• Breaking News

    गुरुदेव के संस्मरण ~ संतमत की उत्कृष्ट परंपरा

    भारतभूमि कभी बुद्धों, सन्तों, गुरुओं से खाली नही होती यहां सतत गुरुओं की परंपरा चलती रहती है, संतमत किसी एक संत के नाम पर प्रचारित मत नहीं है। विश्व में जो भी संत हो गये हैं, उन सभी संतों के मत को संतमत कहते हैं। ऐसी ही एक उत्कृष्ट संतमत परंपरा हुई। जिसमें संत तुलसी साहेब, बाबा देवी साहब, सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस, महर्षि संतसेवी जी हुए।
    तुलसी साहब :
    संतमत में सुरत-शब्दयोग के मार्ग में तुलसी साहब अग्रणी संत हुए।
    1763 ईo में उनका जन्म उच्च एवम कुलीन परिवार में हुआ था। वे पेशवा के राजवंश में से थे।
    बचपन में उनकी शादी कर दी गयी जिससे उनके एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई।
    उनके पिता धार्मिक प्रवृत्ति के थे वे चाहते थे कि गद्दी को पुत्र को सौप कर शेष जीवन प्रभु की यात्रा में बिताया जाए।
    पर तुलसी साहेब बचपन से ही संसार से विरक्त थे। वे चुपचाप घर से भाग निकले।
    और सत्य की खोज में कई वर्षों तक जंगलों, पहाड़ों, गुफाओं में भटकने के बाद हाथरस आ गए। उनके सद्गुरु संत चरनदास हुए।
    अपनी रचनाओं में उन्होंने अपने सद्गुरु के प्रति खूब अहोभाव व्यक्त किया है।

    तुलसी सतगुरु पारस कीन्हा।
    लोहा सुगम अगम लखि लीन्हा।।

    मैं लोहा जड़ कीट समाना।
    गुरु पारस संग कनक कहाना।।

    सतगुरु अगम अपार, सार समझि तुलसी कियो ।
    दया दीन निरधार, मोहि निकार बाहिर लियो ।।

    सतगुरु संत दयाल, करि निहाल मो को दियो ।
    सुरति सिध सुधार, सार पार जद लखि पर्यो ।।

    तुलसी साहब ने सद्गुरु (जीवित गुरु) पर बहुत जोर दिया है, और दो-टूक शब्दों में कहा है, बिना सद्गुरु के अध्यात्म की यात्रा नहीं कि जा सकती है।

    बिन सतगुरु उपदेस, सुर नर मुनि नहि निस्तरे ।
    ब्रह्मा बिस्नु महेस, और सभन की को गिने ।।

    सतगुरु बिना भव माहि भटके, अटक नहि गुरु की गही ।
    भृंगी भवन नहि कीट पावे, उलटि भृंगी ना भई ।।

    तुलसी साहब के आशीर्वाद से राधास्वामी धारा के जनक स्वामी शिव दयाल सिंह जी का जन्म हुआ था।
    जो बाद में राधास्वामी जी महाराज के नाम से प्रसिद्ध हुए।
     तुलसी साहेब ने संतमत का खूब प्रचार-प्रसार किया और
    80 वर्ष की उम्र में वे सन 1848 ईo को वे इस भूलोक से महाप्रयाण कर गए।
    संत बाबा देवी साहब :
    का जन्म 1841 में सन्त तुलसी साहेब  के आशीष से हुआ था।
    ये तीक्ष्ण बुद्धि के थे और बचपन से ही वे अज्ञात के प्रति खोए रहते थे।
    14 वर्ष में माता जी की मृत्य और कुछ वर्षों  के बाद उनके पिता की भी मृत्यु ने उनके भीतर वैराग्य की अग्नि को और तेज़ कर दिया।
    उनके सम्बन्धी श्री पद्मदास जी ने उनकी नौकरी डाकघर में लगवा दी ताकि उन्हें किसी के आगे हाथ न फैलाना पड़े।
    बाद में कुछ वर्षों बाद उन्होंने नौकरी त्यागपत्र दे दिया और जमा धन अपने प्रेमी मित्र को व्यापार में लगाने के लिए दे दिए जिससे उन्हें हर महीने स्थाई धन मिलने लगा और वे आर्थिक रूप से स्वतंत्र होकर अब सारा समय धार्मिक कार्यों में लगाने लगे।
    उन्होंने 'बाल का आदि और उत्तर का अंत'
    तथा इस्लाम धर्म के वास्तविक स्वरूप को प्रकट करने वाली 'शरफे इस्लाम' पुस्तक की रचना की।
    इनके प्रिय शिष्य महर्षि मेंहीं परमहंस जी हुए।
    बाबा देवी साहब सन 1919 में दिन रविवार प्रातःकाल 8.30 पर महाप्रयाण कर गए।
    महर्षि मेंही दास : संत देवी साहब के शिष्य थे।
    जिनका अवतरण 28 अप्रैल 1885 को मझुवा गांव में हुआ था। ये बचपन से ही योगी प्रवृत्ति के थे।
    19 वर्ष की उम्र में आपके भीतर आत्मज्ञान की प्रबल प्यास ने जन्म लिया और वे साधु-संतों की खोज में निकल पड़े।
    वहां पर उन्हें दरियापंथी साधु स्वामी रामानन्द से मिले और उनसे दीक्षित हुए।
    उन्होंने उनको मानस जप, मानस ध्यान और खुले नेत्र से किये जाने वाले त्राटक की क्रिया बताई। उन्होंने उनके बताएं ढंग से कठोर साधना की।
    पर कोई बात बनती हुई दिखाई नहीं पड़ रही थी अंततः उन्होंने सारी साधनाएं छोड़ दी।

