गुरु की महिमा गाओ रे मना...
शील संतोष क्षमा जिनके घट लगी रहयौ सु अनाहद नादू।।
मेष न पक्ष निरंतर लक्ष जु और नहीं कछु वाद-विवादू।
ये सब लक्षन हैं जिन मांहि सु सुंदर कै उर है गुरु दादू।।
कोउक गौरव कौं गुरु थापत, कोउक दत्त दिगंबर आदू।
कोउक कंथर कोउ भरथथर कोउ कबीर जाऊ राखत नादू।
कोई कहे हरिदास हमारे जु यों करि ठानत वाद-विवादू।
और तौ संत सबै सिरि ऊपर, सुंदर कै उर है गुरु दादू।।
- सुंदरदास अपने गुरु के गीत गा रहे हैं। कितने ही गीत गाओ, छोटे पड़ जाते हैं। क्योंकि जो गुरु से मिला है, उसका कोई मूल्य आंका नहीं जा सकता। शिष्य सदियों से गुरु के गीत गाते रहे हैं। ये गीत प्रशस्तियां नहीं हैं। प्रशस्तियां तो झूठी होती हैं। प्रशस्तियों के पीछे तो हेतू होता है, मॉटिवेशन होता है।
सुना है मैंने, अकबर के दरबार का एक कवि, बैठा कुछ लिख रहा था। अकबर पास से गुजरा, तो उसने यूं ही मजाक में पूछ लिया था कि आज कौन सी झूठ गढ़ रहे हो? उस कवि ने जो कहा, वह अकबर को बहुत चौंका गया। उसने अपनी आत्मकथा में इस बात का स्मरण किया है। उस कवि ने कहा: अब आपने पूछ ही लिया, तो कहना ही पड़ेगा। आपकी प्रशस्ति लिख रहा हूं।
कौन सा झूठ गढ़ रहे हो? अकबर ने पूछा था।
आपकी प्रशस्ति लिख रहा हूं।
- शिष्य गुरु की प्रशस्ति नहीं लिखता है। शिष्य ने गुरु के साथ कुछ जागा, कुछ देखा, कुछ पाया। शिष्य गुरु के साथ रूपांतरित हुआ। एक रासायनिक क्रांति हो गयी। कुछ का कुछ हो गया। आया था दो कौड़ी का, बहुमूल्य हो गया। उसके परस से--मिट्टी थी, सोना हो गया। प्रशस्ति नहीं है यह शिष्य आनंद-विभोर हो, सदा से, सदियों से, गुरु के गीत गाया है। और फिर भी शिष्य को लगता रहा है कि जो कहना था कहा नहीं जा सकता।
- सुंदरदास कहते हैं: धीरजवंत...। ऐसे धैर्य से भरे हुए व्यक्ति के पहले कभी देखा था। सदगुरु का अर्थ ही होता है कि जिसका धैर्य अनंत हो। नहीं तो सदगुरु नहीं हो सकता। शिष्यों को गढ़ना अपूर्व धैर्य का काम है। चित्र बनाना आसान है। पिकासो बनाना कितना ही कठिन हो, लेकिन फिर भी कठिन नहीं है। तुम सीख ले सकते हो। और कम से कम एक बात तो पक्की है कि जब तुम चित्र बनाते हो। कैनवस पर, तो कैनवस कुछ गड़बड़ नहीं करता। भागता नहीं, दौड़ता नहीं, उल्टा-सीधा नहीं करता, तुम लाल रंग लगाओ, वह काला नहीं कर देता। कैनवस निष्क्रिय भाव से खड़ा रहता है। तुम्हें जो करना हो करो। मूर्तिकार जब मूर्ति गढ़ता है, तो पत्थर झंझटें नहीं डालता। लेकिन जब गुरु शिष्य को गढ़ता है तो शिष्य की तरफ से हजार झंझटें आती हैं। गुरु कुछ कहता है, शिष्य कुछ समझता है। उनकी भाषा के लोक गलत हैं। वे दो अलग आयाम में जी रहे हैं। गुरु किसी पर्वत-शिखर पर खड़ा है और शिष्य किसी अंधेरी गुहा में, खाई में खड्डे में--जहां कभी रोशनी पहुंची नहीं है, जहां चांद-तारों की कोई खबर नहीं पहुंची। गुरु ने सहस्र दल कमल को खिलते देखा है। शिष्य को उस कमल की कोई खबर भी नहीं है। उस कमल को समझने की भी कोई समझ नहीं है। कोई उपाय भी नहीं है।
