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    गुरुदेव के संस्मरण ~ पिंडारी ग्लेशियर की रोमांचकारी अद्भुत यात्रा

    हिमालय शब्द उच्चारण से ही पवित्रता और उच्चता की तरंगों से हृदय सराबोर हो जाता है।
    यह सिद्धों और अनेक गुप्त रहस्यमय आश्रमों की पवित्रतम दिव्य स्थली है।

    विकास खंड कपकोट के उत्तर भाग में स्थित विख्यात पिंडारी ग्लेशियर की यात्रा साहसिक के साथ ही रोमांचभरी भी है। इस ग्लेशियर पर सुबह-सुबह पड़ने वाली सूरज की पहली किरणें पर्यटकों को बरबस ही अपनी ओर आकर्षित करती हैं। कुदरत ने इस क्षेत्र को काफी कुछ दिया है।
    समुद्र की सतह से 12500 फीट की ऊंचाई पर स्थित पिंडारी ग्लेशियर अत्यंत मनोहारी है। 

    1982 में पायलट बाबा के साथ गुरुदेव (सद्गुरु ओशो सिद्धार्थ औलिया जी) ने पिंडारी ग्लेशियर की यात्रा की थी।

    आइए  गुरुदेव के इस अद्भुत संस्मरण को पढ़ते हुए  हमसब भी उनके साथ, भाव शरीर से इस रोमांचकारी यात्रा में सम्मिलित हो जाएं!!
    1982 में पायलट बाबा का निमंत्रण पाकर मैं जौलीकोट पहुंचा। उनका आश्रम नैनीताल से 20 कि. मी. दक्षिण में था। हिमालय की छटा यहां से देखते बनती थी। उन्होंने हिमालय का चप्पा-चप्पा छान मारा था। कई दुर्गम स्थानों पर उन्होंने साधना की थी। पिंडारी ग्लेशियर की एक गुफा में वे वर्षों रहे थे। अभी भी वे हर वर्ष गर्मी में अपने शिष्यों एवं प्रेमियों के साथ पिंडारी ग्लेशियर की यात्रा पर जाते थे।

    इस बार सबको इस यात्रा के लिए बुलाया था। भारत के कई नगरों के लोग थे। कई सपरिवार थे। बरेली से एक वकील साहब अपनी युवा पत्नी और दो साल के शिशु के साथ आए थे। हल्द्वानी के 70 वर्षीय पांडे जी वर्षों तक वहां के एम. एल. ए रहे थे। लखनऊ की श्रीमती तारा अग्रवाल थी, जिन्हें प्यार से सब ‘भाभी’ कहते थे। आगरा की डा. कृष्णा बुद्ध की जातक कथाओं पर पी. एच. डी. करने के बाद अब डी. लिट. कर रही थी। रांची की सुनीता बी. ए. करने का इरादा रखती थी। दिल्ली से बलजीत राज और अजीत अपना वीडियो कैमरा ले कर आए थे। सभी तरह के लोग थे।

     एक दिन पायलट बाबा ने मजाक में मुझे कहा भी--‘आपने मेरा करिश्मा देखा! आगरा, बरेली और रांची तीनों जगहों के लोगों को मैने यहां इकट्ठा कर दिया है।’ पायलट बाबा का प्रेम और हिमालय के उत्तुंग शिखरों एवं मनभावन दृश्यों के बीच जाने की कल्पना से मन बल्लियों उछल रहा था। पायलट बाबा के दो सन्यासी शिष्य स्वामी शिवानंद और शंकरानंद भी साथ थे। सबने अपनी यात्रा पायलट बाबा के नेतृत्व में सबेरे आरंभ की। दस बजे तक बस अल्मोड़ा पहुंच गई। कुछ समय वहां बिताने के बाद सब लोग कोसानी पहुंचे। कविवर सुमित्रानंद पंत जी की काव्यात्मक भावभूमि के रूप में विख्यात इन दोनों रमणीक नगरों का दर्शन कर हम सभी का मन भावुक हो उठा।

