गुरुदेव के संस्मरण ~ परमहंस स्वामी सत्यानन्द सरस्वती
18 वर्ष में उन्होने घर छोड़ दिया, 19 वर्ष की आयु में उन्हें अपने गुरु शिवानन्द सरस्वती के दर्शन हुए। 1947 में उन्हें गुरु ने परमहंस सन्यास में दीक्षित किया। उन्होंने 12 साल गुरु की सेवा की। उसके बाद वे परिव्राजक के रूप में घूमते रहे - भारत, अफ़ग़ानिस्तान, बर्मा, नेपाल एवम श्रीलंका में। इस दौरान उन्होंने यौगिक तकनीकों को प्रतिपादित तथा परिष्कृत किया।
योग की अति प्राचीन पद्धति को विज्ञान के सम्मत और इसके परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने की आवश्यकता का अनुभव होने पर उन्होंने 1956 में अंतर्राष्ट्रीय योग मित्र मण्डल तथा 1963 में बिहार योग विद्यालय की स्थापना की। इसके बाद विदेशों और स्वदेश में कई यौगिक भ्रमण तथा प्रवचन किये।
उन्होंने 80 से भी अधिक पुस्तकों की रचना की जिसमें से 'आसन प्राणायाम मुद्राबन्ध' नामक पुस्तक विश्वप्रसिद्ध है।
1988 में सब त्याग कर सन्यास ले लिया। 1989 में उन्हें रिखिया (झारखंड में देवघर के निकट) आकर आसपास के लोगों की मदद करने का दैवीय आदेश आया। यहाँ उन्होंने एकान्तवास करते हुए उच्च वैदिक साधनाएँ कीं। 5 दिसम्बर 2009 की मध्यरात्रि में अपने शिष्यों की उपस्थिति में वे महा समाधि में लीन हो गए।
गुरुदेव (सद्गुरु सिद्धार्थ औलिया जी) से उनकी मुलाकात 13 जनवरी, 1971 में हुई, जब गुरुदेव ने उनके सत्संग को भारतीय खनि विद्यापीठ, धनबाद के ओडीटोरियम में संचालित किया। गुरुदेव हठ योग पर उनके ज्ञान से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने स्वामीजी को अपने घर चलने का निमंत्रण दिया। जिसे स्वामी जी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया।
गुरुदेव की चौथी संतान के रूप में पुत्र पंकज का जन्म 7 जनवरी को हुआ था। स्वामी जी ने उसे बहुत प्यार दिया और साधना पथ पर चलने का आशीष भी।
गुरुदेव ने 18 जनवरी, 1971 को स्वामीजी से हठ योग में दीक्षा ले ली और उनके सान्निध्य में योग की साधना करने लगे। स्वामी जी के उत्तराधिकारी स्वामी निरंजन ने भी उसी दिन स्वामी जी से दीक्षा ली।
हठ योग के विभिन्न आयाम गुरुदेव ने उनकी छत्रछाया में सीखे।
इस बीच कई बार स्वामीजी से उनका मिलना हुआ।
1974 तक गुरुदेव ने उनके निर्देशन में हठ योग की साधना की। स्वामीजी ने स्पष्ट कहा था कि साधना के बाद 15 मिनट शवासन में लेटना जरूरी है, किंतु गुरुदेव इसकी उपेक्षा करते रहे। और इस भयंकर भूल के कारण गुरुदेव बहुत बीमार पड़ गए।
डाक्टर ने बताया कि उन्हें इंटर्मिटेंट पॉर्फिरिया हो गया है और इस धरती पर उनका समय अब कम है। डाक्टर के अनुसार उस समय इसका कोई इलाज नहीं था।