- गुरु बोलता है किसी दूर आकाश से--और शिष्य पृथ्वी पर खड़ा है। जैसे आकाश पृथ्वी से बोले! बड़ी भाषा का भेद हो जाएगा। फिर जब गुरु बोलता है और शिष्य समझता है तो निश्चित ही कुछ का कुछ समझता है। इसलिए तो दुनिया में इतना विवाद, इतना उपद्रव। यह शिष्यों के कारण है, यह गुरुओं के कारण नहीं है।
गोविंद के किए जीव जात है रसातल कौं
गुरु उपदेशे सु तो छुटें जमफ्रद तें।
गोविंद के किए जीव बस परे कर्मनि कै
गुरु के निवाजे सो फिरत हैं स्वच्छंद तै।।
गोविंद के किए जीव बूड़त भौसागर में,
सुंदर कहत गुरु काढें दुखद्वंद्व तै।
औरउ कहांलौ कछु मुख तै कहै बताइ,
गुरु की तो महिमा अधिक है गोविंद तै।
~ परमगुरु ओशो
सुंदर दास जैसे सभी सदशिष्य अपने गुरु के गीत अनवरत गाते हैं और गाते रहेंगें ...।
भारतीय सनातन धर्म का आधार ही गुरु-शिष्य परंपरा है। ऋषियों का यह उदघोष :-
।। गुरुर ब्रह्मा गुरुर विष्णु , गुरुर देवो महेश्वरः ,
गुरुर साक्षात परम ब्रह्म , तस्मै श्री गुरुवे नमः।।
।। ध्यान मूलं गुरुर मूर्ति , पूजा मूलं गुरु पदम्
मंत्र मूलं गुरुर वाक्यं , मोक्ष मूलं गुरुर कृपा।।
- सारे सिद्ध, सारे संत, गुरूसाहिबान गुरु महिमा गाते हुए थकते नहीं है। सनातन धर्म के सारे शास्त्र, समस्त आध्यात्मिक परंपरा गुरु महिमा से आच्छादित हैं।
अध्यात्म का असली रहस्य ही यह है कि वह गुरू से शुरू होता है, और सतत गुरु पर ही चलता रहता है।
निगुरों और तथाकथित ज्ञानियों के लिए बड़ी बेचैनी रही है, कि गुरु की महिमा में ऐसा क्या है? गुरु में कौन सी विशेषता है। हमारे जैसे तो है फिर शिष्य उनकी महिमा गाने में क्यों लगे रहते है। सर्टिफिकेट क्यों देते रहते हैं?
पहली बात तो बहुत से मित्र निगुरे का अर्थ जानते ही नहीं है। बहुत ही सरल अर्थ है:- जो जीवित गुरु की सत्ता को इनकार करता है, जो जीवित गुरु से नहीं जुड़ता, वह है निगुरा। और जो थोड़ा सा ही पी केे बहक जाए ; वह तथाकथित ज्ञानी!!
और जो बहक कर गुरु के द्वारा दिये उस एकाक्षर महामन्त्र के महादान की उपेक्षा कर, गुरु सत्ता का इंकार कर, गुरु का विरोध करने में लग जाता है, उसे गुरुद्रोही कहा जाता है। और 'गुरुद्रोह' अध्यात्म जगत का सबसे बड़े अपराध है!!!
निगुरा मौको ना मिले, पापी मिले हज़ार।
इक निगुरे के शीश पे, लख पापी का भार।।
- ऐसे महाकृतघ्न मित्रों के लिए भगवान शिव ने स्पष्ट कहा है :-
गुरुर्देवो गुरुर्धर्मो गुरौ निष्ठा परं तपः।
गुरोः परतरं नास्ति त्रिवारं कथयामि ते।।
एकाक्षरप्रदातारं यो गुरुरनैव मन्यते।
श्वानयोनिशतं गत्वा चाण्डालेष्वपि जायते।।
गुरु को किसी सर्टिफिकेट की जरूरत नही होती है? वो तो गोविंद के प्रेम में सदा मग्न हैं, सदा एकरस हैं। गुरु की महिमा सदा शिष्य ही गाते हैं। और क्या करे शिष्य!
गुरु ने इतना दिया है!!!