    अपराह्न में बस बागेश्वर पहुंची। हिमालय का नगर बागेश्वर सरयू के तट पर बसा है। यहां कई दिनों तक पायलट बाबा समाधिस्थ रहे थे। अतः उनके आते ही चारों ओर हलचल मच गई। जिधर भी वे जाते नगरवासियों के हाथ स्वतः ही जुड़ जाते। श्रद्धा का मानो एक तूफान आ गया था। फिर मौसम अंगड़ाई क्यों न लेता? हल्की बूंदा-बांदी शुरू हो गई। खाना खा कर बस से वे लोग आगे के लिए रवाना हो गए। शाम को 6 बजे बाबा का काफिला भराड़ी पहुंचा। भराड़ी में पायलट बाबा से सभी सुपरिचित थे। देखते-देखते सबके खाने-पीने और ठहरने की व्यवस्था हो गई। इधर लोग अपनी-अपनी व्यवस्था करने में जुटे थे, उधर मैं और उदयशंकर प्रकृति की विराटता पर मुग्ध हो रहे थे। रात्रि का सन्नाटा, सरयू का प्रवहमान कलकल करता जल और सामने ही गगनचुंबी शिखर।

    डा. उदयशंकर का गीत गूंज उठा-

    ' वाइजे मोहतरम इस तरह आपका बादाखाने में आना बुरी बात है।

    आ गए हैं अगर थोड़ी पी लीजिए, बिन पिये लौट जाना बुरी बात है।’

    न जाने कब तक वे लोग संगीत की मदहोशी में डूबते-उतराते रहे। जहां हिमालय मधुशाला और सरयू साकी हो गई हो, वहां बिन पिये कैसे रहा जा सकता था। अचानक पायलट बाबा ने मेरा कंधा थपथपाया--‘क्या सोना नहीं है?’ मेरे मुख से सहसा निकल पड़ा--‘जन्मों-जन्मों से तो सो ही रहे हैं बाबा। अब तो जगाने का कुछ उपाय करें।’ बाबा हंसने लगे। सभी बाबा के साथ चल पड़े। एक कोठेनुमा मकान की पहली मंजिल पर मकान मालिक ने भूमि पर पुआल डाल कर बिस्तर लगा दिया था। वहीं बाबा और उनके काफिले के लोग सो रहे।

    सुबह के प्रकाश में भराड़ी की पर्वतीय छटा देख कर सब दंग रह गए। सरयू नदी तेज प्रवाह से मैदान की ओर भागी जा रही थी, मानो राम जन्मभूमि अयोध्या पहुंचने की बहुत जल्दी हो।

    पिंडारी भराड़ी से 60 कि. मी. दूर है जिसे पैदल ही तय करना था। बाबा का कारवां सुबह 7 बजे रवाना हो गया। साथ में 15 टट्टू भी थे जिन पर भोजन का सामान और बिस्तर आदि लदा था। कुछ पैदल चलने में असमर्थ यात्री भी टट्टुओं में सवार थे। एक टेपरिकार्डर भी किसी ने ले लिया था, जिस पर बार-बार यह गीत बज रहा था-

    ‘चलो बुलावा आया है, बाबा ने बुलाया है।’

    गीत में जैसे सम्मोहन था। चढ़ाई विकट थी। लेकिन प्रकृति की अद्भुत छटा, गीत का आमंत्रण और पायलट बाबा का साथ सबको निरंतर आगे बढ़ने को प्रोत्साहित कर रहा था। पायलट बाबा बहुत तेज चलते थे। उनके साथ चल पाना मुश्किल होता जा रहा था। लोग छोटे-छोटे समूहों में विभक्त होते जा रहे थे। थक जाने पर किसी झुरमुट की ओट में थोड़ी देर विश्राम को वे बैठ जाते। ऐसे वक्त डा. उदयशंकर का गीत अजीब-सी मस्ती भर जाता -
     ‘मुझको मैकश समझते हैं सब वादाकश, क्योंकि उनकी तरह लड़खड़ाता हूं मैं।

    मेरी रग-रग में नशा मुहब्बत का है, जो समझ में न आए तो मैं क्या करूं?’