    सन् 1909 ईo में मुरादाबाद-निवासी सद्गुरु बाबा देवी साहब के पत्र-आदेश पर उनके ही शिष्य भागलपुर के मायागंज महल्ले के निवासी श्रीराजेन्द्रनाथ सिंहजी ने आपको दृष्टियोग की दीक्षा दी। उसी वर्ष भागलपुर में विजयादशमी के अवसर पर बाबा देवी साहब के प्रथम दर्शन आपको हुए। श्रीराजेन्द्रनाथ सिंहजी ने आपका हाथ बाबा देवी साहब के हाथ में थमाते हुए कहा कि ये ही आपके सद्गुरु हुए।

    बाबा देवी साहब का प्रवचन सुनकर एवं उनके अलौकिक व्यक्तित्व को देखकर आपको बड़ी शांति मिली और आप उनके शरणागत हो गये। 1914 ईo को पूज्य बाबा देवी साहब ने आपको नादानुसंधान (सुरत-शब्द-योग) की क्रिया बतला दी। आप उस साधना-विधि को करने लगे। आप अपने पितृगृह सिकलीगढ़ धरहरा से कुछ दूर पश्चिम और दक्षिण हटकर एक खेत में अपने से कुआँ खोदकर उसके अन्दर कठिन साधना करने लगे। कुएँ के अन्दर रहते-रहते आपका शरीर पीला हो गया। तब भक्तों ने कहा -‘महाराज जी! शरीर रहेगा, तब तो भक्ति होगी।’ उनलोगों की बात मानकर आपने कुएँ में अभ्यास करना छोड़ दिया; लेकिन साधना में पूर्ण सफलता न होते देख आपने व्यग्रतावश अनेक एकांत स्थानों की खोज की। अंत में भागलपुर के मायागंज महल्ले में पहुँचे। यहाँ की प्राचीन गुफा, एकान्त स्थान और गंगा का रमणीक दृश्य देखकर यह स्थान आपको बहुत अच्छा लगा। अतः आप इसी स्थान में अपनी साधना करने का विचार कर यहाँ निवास करने लगे और गुफा के अन्दर 18 महीनों तक कठिन तपस्या कर संतत्व को उपलब्ध हुए और संतशिरोमणि महर्षि मेंहीं परहंसजी महाराज के नाम से विख्यात हुए।