एक हताशा ने पूरे परिवार को घेर लिया। कई जगह इलाज करवाने की कोशिश की, लेकिन कुछ बात नही बन पा रही थी। एक गहन विषाद ने गुरुदेव को घेर लिया। अभी तो जीवन की मंजिल पर कदम ही रखा था, अभी तो कोई बात बनी ही न थी, कि जाने का समय आ गया। 14 नवम्बर 1974 दीपावली की शाम का धुंधलका अभी छाने ही लगा था। दूर कहीं क्षितिज के पार आसमान में डूबता हुआ सूरज आसमान के कैनवास पर नीला, नारंगी कई रंग बिखेरता हुआ अपने अप्रतिम सौन्दर्य को दरसा रहा था।
जैसे जैसे सूरज डूबता रहा जा रहा था, गुरुदेव के अर्न्तमन के आकाश में भी जैसे कोई तारा डूबता जा रहा था।
घर के बाहर कुर्सी पर बैठे गुरुदेव अपने बच्चों को फुलझड़ी से दीवाली मनाते हुए देख रहे थे। जैसे जैसे शाम ढल रही थी, पक्षी भी अपने घर जाने के लिए आतुर थे।
यह सब निहारते हुए भी गुरुदेव कहीं और ही गुम थे, कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। मन ही मन गुरुदेव ने अपने आपसे कहा -‘ दीवाली अगले साल फिर आयेगी, ऐसे ही मेरे बच्चे दीवाली का पर्व मनाएंगे, ऐसे ही यह ढलता सूरज आसमान पर अपनी लालिमा बिखेरेगा, ऐसे ही आकाश के फैलाव में यह पक्षी गीत गाएंगे, यह धरती ऐसे ही हरे भरे पेड़ों से लदकर आह्लादित होगी, लेकिन मैं यह सब देखने के लिए तब नहीं होऊंगा, मेरी आँखें अगले साल यह खूबसूरत नज़ारा नहीं देख पाएंगी।’ गुरुदेव को यह धरती पहली बार इतनी सुन्दर लगी।
एक गहन उदासी और विषाद के बादल गुरुदेव के अर्न्तमन के आकाश पर लहरा गए। मन ही मन गुरुदेव ने अपने आपसे वादा किया कि अगर उन्हें नया जीवन मिला, अगर वह इस बीमारी से बच गए, तो वह इसे पहले जैसे नष्ट नहीं करेंगे। अपनी ज़िन्दगी का सार्थक उपयोग करेंगे। यह मन ही मन दोहराते हुए गुरुदेव खो गए। एक दृढ़ संकल्प ने उनके भीतर जन्म लिया था। जीवन को सार्थकता से जीने की प्यास उनके भीतर हिलोरें लेने लगी थी। 2-3 दिन बाद गुरुदेव के पिता जी उनसे मिलने आए, सम्भवतः सबके अनुसार यह उनकी आखिरी मुलाकात थी।
विवश पिता ने आतुर होकर पूछा -‘ज़िन्दगी के जिस मुकाम पर तुम खड़े हो, क्या मैं तुम्हारे लिए कुछ कर सकता हूँ?’
गुरुदेव ने अपने पिता से पूछा - ‘ क्या आपके पास मेरी जन्म कुण्डली हैं?’
पिता जी ने पूछा -‘जन्म कुण्डली किस लिए चाहिए?’
गुरुदेव ने कहा-‘ मैं जानना चाहता हूँ कि क्या ज्योतिष मृत्यु जैसी घटना की भविष्यवाणी कर सकता हैं?’
पिता जी ने कहा -‘अभी तो मेरे पास वह कुण्डली नहीं हैं, लेकिन तुम्हारे ननिहाल में जिस ज्योतिषी ने तुम्हारी कुण्डली बनायी थी, मैं उनके पास जाकर तुम्हारी कुण्डली के बारे में पता करूँगा।’
पिता जी अगले ही दिन ज्यातिषी के गाँव गए। ज्योतिषी तब तक मृत्यु को प्राप्त हो चुके थे। वहाँ उनके पुत्र थे।
पिता जी ने उनसे गुरुदेव की कुण्डली ढूंढने का अनुरोध किया।
ढूंढने पर वह कुण्डली उन्हें मिल गई। कुंडली देखकर ज्योतिषी पुत्र बोले -‘ओह तो यही वह कुण्डली हैं? पिता जी अक्सर इस कुण्डली के बारे में बात किया करते थे।’
गुरुदेव के पिता जी ने पूछा -‘ इस कुण्डली में इतना खास क्या है?