    काफी देर तक हम सब चलते रहे। ठाकुरी का सरकारी डाकबंगला आ गया जहां दोपहर के भोजन की व्यवस्था थी।

    खाने-पीने के तुरंत बाद एक बजते-बजते बाकी लोग रवाना हो गए। पिंडारी से लौट रहे सैलानियों ने बाबा को घेर रखा था। लगभग साढ़े तीन बजे कहीं मुक्ति मिल गई। पायलट बाबा के साथ हम चार लोग रह गए। शाम तक खाती पहुंच जाना था। गनीमत थी कि अब चढ़ाई कम और उतराई ज्यादा थी। बाबा ने हिम्मत बंधायी और सुझाया कि सड़क से न चल कर हमलोग पहाड़ से सीधे उतर जाएं। बाबा को वहां के पर्वत प्रांतों का चप्पा-चप्पा पता था। हम लोग तेजी से उतरने लगे। एक घंटे में ही हम एक पहाड़ी गांव में पहुंच गए। वहां के एक ठाकुर परिवार ने बाबा और उन सबकी बड़ी आवभगत की। चाय और दूध से स्वागत किया। बाबा उस परिवार से भली-भांति परिचित थे। बच्चों तक का नाम पुकारते थे। बड़ी मुश्किल से उस परिवार से मुक्ति मिली।

    बारिश शुरू हो गई थी। जब-जब बारिश तेज होने को होती, बाबा उच्च स्वर से ‘राम’ पुकारते और लगता सारा अस्तित्व आंदोलित हो उठा। मेरा आश्चर्य बढ़ जाता, जब मैं देखता कि हर पुकार के बाद बारिश कम हो जाती। मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि बाबा अस्तित्व को बरसने से रोक रहे थे। मैंने बाबा से कहा कि अब अस्तित्व की मर्जी पूरी होने दें। बाबा मुस्कुराने लगे और अपनी बरसाती भी उतार दी। फिर तो अस्तित्व की बरसात और बाबा के प्यार में भीगते हुए लगभग 6 बजे सब खाती पहुंच गए।
    खाती पिंडार के रास्ते में अंतिम गांव है। यह हिमाच्छादित शिखरों की गोद में बसा है। यहां के सरकारी डाकबंगले में ठहरने की पर्याप्त व्यवस्था है। अधिकतर पर्यटक भराड़ी से ही खाने-पीने का सामान ले लेते हैं। शेष अपनी झोली यहां भर लेते हैं। यहां के बाद पिंडारी तक खाने-पीने का कोई सामान नहीं मिलता।

    खाती के सभापति ठाकुर रतन सिंह बाबा के भक्त थे। वे सबके आराम और व्यवस्था में जुट गए। खाती सरकारी चिकित्सालय के डाक्टर प्रेम सिंह शीघ्र ही डा. उदयशंकर के घनिष्ठ हो गए। वे युवा, अविवाहित और सुंदर व्यक्तित्व के धनी थे और खाती के निकट के ही गांव के रहने वाले थे। उन्होंने सबको बड़ा प्यार और आदर दिया। खुद जमीन पर सोए और हमें पलंग पर सुलाया। पहाड़ के लोगों की मेहमानबाजी और सादगी की जितनी तारीफ की जाए, कम है।

    बाबा ने बताया कि खाती समुद्रतल से 6 हजार फीट की ऊंचाई पर हैं, जबकि पिंडारी साढ़े तेरह हजार फीट की ऊंचाई पर। दूसरे दिन सुबह बाबा का कारवां खाती से रवाना हुआ। परस्पर सत्संग करते हुए हम सब द्वाली पहुंच गए।

    द्वाली में भोजन की व्यवस्था थी। टट्टुओं का कारवां आगे पहले ही पहुंच गया था। भोजन तैयार था। यहां भी सरकारी डाकबंगला था, जहां ठहरने की व्यवस्था थी। पिंडारी से लौट रहे भारतीय क्रिकेट टीम के कुछ खिलाड़ी यहां मिल गए थे। साथ के लड़के उनसे मिल कर बेहद खुश थे और खिलाड़ी पायलट बाबा से मिल कर। हम द्वाली के पास से बहती हुई पिंडरगंगा को निहार रहे थे, जिसके किनारे-किनारे आगे बढ़ना था।

    भोजन और विश्राम के बाद सब आगे चल पड़ते हैं। ‘ पहाड़ी वादियों में मधुर हमसफर का साथ हो, तो पथरीली पगडंडियां मधुबन हो जाती हैं। अकेले तो दो गज चलना भी कितना कठिन हो जाता है। शाम होते-होते सब फुरकिया डाकबंगले पर पहुंच गए, जहां खाने-पीने और रात्रि विश्राम की व्यवस्था थी।

    सुबह नींद जल्दी खुल गई। बाहर नीरवता थी। सुदूर हिमाच्छादित शिखर सूरज की किरणों में नहा कर स्वर्णमुकुट धारण कर चुके थे।

