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    गुरुदेव के संस्मरण ~ स्वामी आनंद देव (टाट बाबा)


    टाट बाबा सांख्ययोगी हैं और अक्रिया ध्यान का अनुमोदन करते हैं। उनका जोर करने से ज्यादा जागने पर है।
    वे ब्रह्मज्ञानी हैं। उनका आश्रम और निवास वृंदावन में है।
    सांख्य शुद्ध ज्ञान है।  सांख्य कहता है—करना कुछ भी नहीं है, सिर्फ जानना है।
    अगर कोई साधक ज्ञान की अग्रि इतनी जलाने में समर्थ हो कि उस अग्रि में उसका अहंकार जल जाए, सिर्फ ज्ञान की अग्रि ही रह जाए ज्ञान ही रह जाए, ज्ञाता न रहे; भीतर कोई अहंकार का केंद्र न रह जाए, सिर्फ जानना मात्र रह जाए, बोध रह जाए, ' अवेयरनेस' रह जाए, चैतन्य रह जाए, तो कुछ भी करने की जरूरत नहीं है। जानने की इस अग्रि से ही सब कुछ हो जाएगा। जानने की ही चेष्टा को करना काफी है। जानने की ही स्थिति को बढ़ा लेना काफी है। जानने में रोज—रोज अग्रसर होते जाना काफी है। होश बढ़ जाए, जागृति आ जाए, तो पर्याप्त है।

    लेकिन यह कभी करोड़ में एकाध आदमी को घटना घटती है। और जिस आदमी को करोड़ में भी यह घटना घटती है, वह भी न—मालूम कितने जन्मों की चेष्टाओं का फल होता है। लेकिन जब भी सांख्य की घटना किसी को घटती है तो वैसे व्यक्ति को प्रतीत होता है कि सिर्फ जानना काफी है। जानने से ही सब कुछ हो गया। लेकिन उसके भी अनंत—अनंत जन्म पीछे हैं। और अनंत जन्मों में करने की अनंत धाराएं बही हैं।

    इसलिए सांख्य की मान्यता बिलकुल सही होकर भी काम नहीं पड़ती है। कभी—कभी सांख्य का कोई एकाध व्यक्तित्व होता है, वह सांख्य की बातें कहे चला जाता है। मेरी खुद की मनोदशा वैसी रही है—सांख्य की। पंद्रह वर्षों तक मैं निरंतर कहा कहता रहा कि कुछ भी करना जरूरी नहीं है। सिर्फ होश से भर जाना काफी है। निरंतर लोगों से कहने के बाद मुझे खयाल हुआ कि उन्हें सुनायी ही नहीं पड़ता है। वे सोए हुए नहीं हैं, वे मुर्च्‍छित हैं। और उनकी समझ में भी आ जाता है, तब वह समझ मात्र बौद्धिक होती है, ऊपर—ऊपर होती है। शब्द पकड़ लेते हैं, सिद्धांत पकड लेते हैं। फिर उन्हीं सब शब्दों और सिद्धांतों को दोहराने भी लगते हैं। लेकिन उनके जीवन में कहीं कोई रूपांतरण नहीं होता।
    तब मुझे दिखायी पड़ा कि सांख्य फूल है। और जब फूल खिलता है, तब हमें खयाल भी नहीं आता जड़ों का। जड़ें छिपी पड़ी होती हैं अंधेरे गर्त में, पृथ्वी में।

    कृष्णमूर्ति के साथ यही भूल पूरे जीवन से चल रही है। वह लोगों से कह रहे हैं—कुछ करने की जरूरत नहीं है। लोग समझ भी लेते हैं। वैसी ही समझ जिससे नासमझी मिटती नहीं। सिर्फ छिप जाती है। लोग समझ भी लेते हैं कि कुछ करना नहीं है। तो जो कर रहे थे वह भी छोड़ देते हैं। और कृष्णमूर्ति जिस फूल के खिलने की बात कर रहे हैं वह फूल भी नहीं खिलता। तो बड़ी दुविधा में पड़ जाते हैं।
                                                    ~ परमगुरु ओशो
     अध्यात्म के इस अन्तहीन सफर पर चलते चलते बात बन रही थी और बात नहीं भी बन रही थी। बहुत कुछ अभूतपूर्व अनुभव ध्यान में घटते भी, लेकिन ऐसे भी क्षण थे, जब गुरुदेव अपने स्व में स्थित न होते। गुरुदेव    (सद्गुरु ओशो सिद्धार्थ औलिया जी) अपने निश्चय के प्रति पूर्णतः समर्पित थे। वह सब कुछ कर लेना चाहते थे। इस सफर के लिए वह अपना पूरा पुरुषार्थ लगा देना चाहते थे। वह ओशो को कहते हुए सुनते कि अध्यात्म का मार्ग ऐसा है ,जो यहां पर असफल भी हो गया, वह भी सफल है और संसार का मार्ग ऐसा है कि सफल होकर भी असफलता हाथ लगती है।

