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    गुरुदेव के संस्मरण ~ औघड़ भगवान राम

    औघड़ भगवान राम जी का जन्म 12 सितंबर 1937 में बिहार राज्य के आरा के गुंडी ग्राम में हुआ था। वो अपने पिता श्री वैद्यनाथ सिंह और माता लखराजी देवी के इकलौते पुत्र थे। 5 वर्ष की अवस्था में ही औघड़ भगवान राम जी के पिता का देहांत हो गया था।
    उन्होंने सात साल की अवस्था में ही अपने घर और गांव को छोड़ दिया। चौदह वर्ष की आयु में वे वाराणसी के 'क्रीं कुंड' स्थल पर गये और वहां श्री राजेश्वर राम जी की शिष्यता प्राप्त की और उनसे दीक्षा पाकर अघोर परंपरा में प्रतिष्ठित हो गये। कुछ समय पश्चात वो 'क्रीं कुंड' से निकलकर अनेक स्थानों का भ्रमण करने लगे। वे पवित्र तीर्थ स्थान गिरनार पर्वत श्रृंखला पर गये और वहां भगवान दत्तात्रेय का आशीर्वाद भी उन्हें प्राप्त हुआ।

    बाबा औघड़ भगवान राम ने अघोर परम्परा से हटकर अपने को समाज में स्थापित करने का निर्णय लिया। वो चाहते थे कि समाज में आकर औघड़ अपनी क्षमता और समय को जनकल्याण में लगायें। इसी उद्देश्य से समाज, राष्ट्र और मानवता की सेवा के लिए उन्होंने 'श्री सर्वेश्वरी समूह' की स्थापना 29 सितंबर 1961 को की।

    29 नवंबर 1992 को औघड़ भगवान राम जी ने समाधि ले ली। वाराणसी स्थित उनकी समाधि का नाम " महाविभूति " स्थल है।
    औघड़ भगवान राम से गुरुदेव (सद्गुरु ओशो सिद्धार्थ औलिया जी) का मिलन कोल इंडिया में महाप्रबंधक के रूप में कार्यरत श्री उमाशंकर सिंह जी के माध्यम से होता था। वे गुरुदेव के मित्र और औघड़ बाबा के शिष्य थे।उनकी पत्नी सुश्री मीरा जी औघड़ बाबा की सचिव के रूप में कार्यरत थीं। बात 1990-91 की है।

    एक दिन श्री उमाशंकर सिंह जी ने बताया कि वे औघड़ बाबा से मिलने जा रहे हैं। गुरुदेव ने उनसे अनुरोध किया कि "सांख्य गीता" उनकी ओर से वे औघड़ बाबा को भेंट कर दें। श्री उमाशंकर सिंह जी ने सहर्ष इसे स्वीकार कर लिया।
    गुरुदेव के द्वारा रचित अद्भुत ग्रंथ "सांख्य-गीता" (अष्टावक्र-जनक संवाद) उसी तरह प्रकट हुई थी जैसे ऋषियों के द्वारा वेद , मोहम्मद साहब के द्वारा कुरान आविर्भूत हुई थी।

    औघड़ बाबा उस समय मध्य प्रदेश के अपने सोगड़ा आश्रम में प्रवास कर रहे थे। श्री उमाशंकर सिंह जी ने "सांख्यगीता" पुस्तक उन्हें गुरुदेव की ओर से भेंट कर दी। औघड़ बाबा ने कहा - ‘यह पुस्तक मैं जरूर पढ़ूंगा। कल सुबह तुम तैयार होकर 3 बजे आ जाना। हम लोग बनारस चलेंगे।’

    श्री उमाशंकर सिंह जी अगले दिन तैयार होकर सुबह 3 बजे औघड़ बाबा के पास पहुंच गए। औघड़ बाबा भी तैयार बैठे थे और उनके हाथों में सांख्य गीता थी।  उन्होंने कहा --‘अद्भुत किताब है।
    रात मैं सोया नहीं। कई बार इसे पढ़ा। मगर ये किताब सिद्धार्थ जी की लिखी नहीं है। श्री उमाशंकर सिंह  जी चौंके और उन्होंने कहा - ‘बाबा, वे बड़े प्रामाणिक व्यक्ति हैं। किसी और की लिखी किताब को वे अपने नाम से प्रकाशित नहीं कर सकते। 'औघड़ बाबा हंसने लगे। बोले - ‘मैंने ऐसा कब कहा!