    कुछ देर में सभी तैयार हो गए। बाबा ने बताया कि यहां से उनकी गुफा 4 कि. मी. और शून्य बिंदु (जीरो प्वाइंट) से 5 कि. मी. दूर है, जहां से पिंडर हिमनद और पिंडरगंगा का उद्गम साफ दिखाई देता है। सामान्यतः यात्री शून्य बिंदु तक ही जाते हैं। यह समुद्रतल से 13000 फीट की ऊंचाई पर है। शून्य बिंदु से आगे का रास्ता खतरनाक है और बिना पर्वतारोहण में प्रशिक्षण लिए तय करना उचित नहीं।

    कुछ देर आगे बढ़ने पर बांए पिंडरगंगा के उस पार एक विशाल गुफा दिखाई पड़ी, जिसके बगल से ही एक ऊंचा प्रपात गिरता था। सामने दूर-दूर तक बर्फ जमी थी। बाबा ने बताया कि यह भंडार गुफा है जिसमें आज भी मथुरादास, काशीनाथ बाबा और कई दुर्लभ संतों का निवास है। वापसी में गुफा देखने का संकल्प कर हम आगे बढ़ गए।

    पिंडरगंगा के किनारे-किनारे सब लोग आगे बढ़ रहे थे। न पेड़-पौधे दिखाई पड़ते थे, न पशु-पंछी। रास्ते में कई जगह जमी हुई बर्फ को सावधानी से पार करते हुए सबलोग बाबा की गुफा तक पहुंच गए।

    बाबा की गुफा पिंडरगंगा के तट पर पेग्माटाइट चट्टान को काट कर बनाई गई थी। गुफा का द्वार छोटा था। झुक कर गुफा में प्रवेश करना पड़ता था। गुफा के बगल में ही दो अन्य कुटिया बनी थी, जहां उनके शिष्य साधना करते थे। निकट ही नंदादेवी का मंदिर था, जिसे बाबा ने खाती गांव वालों के सहयोग से बनवाया था।

    थोड़ी देर विश्राम करने के बाद सबने पिंडर हिमनद की ओर प्रस्थान किया। बाबा अपने शिष्यों के साथ पिंडरगंगा के उद्गम की ओर बढ़ गए। वीडियो फिल्म के छायाकार हमारे साथ थे। शून्य बिंदु पर पहुंच कर हम रूक गए। सामने उत्तर में पिंडर हिमनद हिमकिरीट धारण कर प्रकृति के सिंहासन पर विद्यमान था। नीचे पश्चिम तरु पिंडरगंगा प्रपात के रूप में गिर रही थी। कैमरे के टेलीलेंस से वहां बाबा साफ नजर आ रहे थे।
    पिंडर हिमनद पर अटखेलियां करती सूर्य रश्मियां मन को गुदगुदा रही थी। उदयशंकर की स्वरलहरी उस निर्जन हिमाद्री के ऊपर से किसी प्रणयी विहग की तरह उड़ान भरने लगी।

    ‘गुल चढ़ाएंगे लहद पर थी मुझे जिनसे उम्मीद,

    वो भी पत्थर रख गए है सीने पे दफनाने के बाद।

    ला पिला दे साकिया पैमाना पैमाने के बाद

    होश की बातें करेंगे होश में आने के बाद।’

    न जाने कब तक यूं ही वे पीते-पिलाते रहे। अनायास कुछ लोग नीचे पूरब की तरु जमी बर्फ की ओर बढ़ गए। कुछ देर में हम भी वहीं पहुंच गए। बर्फ के टुकड़े एक दूसरे पर फेकने में बड़ा आनंद आ रहा था। हिम पर फिसलने को भी कुछ लोग जा रहे थे। हिम क्रीड़ा ऐसा रंग लाई कि पचपन वाले भी बचपन में पहुंच गए। दोपहर तक सबलोग बाबा की गुफा लौट आए।

    दोपहर खाना खाने के बाद वापस चलने के लिए सब तैयार होने लगे। लेकिन मेरा मन अभी लौटने का नहीं था। बाबा के साथ रातभर गुफा में बिताने की इच्छा थी और पिंडरगंगा के उद्गम तक जाने के लिए भी मन मचल रहा था। दोनों ही बातें कठिन थी, मगर बाबा ने प्रेमवश स्वीकार कर लिया। सब वहीं रूक गए।