ज्योतिषी पुत्र ने जवाब दिया -‘इस कुण्डली में अल्प मृत्यु योग है। इस व्यक्ति को 32 साल की उम्र में मृत्यु का सामना करना पड़ेगा।
लेकिन वह बच सकते हैं, अगर 7 दिन तक महामृत्युंजय मंत्र का जाप किया जाए।’
थोड़ी देर के बाद उन्होंने पूछा -‘क्या वह आत्मज्ञान को प्राप्त हो चुके हैं?’
पिता जी ने कहा -‘जहाँ तक मैं जानता हूँ, वह अभी तक आत्मज्ञान को प्राप्त नहीं हुए हैं।’ ज्योतिषी पुत्र बोले -‘तब घबराने की कोई बात नहीं। कुंडली में पिताजी ने लिखा है कि वे दिव्य दृष्टि को निश्चित प्राप्त करेंगे। अतः वे बिना आत्म ज्ञान को प्राप्त हुए इस धरती से विदा नहीं होंगे।’
पिता जी ने राहत की साँस ली और कुण्डली लेकर वापिस आ गए। वापिस आकर उन्होंने गुरुदेव को कुंडली दी और पूरी कहानी कह सुनाई।
गुरुदेव के एक मित्र श्री वैद्यनाथ पाठक से अनुरोध किया गया कि वह 'महामृत्युंजय मंत्र' का जाप करें। वे भारतीय खनि विद्या पीठ धनबाद में गुरुदेव के सहकर्मी थे।
वे 'महामृत्युंजय मंत्र' का जाप करने के लिए तैयार हो गए। पहले ही दिन एक अजीब घटना घटी। एक फिजिओ थैरेपिस्ट श्री एस पी साहा ने उनके द्वार पर दस्तक दी। वह अपने आप आए थे और उन्होंने कहा कि वह गुरुदेव को पूर्णतः ठीक कर सकते हैं।
श्री एस.पी साहा जी रामकृष्ण मिशन से जुड़े थे। वह हर रोज गुरुदेव के घर आया करते थे और एक घंटा उनका इलाज करते। इस एक घंटे के दौरान श्री एस.पी.साहा जी ने रामकृष्ण मिशन की अनेक क्रियाओं से गुरुदेव को अवगत करवाया। साथ ही वह उन्हें रामकृष्ण मठ के अनेक साधु सन्तो के किस्से भी सुनाया करते थे। गुरुदेव रोज़ ही उनका इन्तज़ार करते और यह सेशन शारीरिक और आध्यात्मिक तल पर गुरुदेव को पोषित करते। 6 महीने के लगातार इलाज के बाद गुरुदेव बीमारी से पूणर्तः ठीक हो गए।
गुरुदेव ने स्वामी सत्यानंद जी को अपनी पूरी कहानी लिखकर भेजी। स्वामीजी का जवाब तुरत आया -‘तुम्हारा आगे का मार्ग हठयोग नहीं। किसी योग्य गुरू की तलाश करो और अध्यात्म के मार्ग पर आगे बढ़ो। मेरे आशीष।’
आज भी गुरुदेव स्वामी सत्यानंद जी को बहुत आदर और अहोभाव के साथ याद करते हैं।
("बूंद से समंदर तक का सफ़र" से संकलित )
आध्यात्मिक परंपराओं में कहीं भी सुव्यवस्थित ढंग से साधकों के लिए अध्यात्म की यात्रा का मार्गदर्शन नही है, बड़ा ही भटकाव है। चाहे वह शैव हों , शाक्त हों, वेदान्त हों.. आदि।
कहीं भी स्पष्ट मानचित्र नही है अध्यात्म का, कि किस तरह साधक अपनी यात्रा सही दिशा में प्रारंभ करें!