    मैंने इस किताब की कुछ पंक्तियां 30 साल पहले सुनी थीं। लेकिन तुम इसे नहीं समझोगे। सिद्धार्थ जी से कहना, वे समझ जाएंगे।’

    श्री उमाशंकर सिंह जी ने धनबाद लौटकर गुरुदेव को औघड़ बाबा की बात बताई। गुरुदेव आश्चर्यचकित हुए और बोले - ‘औघड़ बाबा ने ठीक कहा। मैंने भी पूरी सांख्य गीता लिखी नहीं। पहली बार इसे विज़न में मैंने सप्तऋषियों से सुना था। सांख्य गीता लिखते समय कई बार सप्तऋषियों ने मेरी मदद की। संभव है औघड़ बाबा ने भी सप्तऋषियों से इसे सुना हो।’
           ("बूंद से समंदर तक का सफ़र" से संकलित )
    गति, श्रुति, सत्य तथा तपस जिस में हो  वही ऋषि कहलाता है।

    सप्तऋषि मण्डल में 7 प्रमुख ऋषि हैं :-

    गौतम, भारद्वाज, विश्वामित्र, जमदग्नि, वसिष्ठ, कश्यप और अत्रि।

    1. गौतम :- इनका चरित्र अलौकिक था। ये न्यायशास्त्र के आचार्य और त्याग, वैराग्य और तप की मूर्ति थे। इनकी पत्नी का नाम अहिल्या था।

    2. भारद्वाज :- वैदिक ऋषियों में भारद्वाज-ऋषि का उच्च स्थान है। भारद्वाज-स्मृति' एवं 'भारद्वाज-संहिता' के रचनाकार भी ऋषि भारद्वाज ही थे। ऋषि भारद्वाज ने 'यन्त्र-सर्वस्व' नामक बृहद् ग्रन्थ की रचना की थी।

    3. विश्वामित्र :- ऋषि होने के पूर्व विश्वामित्र राजा थे।
    हरिद्वार में आज जहां शांतिकुंज हैं उसी स्थान पर विश्वामित्र ने घोर तपस्या करके इंद्र से रुष्ठ होकर एक अलग ही स्वर्ग लोक की रचना कर दी थी। विश्वामित्र ने इस देश को ऋचा बनाने की विद्या दी और गायत्री मन्त्र की रचना की जो भारत के हृदय में और जिह्ना पर हजारों सालों से आज तक अनवरत निवास कर रहा है।

    4. जमदग्नि ऋषि :- जमदग्नि ने अपनी तपस्या एवं साधना द्वारा उच्च स्थान प्राप्त किया था, जिससे सभी उनका आदर सत्कार करते थे। ऋषि जमदग्नि तपस्वी और तेजस्वी ऋषि थे।

    5. वसिष्ठ :- राजा दशरथ के कुलगुरु और राम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न के गुरु थे। वशिष्ठ ने राजसत्ता पर अंकुश का विचार दिया था। 'योग वासिष्ठ' ग्रन्थ इन्हीं के द्वारा प्रकट हुआ, जिसमे इन्होंने भगवान श्रीराम को ज्ञान का उपदेश दिया।

    6. कश्यप :- इनका आश्रम मेरू पर्वत के शिखर पर था, जहां वे पर-ब्रह्म परमात्मा के ध्यान में मग्न रहते थे। ये नीतिप्रिय थे और वे स्वयं भी धर्म-नीति के अनुसार चलते थे।

    7. अत्रि :- ऋग्वेद के पंचम मण्डल के द्रष्टा महर्षि अत्रि अनुसूया के पति थे। और भगवान दत्तात्रेय के पिता थे।
    अत्रि ऋषि ने इस देश में कृषि के विकास में अहम योगदान दिया था।

    इन सातों ऋषियों का मण्डल ही सप्तऋषि मण्डल कहलाता है।
    सप्तऋषियों का मिस्टिक ग्रुप आज भी जगत के मंगल के लिए सक्रिय है। और यह परमसौभाग्य है, कि  गुरुदेव उनके संपर्क में हैं।
    परमसौभाग्यशाली हैं वे जो ओशोधारा से जुड़े हैं, और जुड़ रहे हैं!
    और जिन्हें गुरुदेव का सानिंध्य प्राप्त हो रहा है!!