    शाम को मौसम बहुत सुहाना हो गया था। पिंडर घाटी में बड़ी तेजी से आते हुए बादल किसी प्रेमी यक्ष के संदेशवाहक मेघदूत की तरह प्रतीत हो रहे थे। नंदादेवी के मंदिर के पास बहुत देर तक भजन कीर्तन होता रहा।

    सूर्य रश्मियां पिंडर घाटी से विदा ले चुकी थी। हिममंडित चोटियों का रंग बार-बार बदल रहा था। बाबा नंगे बदन हो कर भी सहज थे, मगर मुझे ठंड महसूस होने लगी थी। संयोग से वहां दो गड़ेरिए भी आ गए। बाबा ने उनसे पहाड़ी घास का बंडल मंगवाया और गुफा में बिछवा दिया। अधिकतर लोगों को फुरकिया भेज दिया गया। वहां केवल बाबा, स्वामी शिवानंद, शंकरानंद, और हम रह गए। उदयशंकर अस्वस्थ होने के कारण फुरकिया लौट गए। रात में तापक्रम शून्य डिग्री हो जाता था। यह जानते हुए भी गुफा में ठहरने का ‘एड्वेंचर’ मेरे मन में रोमांच पैदा कर रहा था। गुफा को अंदर से गरम करने के लिए आग जला दी गई। रात का खाना खा-पी कर हमलोग जल्दी ही गुफा में घुस गए। स्वामी शिवानंद और शंकरानंद निकट स्थित नंदादेवी के मंदिर में चले गए।

    गुफा के एक भाग से टकराकर बाबा की पीठ छिल गई। बाबा ने जल्दी से धूनी की राख चोट वाले स्थान पर मल ली और गुफा को सहला कर बोल उठे--‘मैं जानता हूं, तू नाराज है। इस बार देर से आया हूं न! अच्छा मान जा! अब जल्दी-जल्दी आया करूंगा!’ बाबा का पाषाण से इस तरह बातें करना मुझे कुछ विचित्र-सा लगा। मैंने सोचा--‘शिला से शिव तक, पदार्थ से परमात्मा तक और अहंकार से ओंकार तक पहुंचने का मार्ग विचित्रताओं से ही तो पटा है।’

    बीच में स्थित धूनी बुझा दी गई और गुफा का द्वार बंद कर दिया गया। बाबा पिंडारी खंड के कुछ दुर्लभ संतों के बारे में बताने लगे। ठंड काफी थी, लेकिन थोड़ी देर में हमें नींद आ गई।

    सुबह नींद जल्दी खुल गई। हिमाच्छादित शिखरों के आंगन में सूरज पाहुन बन कर आना ही चाहता था। नंदादेवी के मंदिर में पहुंचकर मैंने द्वार खटखटाया। बाबा के शिष्य स्वामी शिवानंद ने द्वार खोला। हम देख कर हैरान थे कि स्वामियों ने धूनी के सहारे ही रात काट ली थी।

    आज की यात्रा चूंकि बर्फ के ऊपर थी, अतः सात बजते-बजते हम लोग निकल पड़े। दिन चढ़ने पर दरारों के भीतर की बर्फ पिघल जाती और उनके ऊपर चलना खतरनाक हो जाता।

    सबलोग पिंडरगंगा के किनारे-किनारे चल रहे थे। तीखी ढाल थी, गिरे तो गए। लेकिन सभी खतरों को झेलते हुए हमसब पिंडरगंगा के स्रोत तक पहुंच ही गए। यहां हिमाच्छादित शिखरों के आंगन में जलप्रपात के रूप में गिरती हुई पिंडरगंगा का नाद किसी बंगाली नववधू के स्वागत में किए गए शंखनाद की तरह सुनाई पड़ रहा था। बाबा बच्चे की तरह किलकारी मार रहे थे। देखते ही देखते वे एक हिमगह्वर में घुस गए। काफी देर हो गई थी, पर वे नहीं निकले। हम सब चिंतामग्न हो गए। तभी वे मुस्कुराते हुए बाहर आ गए। वे एक चट्टान पर से दूसरी चट्टान पर किसी टार्जन की तरह छलांग लगा रहे थे। फुरकिया डाकबंगले का चौकीदार और पिंडारी हिमालय में बाबा का चिर सहचर हयात सिंह भी उनके साथ ही था। संतोष और विजय का भाव लिए सब लौट पडे़।