    अगर तुम इस मार्ग पर सफल नहीं भी हुए, तो भी तुम्हारे भीतर संतुष्टि होगी कि तुमने अपना पूरा पुरुषार्थ लगाया।
    संसार का डिज़ाइन ऐसा है कि सब कुछ पाकर भी भीतर की असंतुष्टि नहीं मिटती।

    गुरुदेव अक्सर यात्रओं पर अपनी तनख्वाह कटवा कर चले जाया करते थे, जिससे मां रेणु जी अक्सर विचलित हो जाया करती थीं, लेकिन गुरुदेव उन्हें अपनी यात्रा का महत्व समझाते, और बताते कि अध्यात्म के मार्ग पर चलने में अगर उनके प्राण भी चले जाएं तो भी उन्हें मंजूर है।
     माँ रेणु जी यह सुनकर अक्सर चुप हो जाया करती। पर अज्ञात भविष्य के लिए वह आशंकित तो हो जाती, लेकिन उन्हें इस बात का भी पूरा भरोसा था कि गुरुदेव अपनी जिम्मेदारियों से भी कभी मुख नहीं मोड़ेंगे।
    और अन्ततः अनिश्चितता के साथ उन्होने समझौता कर लिया। देखा जाए तो हर व्यक्ति का भविष्य अज्ञात है। नहीं जाना जा सकता कि अगला कदम कहाँ पड़ेगा, जिन्दगी कौन से रंग लेकर आएगी, कुछ भी जानने का कोई उपाय नही।
    गुरुदेव अपनी खोज के प्रति पूर्णतः समर्पित थे, और उन्हें पूरा भरोसा था कि अन्ततः वह सफल होंगे।

    1986 में सूफी बाबा के साथ गुरुदेव का कुम्भ मेले में जाने का कार्यक्रम बना। यह कुम्भ मेला हर 3 वर्षों में अलग-अलग स्थानों में संपन्न होता है। इस वर्ष हरिद्वार में आयोजित था। यह बहुत बड़ा आध्यात्मिक व धार्मिक समारोह था, जिसमें अनेक साधु संतो का आगमन होने वाला था।
    मेले में गुरुदेव  की मुलाकात भारत के बहुत बड़े संत स्वामी आनंद देव जी से हुई। जिन्हें टाट बाबा के नाम से जाना जाता है। क्योंकि वे कमर के नीचे टाट से बने हुए वस्त्र ही पहनते हैं। वृंदावन में उनका आश्रम है। गुरुदेव और टाट बाबा में थोड़ी ही देर में गहरी एकात्मकता बन गई।

    दोबारा 1990 में ओशो के महापरिनिर्वाण के बाद प्रयाग कुंभ मेले में गुरुदेव की मुलाकात टाट बाबा से हुई। वे अपनी संगत के साथ अपने कैंप में विराजमान थे। एकाएक टाट बाबा ने घोषणा की - ‘अब मैं ओशो के सद्शिष्य स्वामी आनंद सिद्धार्थ से निवेदन करूंगा कि हमारी संगत को बताएं कि एक व्यक्ति के जीवन में बसंत कब आता है?’

    गुरुदेव ससंकोच उठे। ओशो को याद किया। फिर बोले - ‘जब कोई व्यक्ति पूरा गुरू पा लेता है, तब उसके जीवन में बसंत आ जाता है। ऐसा बसंत, जो आता तो है, मगर फिर जाता नहीं।’
    टाट बाबा ने खशी से गुरुदेव को मंच पर ही अपनी गोद में उठा लिया। बोले - ‘ इसे कहते हैं सद्शिष्य!इनकी वाणी में सत्य की सुगंध है।’

    टाट बाबा से गुरुदेव की तीसरी मुलाकात 1991 में रांची में हुई, जब गुरुदेव ने अपने संस्थान सी.एम. पी. डी. आई. में व्याख्यान के लिए बुलाया। वे गेस्ट हाउस में ठहरे थे। एक दिन गुरुदेव ने उन्हें अपने घर पर बुलाया। आध्यात्मिक चर्चा चल पड़ी।
    चर्चा के दौरान उन्होंने गुरुदेव से पूछा कि ओशों की परंपरा में क्या आज कोई जीवित गुरु है?
    क्योंकि कोई भी धारा तभी तक जीवित रहती है जब तक उसमें जीवित गुरु उपलब्ध रहते हैं। गुरु परंपरा टूटते ही वह धारा मृत हो जाती है। और फिर उसके आसपास मतवादी और अहंकारी लोग इकटठे होने लगते हैं। और अपनी मनमानी करने लगते हैं!!