    101 वर्ष की उम्र में  8 जून 1986 ई० को संत महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज इस संसार से महाप्रयाण कर गये।
    महर्षि सन्त सेवी : महर्षि मेंहीं परमहंस जी के प्रधान शिष्य थे। जिनको स्वामी जी प्रायः अपना मस्तिष्क कहा करते थे।
    पूज्यपाद महर्षि संतसेवी परमहंस महाराज का आविर्भाव बिहार के गमहरिया गांव में सन 1920 में हुआ।
    बचपन में इनका नाम महावीर था ये हनुमान जी के अनन्य उपासक थे। इनकी शिक्षा मिडिल क्लास तक ही हो पाई।
    ट्यूशन पढ़ाकर अपना घरेलू खर्च निकालने लगे, एक बार अध्यापन उन्हें सैदाबाद ग्राम में महर्षि मेंहीं जी के सत्संग शिविर का पता चला वे उनके दर्शनाथ वहां पहुंच गए।
    उनको देखकर उन्हें भीतर से आया यही वे गुरु हैं जो मेरी अध्यात्म की प्यास को तृप्त कर सकते हैं, और वे उनकी शरणागत हो गए। और उनसे सार-शब्द का रहस्य पूंछा।

    महर्षि जी इनकी सच्ची प्यास को देखकर प्रसन्न हुए उत्सुकता देखकर महर्षि मेँहीँ ने इन्हें 29 मार्च, 1939 ईo में मानस जप, मानस ध्यान और दृष्टियोग की दीक्षा दी।

    ये गुरु-प्रदत्त साधना को एकनिष्ठ होकर तत्परता से विधिवत् करते रहे। सन् 1940 ईo से 1945 ईo तक ये महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के आज्ञानुसार उनके पास आया-जाया करते तथा भ्रमण-कार्य में सम्मिलित होकर ध्यानाभ्यास करते हुए विविध प्रकार की सेवाएँ भी कर लिया करते।

    महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ने आपको दस वर्षों तक अपनी कसौटी पर कसने के बाद सदा के लिए अपने पास बुला लिया और उनकी गुरुभक्ति और गुरुसेवा को देखकर महर्षि मेंहीं जी ने 2 जून, सन् 1952 ईo को आपको शब्द-साधना का रहस्य बता दिया।
    जिस रहस्य के बारे में कबीर साहब कहते हैं :-
    ।। आदिनाम निज सार है, बुझि लेहु सो हंस ।।

    और दिनांक 27 अक्टूबर, 1957 ईo को संन्यास प्रदान किया।
    तब से 8 जून, 1986 ईo तक (जब महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ने अपना पार्थिव शरीर छोड़ा) आपने गुरु-सेवा में अपना सर्वस्व अर्पित कर दिया। लगातार 37 वर्षों तक संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ के श्रीचरणों में रहकर जो सेवा-कार्य सम्पादित किया, वह गुरु-शिष्य परम्परा के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित है।

    4 जून, 2007 को आपने लौकिक जगत से विदाई ले ली।
    दिनांक 29.12.06 को गुरुदेव ओशो सिद्वार्थ जी करीब 50 की संख्या में ओशोधारा के संन्यासियों के काफिले के साथ महर्षि मेंही दास जी के आश्रम में पहुंचे। गंगा किनारे बसा यह आश्रम बहुत ही मनोरम लगता है। मौसम फूलों का है। पूरा मेंही आश्रम फूलों से सजा-सजा, कई रंगों में डूबा है, मानो सद्गुरू का स्वागत करने की प्रकृति ने भी तैयारी की थी।

    करीब 10 पंक्तिबद्ध गाड़ियों की सवारी महर्षि मेंही दास जी के भव्य आश्रम में पहुंची। वहां गद्दी पर वर्तमान में 86 वर्षीय परमहंस महर्षि सेवी महाराज विराजमान थे।

    गुरुदेव बिना किसी पूर्व सूचना के पहुंचे थे। उन्होंने वहां के सेवादारों से पूछा -‘महर्षि सेवी महाराज कब दर्शन के लिए बाहर आते हैं?’
    सेवादारों ने एक जगह इशारा करते हुए कहा - ‘आप लोग यहां बैठें। बस, आते ही होंगे।’

    थोड़ी देर में संत सेवी महाराज आकर अपने आसन पर बैठ गए। एक नज़र संगत पर डालने के क्रम में गुरुदेव पर उनकी निगाहें टिक गईं। पहचानने की कोशिश करते हुए उन्होंने कहा-आप ओशो सिद्धार्थ जी हैं ?’