    बागेश्वर से आई दो बहनें पूनम और उमा बाबा की गुफा के निकट इंतजार कर रही थीं। बाबा ने परिचय कराया। पूनम बहुत ही जीवंत और ऊर्जावान थी। उसकी मां वीरा जी गृहस्थ जीवन में रह कर भी उच्च कोटि की साधिका थी। बाबा उन सबके जीवट की सराहना करने लगे और पर्याप्त प्यार देने लगे। चाय पीने के बाद हम सब बाबा की गुफा को अंतिम प्रणाम निवेदित कर चल पड़े।

    रास्ते में भंडार गुफा के पास बाबा का कारवां रूका। पिंडरगंगा के उस पार गुफा साफ दिखाई पड़ रही थी। उसमें जाने के लिए पिंडरगंगा में लगभग सौ फीट की उतराई थी और फिर इतनी ही चढ़ाई। बाबा तो कूदते-फांदते उतर गए। उनके साथ उनके शिष्य और अन्य लोग भी चल पड़े। हम सब इसी किनारे बैठ कर बाबा और उनके कारवां का गुफा प्रवेश देखते रहे। लौट कर उन लोगों ने बताया कि लगभग साठ फीट अंदर जाने के बाद गुफा चट्टानों से बंद कर दी गई है।

    थकान तो थी ही, अब हम सभी भूख और प्यास भी महसूस कर रहे थे। पानी तो निकट ही बह रहा था, मगर वह इतना ठंडा था कि एक-दो घूंट से ज्यादा पीना मुश्किल था। बाबा का कारवां आगे बढ़ गया। हम कुछ लोग वहीं बैठे रह गए। मैंने प्रार्थना की कि गुफा के अंदर कोई संत हों तो बाहर आ कर दर्शन दें। कुछ क्षणों में ही एक दिव्य आकृति बाहर निकली। मैंने प्रणाम किया और लगभग पांच मिनट तक हम उनको निहारते रहे। एकाएक फोटो लेने का विचार आया। लेकिन मैंने ज्योंही कैमरा सम्हाला, वह दिव्यमूर्ति गुफा के अंदर चली गई। बाद में डीलडौल आदि जानने के बाद पायलट बाबा ने बताया कि वे संभवतः हिमालय के प्रसिद्ध संत बाबा काशीनाथ थे।

    द्वाली में बिस्कुट-चाय से बहुत ही तृप्ति मिली। लगभग चार बजे हमारा कारवां खाती पहुंचा। हमं जोरों की भूख लगी थी। भरपेट भोजन कर सबने रात्रि विश्राम किया।

    दूसरे दिन खाती गांव में वीडियो फिल्म की शूटिंग हुई। बहुत सुंदर था यह गांव और उतने ही सरल थे यहां के लोग। पर्यटकों के साथ इनका व्यवहार अपनापन से भरा था।

    दूसरे दिन सबेरे सबने खाती को अलविदा कहा और पैदल भड़ारी को चल पड़े। ठाकुरी में सबने चाय-बिस्कुट लिया। उदयशंकर के रूमानी गीतों और हमसफरों की खिलखिलाहटों के बीच सफर करते हुए हमलोग लोहार खेत पहुंचे।
    यहां पायलट बाबा के साथ हम वयोवृद्ध महायोगी नारायण स्वामी के आश्रम में उनका दर्शन करने गए। नारायण स्वामी 130 वर्ष के थे, मगर पूरी तरह स्वस्थ थे। प्रथम विश्वयुद्ध के समय उन्होंने ग्वालियर राज्य की सेना में ब्रिगेडियर की हैसियत से अंग्रेजों की ओर से युद्ध में भाग लिया था। वे पहले मानसरोवर में रहते थे। तिब्बत पर चीनी कब्जे के बाद लोहार खेत आ गए थे। बच्चों जैसी उनकी सरलता और हंसी सबका मन मोह लेती थी। उनकी और हिमालय के संतों की लंबी उम्र के बारे में पूछने पर कहने लगे--‘दो-तीन सौ वर्ष तक कई महात्मा रहे और चले गए। पर क्या फर्क पड़ता है? शरीर तो एक दिन गिर ही जाता है?’ उनकी निश्छल अभिव्यक्ति और करूणा में हम भीगते रहे। तभी जड़ी-बूटियों से बनी अत्यंत स्वादिष्ट चाय आ गई जिसे पी कर सभी अपनी सारी थकान भूल गए। नारायण स्वामी को अपनी स्मृति में गहरे संजोकर हम ने विदा ली।