    गुरुदेव ने कहा, शायद अभी तो कोई नहीं हैं।
    टाट बाबा बोले वास्तव में यह दुर्भाग्यपूर्ण हैं। बिना किसी जीवित गुरु के ओशो की समृध्द परंपरा भविष्य में कैसे जीवित रह पाएगी?

    गुरुदेव को उनके इस प्रश्न ने बेचैन कर दिया, वे सोच में पड़ गए क्या अस्तित्व इतना कठोर मज़ाक करेगा? मेरे सद्गुरु ओशो का कार्य क्या अब समाप्त हो जाएगा? क्या इतने महान सद्गुरु का महत कार्य व्यर्थ चला जायेगा? उनके अनमोल कार्य को चलाने वाला क्या कोई नही रहेगा???

    पर जो सदशिष्य होते है उनका अपना कोई चिंतन, कोई स्वप्न नही होता। गुरु का स्वप्न उनका अपना स्वप्न होता है, और गुरु के कार्य को विस्तार देना ही एकमात्र ही उनका चिंतन होता है। ऐसे सदशिष्य अपने गुरु के कार्य को व्यर्थ जाने नहीं देते। और बाधाओं को वे चुनौतियां बना लेते हैं और अपने गुरु के महत कार्य को आगे ले जाने का दायित्व अपने ऊपर ले लेते हैं।

    गुरुदेव ने इस विराट चुनौती को स्वीकार किया और मनन किया कि सद्गुरु(ओशो) के कार्य को, उनके स्वप्न को अगर पूरा करना है तो मुझे बद्धत्व की तरफ यात्रा करनी होगी।

    गुरुदेव ने अपनी व्यक्तिगत साधना को और तीव्र कर दिया ताकि बद्धत्व का फूल खिल सके ताकि अपने गुरु के महान प्रयास को व्यर्थ जाने न दिया जाए।

    गुरुदेव शहडोल में एक धार्मिक कार्यक्रम के दौरान पुनः टाट बाबा से मिले। टाट बाबा ने उनसे पूंछा - ' क्या तुम संबुद्ध हो गए हो?' गुरुदेव ने कहा - ' अभी नहीं।'
    टाट बाबा ने कहा तुम 3 महीने के भीतर ही "संबोधि" को प्राप्त कर लोगे।
    उनका कहना बिल्कुल सत्य सिद्ध हुआ। 5 मार्च 1997 को बिलासपुर में गुरुदेव "संबोधि" को प्राप्त हुए।

    30 दिसंबर, 2004 को टाट बाबा से उनके वृन्दावन आश्रम में ओशोधारा संगत के साथ गुरूदेव का फिर मिलना हुआ। ब्रह्म ज्ञानी संत टाट बाबा ने गुरूदेव और संगत के सभी मित्रें को आशीष दिये, ओशोधारा में ओशो के काम का हाल चाल पूछा, जो सद्गुरू ने प्रेम पूर्वक बताया।
    फिर बड़े से बरामदेनुमा हाल में वहाँ उपस्थित बाबा के सारे शिष्य और ओशोधारा संगत के सभी मित्रों के सम्मुख टाट बाबा की शिष्या तथा आश्रम की सेक्रेटरी डाo प्रतिभा आनन्द ने ओशो को स्मरण करते हुए अपनी वाणी से सभी को सम्बोधित किया। गुरूदेव तथा टाट बाबा ने भी सभी को मार्गदर्शन देकर आशीर्वाद दिये। तख्त वाले मंच पर ऐसा लग रहा था कि खिले हुए दो कमल बाकी सबको खिलावट का न्योता भेज रहें हों। सबके सब आनन्द के अश्रुओं से भरपूर थे।

            ("बूंद से समंदर तक का सफ़र" से संकलित )
    नवंबर 2015 वृंदावन यात्रा में भी गुरूदेव का पूरी संगत के साथ उनसे फिर मिलना हुआ, और सभी साधको ने इस मिलन की अमृतवर्षा में भीगने का खूब आनंद लिया।
    बद्धत्व घटने के बाद गुरुदेव ने सनातन धर्म की गुरु-शिष्य परंपरा को ओशो के सपनों की "ओशोधारा" के रूप में फिर से जीवन्त कर दिया है। तथा समाधि और प्रज्ञा के 28-21 तलों के सुंदर कार्यक्रमों की रचना की है। जो उनके बहुआयामी विराट व्यक्तित्व को दर्शाती है। जिन कार्यक्रमों में भाग लेकर आज सदशिष्य प्रज्ञापूर्ण होते हुए परमात्मा के आकाश में नित-नूतन उड़ान भर रहे हैं।

