है। वास्तव में जितने भी तीर्थ हैं उनका महत्त्व इसलिए है कि ये तीर्थ किसी न किसी संत से जुड़े हुए हैं। इस बात को ठीक से समझ लेना कि ये सारे तीर्थ इसलिए बने हैं क्योंकि यहां पर कोई तीर्थंकर हुआ। किसी ने घाट बनाया, किसी ने उस जगह पर तपस्या की और किसी ने वहां जाकर परम ज्ञान प्राप्त किया। इसलिए तीर्थों का इतना मूल्य है। दूसरी बात जो Past life Regression के प्रयोग पूरी दुनिया में हुए और ओशोधारा में भी हो रहे हैं उससे भी एक बात का पता चला है कि जो भी संत धरती पर आये, उनकी उपस्थिति, उनका वजूद आज भी मौजूद है। अगर वजूद है तो उनसे सम्पर्क भी साधा जा सकता है।
अगर आप ओशोधारा में हो तो निश्चित्त रूप से अध्यात्म में पहली बार आपके कदम नहीं उठे हैं। आपके पास आपकी पृष्ठभूमि है। विगत काल में आप किन्हीं महापुरुषों के सम्पर्क में रहे होंगे। चाहे वे महापुरुष शंकराचार्य हों, नानक देव जी, बुद्ध, कबीर या देवर्षि नारद हों। आप निश्चित्त ही उन महापुरुषों के सम्पर्क में कहीं न कहीं रहे हैं।
महापुरुषों से सम्पर्क साधने के लिए आप स्वयं गोविंद से जुड़ो, सुमिरन में चले जाओ। इस प्रयोग में उतरने के लिए कम से कम आधा घंटा चाहिए। वहां शॉर्ट कट (सरल रास्ता) नहीं है।
प्रथम चरण दस मिनट आप ओंकार को सुनें।
दूसरा चरण आप जिस संत से भी जुड़ना चाहते हैं, वैसा अभिप्राय करें। निश्चित्त रूप से आप शंकराचार्य जी की समाधि पर आये तो गुरु नानक देव का आह्वान तो करोगे नहीं। आप कहीं भी गये हो उसकी उपस्थिति के लिए आह्वान करोगे।
तीसरा चरण बहुत ही महत्त्वपूर्ण है- अब आप शून्य हो जाओ। शून्य होने की विधि क्या है?आप निराकार से जुड़ जाओ और निराकार में डूबते-डूबते समाधि में चले जाओ। शून्य में समाधिस्थ हो जाओ। और फिर चौथा चरण स्वयं घटित होगा और संत वहां प्रगट होंगें। आप यह अनुमान नहीं लगा सकते कि वे अपनी उपस्थिति कैसे दिखायेंगे। अगर उस वक्त आपको लगता है कि और भी किसी प्रमाण की जरूरत है, कहीं ऐसा तो नहीं कि यह मेरे मन की ही कल्पना है, तो फिर आप एक प्रमाण और रख सकते हैं।"
(नोट :- गुरुदेव के द्वारा खोजी गयी इस विधि का हम कुछ मित्रों ने कई महीने गहन प्रयोग किया है। और हमारे कैमरे में आश्चर्यचकित कर देने वाली सन्तों, दिव्य आत्माओं की उपस्थिति दर्ज हुई है, जो इस विधि की प्रामाणिकता को सिद्ध करती है।)
गुरुदेव का बहुत ही महत्वपूर्ण और सारभूत सन्देश :- " एक बात और मैं कहना चाहूंगा कि किसी भी संत के दर्शन हो जाएं, किसी भी दरगाह पर आप चले जाओ इससे बात बनने वाली नहीं है। आपका सुमिरन और आपकी समाधि ही आपका आध्यात्मिक विकास कर सकती है। संतों के दर्शन से आपने कुछ सुमिरन किया, कुछ समाधि की, कुछ प्रेरणा जगी आपके भीतर, तो निश्चित्त ही सब कुछ हो जाएगा, और हो रहा है।
ठीक ऐसे ही तीर्थों में संत दर्शन हमको प्रेरणा के रूप में लेना है। उनसे आशीष लेने हैं, जैसे कि हम कहीं जाते हैं यात्रा पर, तो बड़ों का आशीष लेते हैं, और अपना पुरुषार्थ करते हैं।