    रास्ते में एक गुमटी पर चाय के लिए हमारा कारवां रूका। चाय के साथ भजन और गीतों का दौर चल पड़ा। हम चलने को उद्यत हुए कि मैं चौक कर सबको पूछने लगा कि मेरे जूते कहां हैं? सभी ढूंढने लगे। ढूंढ-ढूंढ कर सभी परेशान हो गए कि आखिर जूता गया कहां? तभी मेरा ध्यान अपने पैरों पर गया जिनमें जूता विद्यमान था। मैंने सबको बतलाया। एक समवेत कहकहे से हिमालय की घाटियां गूंज उठी। मेरे अंतरतम में गहरे एक बोध उतरता चला गया कि जिसे योगी, यती, सिद्ध, मुनि, तपस्वी, साधक, साधु, संत कहां-कहां नहीं ढूंढते, वह कितना पास है! ‘कस्तूरी कुंडल बसे।’

    हम लोग अलमोड़ा होते हुए नैनीताल आ गए। वहां से भीमताल, सातताल, नल-दमयंती ताल आदि कई रमणीक स्थानों का भ्रमण और बाबा के प्रेम में अवगाहन करते हुए कई दिन बीत गए।

    आखिर विदा का अवसर आ पहुंचा। पायलट बाबा और उनका शिष्य संघ बड़े अद्भुत प्रेम और भरे हृदय से विदा दे रहा था। चरण स्पर्श को झुकते ही बाबा ने मुझे गले लगा लिया। ऐसा अभूतपूर्व प्रेम बह चला जिसे शब्दों में वर्णन कर पाना कठिन है।

                         ~ सद्गुरु सिद्धार्थ औलिया जी 
    हिमालय में साधक बड़ी-बड़ी साधनाएं करते हैं, बड़ी-बड़ी सिद्धियां प्राप्त करते है, और जीवन का बहुत सा समय इसीमें निकल जाता है। फिर अंत मे सब कर लेने के बाद गुरु उन्हें सारतत्व 'ॐकार' का रहस्य बताते हैं। अर्थात ॐकार वहां अंतिम है। बड़ी दुर्गम और कठिन यात्रा है। सभी साधक इस परीक्षा में सफल नहीं हो पाते, कुछ विरले साधक ही सफल हो पाते हैं।

    तथा उसके बाद 'ॐकार' के साथ अब आगे कैसे यात्रा करनी है, उन्हें कोई मार्गदर्शन उपलब्ध नहीं होता!!

    आऔर ओशोधारा में गुरुदेव 'ॐकार' से साधना आरम्भ करते है।
    और फिर उसके अंनत आयामों से गुज़ारते हुए, ज्ञानयोग, भक्तियोग और कर्मयोग में साधकों को प्रतिष्ठित करा देते हैं।
     यह स्थिति हिमालय के बड़े-बड़े योगियों को भी उपलब्ध नहीं है।

    धन्यभागी है वे साधक जिन्हें गुरुदेव की शिष्यता प्राप्त हुई है, और जिन्होंने उनके हाथों में अपना हाथ सौंप दिया है, जिन्होंने उनके श्री-चरणों में अपने सारे जन्म बिताने का संकल्प ले लिया है, वे ब्रह्मांड के सबसे सौभाग्यशाली लोगों में हैं !!
    गुरुदेव का आध्यात्मिक स्तर वही है जो परमगुरु ओशो का है।
    वे इतनी उच्चतम विभूति है तथा गोविंद के इतने प्रिय हैं, कि चारों तरफ से समस्त शक्तियों का सहयोग उन पर प्रसाद रूप में सतत बरस रहा है।
    और वे अपने सभी शिष्यों को भी गोविंद का प्रिय बनाने के महत प्रयास में रत हैं।

    इस परमपावन अवसर को अबकी बार मत गंवाएं! इस बार अपने इस जन्म को अन्तिम जन्म बना लें। जन्मों-जन्मों की भटकन को समाप्त कर महिमामय, आनंदमय उस परमजीवन की यात्रा में गुरुदेव के साथ चल पड़ें!!