    अब इस धारा को हम कितना आगे तक ले जाएंगे। यह हम सभी ओशोधारा के सदशिष्यों पर निर्भर करेगा। गुरुदेव ने तो अपने गुरु (ओशो) के कार्य को आसमान की ऊंचाइयों तक पहुंचा दिया, अब हम सबका दायित्व है कि हम अपने गुरुदेव के इस महान योगदान को प्रभु के प्यासों तक, पूरी मानवता तक पहुंचाएं।
    क्योंकि आज सम्पूर्ण मानवता का भविष्य एकमात्र ओशोधारा ही है।

    प्रभु की यात्रा पर चलने वाले सच्चे और परम साहसी साधकों को आमंत्रण हैं, कि ओशोधारा में आएं और ध्यान-समाधि कार्यक्रम चरैवेति तक का संकल्प लेकर, अपनी प्रभु की यात्रा का शुभारंभ करें और अध्यात्म जगत के गूढ़ रहस्यों में प्रवेश कर अबकी बार जन्म-मरण के चक्र से पार हो जाएं!
    प्रभु के द्वारा उपलब्ध कराए गए ओशोधारा रूपी इस महाअवसर को, तथा गुरुदेव (सद्गुरु ओशो सिद्धार्थ औलिया जी) के रूप में उपस्थित परम दिव्य चेतना के सान्निध्य का, यह दुर्लभ सौभाग्य अबकी बार मत गंवाएं!!!
     गुरुदेव कहते हैं :- अध्यात्म उन लोगों के लिए नहीं, जो व्यस्त व संतुष्ट हैं। यह तो जीवन का अर्थ जानने के इच्छुक साधकों का मार्ग है। यह मानसिक खुजली नहीं, आत्मिक खोज है।यह विद्वता नहीं, श्रद्धा का मार्ग है।कट्टरता नहीं, क्रांति का मार्ग है। छल और राजनीति करने वालों के लिए इसमें प्रवेश वर्जित है।

    गुरूदेव ने एक रहस्य की बात बताई है :- बैकुंठ में आत्मानन्द है पर ब्रह्मानन्द नहीं है, क्योंकि वहां भक्ति नहीं है।
    भक्ति सिर्फ मनुष्य शरीर से ही सम्भव है।
    सुमिरन सिर्फ सांसों के साथ ही किया जा सकता है।
    सन्त सुमिरन का आनन्द लेने के लिए, सांस-सांस आत्मानन्द + ब्रह्मानन्द  (सदानन्द) का आनन्द लेने के लिए ही पृथ्वी पर बार-बार आते हैं।

    हृदय में गुरूदेव और हनुमत स्वरूप सिद्धि के साथ गोविंद का सुमिरन!
    गुरूदेव ने आध्यात्मिक जगत में महाक्रान्ति ला दी है; ओशोधारा के साधकों के जीवन के केंद्र में गुरु हैं, सत-चित-आनन्द के आकाश में उड़ान है और सत्यम-शिवम-सुंदरम से सुशोभित महिमापूर्ण जीवन है!!

    गुरुदेव द्वारा प्रदत्त सुमिरन+हनुमत स्वरूप सिद्धि अति उच्चकोटि की साधना है।
    हनुमान स्वयं इसी साधना में रहते हैं, वे सदैव भगवान श्रीराम के स्वरूप के साथ कण-कण में व्याप्त निराकार राम का सुमिरन करते हैं।

    गुरुदेव ने अब सभी निष्ठावान साधकों को यह दुर्लभ साधना प्रदान कर आध्यात्मिक जगत में स्वर्णिम युग की शुरूआत कर दी है।

    सदा स्मरण रखें:-
    गुरु को अंग-षंग जानते हुए सुमिरन में जीना और गुरु के स्वप्न को विस्तार देना यही शिष्यत्व है।
    गुरु+गोविंद+शिष्य यह सिनर्जी ही सारे अध्यात्म का सार है!!
    और यह सतत चलता रहेगा, चरैवेति.. चरैवेति...।
     एकोहि नामं एकोहि कार्यं,
     एकोहि ध्यानं एकोहि ज्ञानं।   
     आज्ञाम सदैवं परिपालयन्ति,
      गुरुरवै शरण्यं गुरुरवै शरण्यं।।

                नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां
                नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां

                               ~ जागरण सिद्धार्थ

       ★ टाट बाबा जी का प्रवचन 👇★
    https://youtu.be/wjCikxA5TwU

                 
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    9 comments:

    1. जय गुरुदेव । जय ओशो । जय ओशो धारा ।

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    2. जय गुरुदेव ।
      आपके पावन चरणों में मेरा प्रणाम ।
      🙏🙏🙏🙏🙏

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    3. Sat sat Naman...
      Jai Osho Jai Oshodhara

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    4. जय गुरुदेव🌷🌷🌷🌷🌷
      ॐ सद्गुरु गोविन्दाय परमतत्वाय नारायणाय नमः

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    5. mai kaise janu ki mera swadharm abhi kya hai as a seekers

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