    गुरुदेव - ‘जी, मेरा प्रणाम स्वीकार करें।’

    सेवी महाराज भाव विह्वल हो गए, बोले-‘ मेरा सौभाग्य! लेकिन आपने अपने आने की सूचना नहीं दी, अन्यथा हम आपका यथोचित स्वागत करते।’

    गुरुदेव -‘ अचानक मिलने का अपना मजा है। आप संत मत की एक उत्कृष्ट परंपरा से जुड़े हैं। मैं चाहता हूं कि संत मत और शब्द साधना के विषय में हमारी संगत को कुछ बताएं।’

    सेवी महाराज हंसने लगे और बोले-‘ आप स्वयं सिद्वार्थ हैं। आस्था चैनेल पर नियमित रूप से हम आपकी वाणी को सुनते हैं। जिस तरह आप संत मत को सहज योग के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं, उसमें भला मैं क्या जोड़ सकता हूं। आपकी उपस्थिति में सहजयोग की क्या चर्चा की जाए?’

    गुरुदेव - ‘अपनी गुरू परंपरा के विषय में कुछ कहें। हमें अच्छा लगेगा।’

    महर्षि सेवीदास जी ने विस्तार से अपनी गुरू परंपरा के विषय में बताया। आध्यात्मिक चर्चा का आनन्द पूरी ओशोधारा संगत ने लिया। संत-मत का जन्म, विकास और वर्त्तमान स्थिति पर भी चर्चा हुई।
    अंत में संत सेवीदास जी ने गुरुदेव और पूरी संगत को भावभीनी विदाई दी तथा पुनः आने का आग्रह किया।

    ठीक एक वर्ष बाद महर्षि सेवी दास ने 4 जून, 2007 को चिर समाधि ले ली।
    उनके साथ ही संतमत की पुरानी पीढ़ी का सूर्यास्त हो गया।
            ("बूंद से समंदर तक का सफ़र" से संकलित )
    परमगुरु ओशो कहते हैं, कि भारत भूमि बुध्दपुरुषों सन्तों से कभी खाली नहीं रहती। इस सुंदर संतमत गुरु-शिष्य परम्परा में अवगाहन कर एक सुखद अनुभूति हुई और अपने सौभाग्य पर रश्क! भी कि इन सन्तों को कितनी कठिन साधना करनी पड़ी और गुरु ने भी पूरी परीक्षा लेेकर, पात्रता देखकर ही नाम-रहस्य प्रदान किया! यह देखकर समझ में आया कि हम ओशोधारा के साधक कितने सौभाग्यशाली हैं!!

    गुरुदेव (सद्गुरु ओशो सिद्धार्थ औलिया जी) ओशोधारा में हमारी बिना पात्रता देखें प्रभु के एक नहीं, दो नहीं, सारे आयामों को दोनों हाथों से लुटाए जा रहे है।
    गुरुदेव ने ओशोधारा में प्रभु की यात्रा को कितना सरल-सुगम बना दिया है कि अब साधक 6- 6 दिन के समाधि सुमिरन कार्यक्रम वातानुकूलित कक्ष में करते हुए, अध्यात्म की दुर्गम यात्रा पर नाचते-गाते चल रहे है। और गुरुदेव स्वयं साधकों का हाथ पकड़कर उन्हें अद्वैत, कैवल्य, निर्वाण और परमपद की यात्रा पर पदस्थ कर रहे हैं।
    परम सौभाग्य है उन साधकों का जो ओशोधारा से जुड़ें हैं और जो नए निरंतर जुड़ रहे हैं...!
    निश्चित ही उनका भाग्य विधाता ने सोने की कलम से लिखा है!!!

    गुरुदेव ने ओशोधारा में अध्यात्म के सर्वश्रेष्ठ मार्ग 'सहज-योग' को प्रतिपादित किया है, जिसके 3 आयाम हैं - ज्ञान योग, भक्ति योग और कर्म योग। ज्ञान योग का अर्थ है स्वयं को आत्मा जानना और आनंद में जीना। भक्ति योग का अर्थ है परमात्मा को जानना और उसके प्रेम में जीना। कर्म योग का अर्थ है आत्मा और परमात्मा से जुड़कर संसार का नित्य मंगल करना।

    काशी-काबा का जलवा है अपनी जगह
    फिर भी रहती ज़रुरत है पीर की
    आत्मा है अमर जानोगे एक दिन
     मौत होती है क्षणभंगुर शरीर की
    ज़िन्दा मुर्शिद से होता इलहामे-ख़ुदा
    भूमिका वह न बुत की या तस्वीर की