हठ योग..., आदि थोड़े से बिरले लोगों के लिए है, अधिकांश साधकों का सारा जीवन बर्बाद हो जाता है, कहीं नहीं पहुंचते, क्योंकि कोई उनका मार्गदर्शन करने वाला नहीं होता, कि यह तुम्हारा मार्ग नही है!
उन्हें ये ही नही पता चल पाता आखिर जाना कहां और कैसे??
गुरुदेव ने आध्यात्मिक जगत में महाक्रांति कर दी ही और ऐसा अदभुत मार्ग खोजा है, कि साधक यदि संकल्पवान और निष्ठावान है तो अब वह चूक नहीं सकता!
ओशोधारा में 100 चलेंगें 100 पहुंचेंगे!!
यह गारंटी है!!!
गुरुदेव ने ओशोधारा में अध्यात्म के सर्वश्रेष्ठ मार्ग 'सहज-योग' को प्रतिपादित किया है, जिसके 3 आयाम हैं - ज्ञान योग, भक्ति योग और कर्म योग। ज्ञान योग का अर्थ है स्वयं को आत्मा जानना और आनंद में जीना। भक्ति योग का अर्थ है परमात्मा को जानना और उसके प्रेम में जीना। कर्म योग का अर्थ है आत्मा और परमात्मा से जुड़कर संसार का नित्य मंगल करना।
सभी प्रभु के प्यासों का ओशोधारा में स्वागत है। ध्यान-समाधि से चरैवेति तक संकल्प लेकर परमजीवन में प्रवेश करें।
गुरूदेव ने एक रहस्य की बात बताई है :- बैकुंठ में आत्मानन्द है पर ब्रह्मानन्द नहीं है, क्योंकि वहां भक्ति नहीं है।
भक्ति सिर्फ मनुष्य शरीर से ही सम्भव है।
सुमिरन सिर्फ सांसों के साथ ही किया जा सकता है।
सन्त सुमिरन का आनन्द लेने के लिए, सांस-सांस आत्मानन्द + ब्रह्मानन्द (सदानन्द) का आनन्द लेने के लिए ही पृथ्वी पर बार-बार आते हैं।
हृदय में गुरूदेव और हनुमत स्वरूप सिद्धि के साथ गोविंद का सुमिरन!
भार्यामिष्टं पुत्रं मित्रं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं।।
अर्थात - प्राण, शरीर, गृह, राज्य, स्वर्ग, भोग, योग, मुक्ति, पत्नी, इष्ट, पुत्र, मित्र – इन सबमें से कुछ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है।
नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां
नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां
~ जागरण सिद्धार्थ
Please click the following link to subscribe to YouTube
https://www.youtube.com/user/OshodharaVideos?sub_confirmation=1
Oshodhara Website :
www.oshodhara.org.in
Twitter :
https://twitter.com/SiddharthAulia
Like & Share on Official Facebook Page! 🙏
https://m.facebook.com/oshodharaOSHO/
प्राणं देहं गेहं राज्यं स्वर्गं भोगं योगं मुक्तिम् ।
ReplyDeleteभार्यामिष्टं पुत्रं मित्रं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं।।
।। जय गुरुदेव ।।
ॐ परमतत्वाय नारायणाय
ReplyDeleteगुरुभ्यो नमः
प्रणाम गुरुदेव
⚘ जय सद्गुरुदेव ⚘
ReplyDelete⚘ जय ओशोधारा ⚘
🙏
जय गुरुदेव ।
ReplyDeleteजय ओशो धारा ।
ओशो जागरण जी की लेखन शैली अद्भुत है
ReplyDeleteSadguru ji ke paavan charno me ahobhav Naman. Jai osho jai Oshodhara
ReplyDeleteहमारा परम सौभाग्य गुरुदेव ने हमें स्वीकारा
ReplyDeleteHamlog dhanybhagi hain ki ease purn guru mile.
ReplyDeleteNice Story in Real Life of Respected Beloved Sadgurudev. Thanks & Gratitude to Respected Beloved Sadgurudev.
ReplyDelete