आखिर शिष्य बदले में दे क्या सकता है !!
गुरु ने जो उसको अमोलक दिया है, जो उसे महिमा प्रदान की है!!
शिष्यों को भिखारी से सम्राट बना दिया है। गोविंद का चाकर बना दिया है। और अपने साथ उन्हें भी परम जीवन में प्रवेश करा दिया है, तो अब शिष्य गुरु महिमा न गाये तो क्या करे! उसका तो रोम-रोम सदा ही गुरु के ही गीत गायेगा। और फिर भी उसे लगेगा अभी मैं ठीक से कह नहीं पाया!! हर बार शब्द कम पड़ जाएंगे।
सदशिष्य तो हृदय में गुरु को धारण कर सदानन्द में जीते हुए गुरु की महिमा गाता रहेगा और निरंतर तन-मन-धन से गुरु के स्वप्न को विस्तार देता रहेगा। गुरु के स्वप्न को विस्तार देना ही शिष्य का एकमात्र परम कर्तव्य होगा।
और वास्तव में यह गोविंद की ही महिमा गाना और उसके ही अस्तित्व के मंगलमयता के महारास में शामिल होना है।
गुरुदेव ने ओशोधारा में अध्यात्म के सर्वश्रेष्ठ मार्ग 'सहज-योग' को प्रतिपादित किया है, जिसके 3 आयाम हैं - ज्ञान योग, भक्ति योग और कर्म योग। ज्ञान योग का अर्थ है स्वयं को आत्मा जानना और आनंद में जीना। भक्ति योग का अर्थ है परमात्मा को जानना और उसके प्रेम में जीना। कर्म योग का अर्थ है आत्मा और परमात्मा से जुड़कर संसार का नित्य मंगल करना।
सभी प्रभु प्रेमियों को प्रेम निमन्त्रण है कि आप सभी 'ध्यान-समाधि' कार्यक्रम से 'चरैवेति' कार्यक्रम तक का संकल्प लेकरअपनी परमजीवन की यात्रा का शुभारंभ करें। आप सभी को पक्का आश्वासन हैं, यदि शिआप शिष्य बनने आएंगे, तो इस युग के युगपुरुष गुरुदेव (सद्गुरु ओशो सिद्धार्थ औलिया जी) का शिष्यत्व तो आपको मिलेगा ही, साथ ही पूरा गोविंद भी आप पर बरस जाएगा, यह गारंटी है!!
गुरुदेव के साथ महिमामयी परमजीवन की यात्रा का।
जो सौभाग्य इस मनुष्यता को प्राप्त हुआ है, उसे यूं ही व्यर्थ न जाने दें!
माता-पिता, बन्धु-बांधव, पति-पत्नी तो सदा मिलते रहेंगे। पर ऐसे महिमावान गुरुदेव का शिष्यत्व! और उनके साथ गोविंद के महारास में शामिल होने का महा अवसर... फिर मिले... जरूरी नही!!!
गुरूदेव ने एक रहस्य की बात बताई है :- बैकुंठ में आत्मानन्द है पर ब्रह्मानन्द नहीं है, क्योंकि वहां भक्ति नहीं है।
भक्ति सिर्फ मनुष्य शरीर से ही सम्भव है।
सुमिरन सिर्फ सांसों के साथ ही किया जा सकता है।
सन्त सुमिरन का आनन्द लेने के लिए, सांस-सांस आत्मानन्द + ब्रह्मानन्द (सदानन्द) का आनन्द लेने के लिए ही पृथ्वी पर बार-बार आते हैं।
मम देह रूपं मम प्राण रूपं।
पूर्णत्वं देह मम प्राणः सदेवं ;
त्वमेवं शरण्यं त्वमेवं शरण्यं
नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां
नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां
~ जागरण सिद्धार्थ
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गुरू मेरी पूजा, गुरू गोविन्द ।गुरू मेरा पारब्रम ,गुरू गोविन्द । मेरे गुरु गोविन्द बङे बाबा जी के पावन चरणों में कोटि-कोटि नमन । 🙏🙏🙏🙏🙏
ReplyDelete⚘Jai Sadguru Dev⚘
ReplyDelete⚘ 🙏⚘
शिष्यतव तो मिलेगा ही गोविंद भी पूरा बरसेगा। यही हो रहा है। अहो भाव सदगुरु कोटि कोटि नमन
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