    गुरुदेव ने ओशोधारा में अध्यात्म के सर्वश्रेष्ठ मार्ग 'सहज-योग' को प्रतिपादित किया है, जिसके 3 आयाम हैं - ज्ञान योग, भक्ति योग और कर्म योग। ज्ञान योग का अर्थ है स्वयं को आत्मा जानना और आनंद में जीना। भक्ति योग का अर्थ है परमात्मा को जानना और उसके प्रेम में जीना। कर्म योग का अर्थ है आत्मा और परमात्मा से जुड़कर संसार का नित्य मंगल करना।

    आप सभी ध्यान-समाधि से चरैवेति तक संकल्प लेकर सतलोक की, बैकुंठ की अपनी यात्रा का शुभारंभ करें। ओशोधारा में आपका हार्दिक स्वागत है।
     गुरूदेव ने एक रहस्य की बात बताई है :- बैकुंठ में आत्मानन्द है पर ब्रह्मानन्द नहीं है, क्योंकि वहां भक्ति नहीं है।
    भक्ति सिर्फ मनुष्य शरीर से ही सम्भव है।
    सुमिरन सिर्फ सांसों के साथ ही किया जा सकता है।
    सन्त सुमिरन का आनन्द लेने के लिए, सांस-सांस आत्मानन्द + ब्रह्मानन्द  (सदानन्द) का आनन्द लेने के लिए ही पृथ्वी पर बार-बार आते हैं।

    हृदय में गुरूदेव और हनुमत स्वरूप सिद्धि के साथ गोविंद का सुमिरन!
    गुरूदेव ने आध्यात्मिक जगत में महाक्रान्ति ला दी है; ओशोधारा के साधकों के जीवन के केंद्र में गुरु हैं, सत-चित-आनन्द के आकाश में उड़ान है और सत्यम-शिवम-सुंदरम से सुशोभित महिमापूर्ण जीवन है!!

    गुरुदेव द्वारा प्रदत्त सुमिरन+हनुमत स्वरूप सिद्धि अति उच्चकोटि की साधना है।
    हनुमान स्वयं इसी साधना में रहते हैं, वे सदैव भगवान श्रीराम के स्वरूप के साथ कण-कण में व्याप्त निराकार राम का सुमिरन करते हैं।

    गुरुदेव ने अब सभी निष्ठावान साधकों को यह दुर्लभ साधना प्रदान कर आध्यात्मिक जगत में स्वर्णिम युग की शुरूआत कर दी है।

    सदा स्मरण रखें:-
    गुरु को अंग-षंग जानते हुए सुमिरन में जीना और गुरु के स्वप्न को विस्तार देना यही शिष्यत्व है।
    गुरु+गोविंद+शिष्य यह सिनर्जी ही सारे अध्यात्म का सार है!!
    और यह सतत चलता रहेगा, चरैवेति.. चरैवेति...।
    तुलसीसेवा हरिहरभक्तिः गंगासागर-संगममुक्तिः।
    किमपरमधिकं कृष्णेभक्तिर्न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं॥

    अर्थात - तुलसी की सेवा, विष्णु व शिव की भक्ति, गंगा सागर के संगम पर देह त्याग और अधिक क्या कहूँ परात्पर भगवान श्री कृष्ण की भक्ति भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं हैं॥

           नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां
           नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां

                                                ~ जागरण सिद्धार्थ 


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    7 comments:

    1. प्राणों का नर्तन समर्पित आपको ।
      प्यारे सदगुरू यह जीवन समर्पित आपको ।
      मेरे प्यारे सदगुरू बड़े बाबा औलिया जी के श्रीचरणो में श्रद्धा पूर्वक नमन ।।
      🙏🙏🙏🙏🙏

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    2. ⚘ जय सद्गुरुदेव⚘
      ⚘ जय ओशोधारा⚘
      🙏

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    3. ॐ परमतत्वाय नारायणाय
      गुरुभ्यो नमः
      प्रणाम प्यारे सद्गुरु बड़े बाबा के चरणों में
      प्रणाम प्यारे परमगुरु ओशो के चरणों में
      प्रणाम प्यारे पायलट बाबा के चरणों में
      अहोभाव
      बार बार नमन

      धन्यवाद ओशो जागरण जी का भी जिनके प्रयास से सदगुरु
      के जीवन की कुछ बहुमूल्य घटनाओं के बारे में जानने का अवसर मिल रहा है ।।

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    4. नमो सद्गुरु नमो नमो ।।।

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    5. बहुत सुंदर अहोभाव !!

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    6. बहुत सुंदर!! अहोभाव नमन!!

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    7. बहुत सुंदर!! अहोभाव नमन !!

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