तो संतो के आशीष तो लेने ही हैं। दुआ और दवा दोनों चाहिएं। अकेली दुआ से काम न चलेगा और अकेली दवा से भी न चलेगा। दुआ और दवा दोनों साथ-साथ चाहिएं।
अगर दवा के साथ-साथ दुवा भी मिलती रहे तो सोने पर सुहागा हो जाता है, और इस बात को हमें समझना है।
कभी-कभी हम कुछ जाने बगैर मंदिरों, मस्जिदों, देवालयों की आलोचना करने लगते हैं कि इनमें क्या रखा है? कभी भी बिना जाने किसी की आलोचना मत करो। पहले जानो फिर मानो।
तुम्हारा सद्गुरु (जीवित गुरु) तुम्हारा सुमिरन, तुम्हारी साधना, तुम्हारी समाधि ये तुम्हारे जीवन के केंद्र में हों और परिधि पर निश्चित्त ही महापुरुषों के, संतों के आशीर्वाद हों तो जीवन सार्थक हो जाता है। जीवन में फूल खिल जाते हैं। "
~ सद्गुरु ओशो सिद्धार्थ औलिया जी
ओशोधारा में गुरुदेव अध्यात्म के सारे खजाने, सारे रहस्य प्रदान करते जा रहे हैं...
सदा सुमिरन में रहो और साथ ही साथ सन्तों, दिव्यात्माओं के आशीष, देवताओं से मित्रता और उनका सहयोग भी प्राप्त करो!
औऱ क्या चाहिए!!
आध्यात्मिक जगत की यह 'मौज ही मौज हमार' की बेला है!!!
गुरुदेव ने ओशोधारा में अध्यात्म के सर्वश्रेष्ठ मार्ग 'सहज-योग' को प्रतिपादित किया है, जिसके 3 आयाम हैं - ज्ञान योग, भक्ति योग और कर्म योग। ज्ञान योग का अर्थ है स्वयं को आत्मा जानना और आनंद में जीना। भक्ति योग का अर्थ है परमात्मा को जानना और उसके प्रेम में जीना। कर्म योग का अर्थ है आत्मा और परमात्मा से जुड़कर संसार का नित्य मंगल करना।
सभी प्रभु के दीवानों को प्रेम-निमन्त्रण है, कि आध्यात्मिक जगत की इस परमपावन बेला को इस जन्म में मत चूकें!
ओशोधारा में ध्यान-समाधि से चरैवेति तक संकल्प लेकर गुरुदेव के साथ अपने परम सौभाग्य की, परमजीवन की यात्रा का शुभारंभ करें।
गुरूदेव ने एक रहस्य की बात बताई है :- बैकुंठ में आत्मानन्द है पर ब्रह्मानन्द नहीं है, क्योंकि वहां भक्ति नहीं है।
भक्ति सिर्फ मनुष्य शरीर से ही सम्भव है।
सुमिरन सिर्फ सांसों के साथ ही किया जा सकता है।
सन्त सुमिरन का आनन्द लेने के लिए, सांस-सांस आत्मानन्द + ब्रह्मानन्द (सदानन्द) का आनन्द लेने के लिए ही पृथ्वी पर बार-बार आते हैं।
हृदय में गुरूदेव और हनुमत स्वरूप सिद्धि के साथ गोविंद का सुमिरन!
तीन लोक न पाइये, अरु इकइस ब्रह्मंड।।
- अर्थात, सात द्वीप, नौ खण्ड, तीन लोक, इक्कीस ब्रहाण्डों में सद्गुरु के समान हितकारी कोई नहीं है।
नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां
नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां
~ जागरण सिद्धार्थ
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Jai Narayan🙏 Jai Sadguru🙏
ReplyDelete⚘ JAI SADGURUDEV ⚘
ReplyDelete⚘ JAI OSHODHARA⚘
🙏
ॐ परमतत्वाय नारायणाय
ReplyDeleteगुरुभ्यो नमः
अद्वैत स्वरूप में विद्यमान परमात्मा के चरणों मे बार बार
नमन ..अहोभाव
जय गुरुदेव ।
ReplyDeleteजय नारायण ।
जय ओशो धारा ।
Naman Ahobhav...
ReplyDeleteओम् श्री गुरुवे नमः
ReplyDeleteOsho naman
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