    प्रभु के सच्चे और निष्ठावान साधकों! का ओशोधारा में स्वागत है कि वे ध्यान-समाधि से चरैवेति तक का संकल्प लेकर गुरुदेव के साथ अपने परमजीवन की यात्रा का शुभारंभ करें।

    गुरूदेव ने एक रहस्य की बात बताई है :- बैकुंठ में आत्मानन्द है पर ब्रह्मानन्द नहीं है, क्योंकि वहां भक्ति नहीं है।
    भक्ति सिर्फ मनुष्य शरीर से ही सम्भव है।
    सुमिरन सिर्फ सांसों के साथ ही किया जा सकता है।
    सन्त सुमिरन का आनन्द लेने के लिए, सांस-सांस आत्मानन्द + ब्रह्मानन्द  (सदानन्द) का आनन्द लेने के लिए ही पृथ्वी पर बार-बार आते हैं।

    हृदय में गुरूदेव और हनुमत स्वरूप सिद्धि के साथ गोविंद का सुमिरन!
    गुरूदेव ने आध्यात्मिक जगत में महाक्रान्ति ला दी है; ओशोधारा के साधकों के जीवन के केंद्र में गुरु हैं, सत-चित-आनन्द के आकाश में उड़ान है और सत्यम-शिवम-सुंदरम से सुशोभित महिमापूर्ण जीवन है!!

    गुरुदेव द्वारा प्रदत्त सुमिरन+हनुमत स्वरूप सिद्धि अति उच्चकोटि की साधना है।
    हनुमान स्वयं इसी साधना में रहते हैं, वे सदैव भगवान श्रीराम के स्वरूप के साथ कण-कण में व्याप्त निराकार राम का सुमिरन करते हैं।

    गुरुदेव ने अब सभी निष्ठावान साधकों को यह दुर्लभ साधना प्रदान कर आध्यात्मिक जगत में स्वर्णिम युग की शुरूआत कर दी है।

    सदा स्मरण रखें:-
    गुरु को अंग-षंग जानते हुए सुमिरन में जीना और गुरु के स्वप्न को विस्तार देना यही शिष्यत्व है।
    गुरु+गोविंद+शिष्य यह सिनर्जी ही सारे अध्यात्म का सार है!!
    और यह सतत चलता रहेगा, चरैवेति.. चरैवेति...।
    ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं 
    द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम्।
    एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं 
    भावातीतं त्रिगुणरहितं सदगुरूं तं नमामि।।
    जो ब्रह्मानन्द स्वरूप हैं, परम सुख देने वाले हैं,
    जो केवल ज्ञानस्वरूप हैं, (सुख-दुःख, शीत-उष्ण आदि) द्वंद्वों से रहित हैं, आकाश के समान सूक्ष्म और सर्वव्यापक हैं, तत्त्वमसि आदि महावाक्यों के लक्ष्यार्थ हैं, एक हैं, नित्य हैं मलरहित हैं, अचल हैं, सर्व बुद्धियों के साक्षी हैं, सभावों या मानसिक स्थितियों के अतीत माने परे हैं, सत्त्व, रज, और तम तीनों गुणों के रहित हैं, ऐसे श्री गुरुदेव को मैं नमस्कार करता हूँ ।

               नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां
               नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां

                                            ~ जागरण सिद्धार्थ 

    Please click the following link to subscribe to YouTube 
    https://www.youtube.com/user/OshodharaVideos?sub_confirmation=1

    Twitter : 
    https://twitter.com/SiddharthAulia

    Oshodhara Website : 
    www.oshodhara.org.in

    Please Like & Share on Official Facebook Page! 🙏
    https://m.facebook.com/oshodharaOSHO/

    4 comments:

    1. ⚘ JAI Sadgurudev ⚘
      ⚘ JAI OSHODHARA ⚘
      🙏

      ReplyDelete
    2. गुरु पारस हम लौह की स्थिति हम शिष्यों की है। सद्गुरु का सानिध्य जीवन की सर्वोत्तम उपलब्धि है।जय ओशोधारा।

      ReplyDelete
    3. सद्गुरु के चरणों में प्रणाम

      ReplyDelete

    Note: Only a member of this blog may post a comment.

    Post Top Ad

    Post Bottom Ad