    गुरुदेव ने ओशोधारा में अध्यात्म के सर्वश्रेष्ठ मार्ग सहज योग को प्रतिपादित किया है, जिसके 3 आयाम हैं - ज्ञान योग, भक्ति योग और कर्म योग। ज्ञान योग का अर्थ है स्वयं को आत्मा जानना और आनंद में जीना। भक्ति योग का अर्थ है परमात्मा को जानना और उसके प्रेम में जीना। कर्म योग का अर्थ है आत्मा और परमात्मा से जुड़कर संसार का नित्य मंगल करना।

    यह आध्यात्मिक बसंत की घड़ी है! 
    यह दुर्लभ अवसर अबकी मत चूकना!!!
    क्योंकि ऐसी घड़ी पृथ्वी ग्रह पर 2500 साल बाद ही आती हैं!!
    ओशोधारा के ध्यान-समाधि कार्यक्रम से चरैवेति तक का संकल्प लेकर अपने परमजीवन की यात्रा का शुभारंभ करें।

    गुरूदेव ने एक रहस्य की बात बताई है :- बैकुंठ में आत्मानन्द है पर ब्रह्मानन्द नहीं है, क्योंकि वहां भक्ति नहीं है।
    भक्ति सिर्फ मनुष्य शरीर से ही सम्भव है।
    सुमिरन सिर्फ सांसों के साथ ही किया जा सकता है।
    सन्त सुमिरन का आनन्द लेने के लिए, सांस-सांस आत्मानन्द + ब्रह्मानन्द  (सदानन्द) का आनन्द लेने के लिए ही पृथ्वी पर बार-बार आते हैं।
    हृदय में गुरूदेव और हनुमत स्वरूप सिद्धि के साथ गोविंद का सुमिरन!
    गुरूदेव ने आध्यात्मिक जगत में महाक्रान्ति ला दी है; ओशोधारा के साधकों के जीवन के केंद्र में गुरु हैं, सत-चित-आनन्द के आकाश में उड़ान है और सत्यम-शिवम-सुंदरम से सुशोभित महिमापूर्ण जीवन है!!

    गुरुदेव द्वारा प्रदत्त सुमिरन+हनुमत स्वरूप सिद्धि अति उच्चकोटि की साधना है।
    हनुमान स्वयं इसी साधना में रहते हैं, वे सदैव भगवान श्रीराम के स्वरूप के साथ कण-कण में व्याप्त निराकार राम का सुमिरन करते हैं।

    गुरुदेव ने अब सभी निष्ठावान साधकों को यह दुर्लभ साधना प्रदान कर आध्यात्मिक जगत में स्वर्णिम युग की शुरूआत कर दी है।

    सदा स्मरण रखें:-
    गुरु को अंग-षंग जानते हुए सुमिरन में जीना और गुरु के स्वप्न को विस्तार देना यही शिष्यत्व है।
    गुरु+गोविंद+शिष्य यह सिनर्जी ही सारे अध्यात्म का सार है!!
    और यह सतत चलता रहेगा, चरैवेति.. चरैवेति...।
     चैतन्यं सशरीरं च, गुरुं ज्ञाननिधिं तथा
    प्राप्य धन्यम नरोयाति देवोअपि परिहीयते 

    अर्थात, जिनको साक्षात जीवित गुरु मिल जाते हैं , उनके भाग्य से तो देवता भी ईर्ष्या करते हैं।

                नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां।
                नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां।।

                                         ~ जागरण सिद्धार्थ
                 
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    1 comment:

    1. स्वामी अमित आनन्दJanuary 19, 2020 at 6:35 PM

      ।। जय औघड़ भगवान राम ।।
      ।। ॐ सप्तऋषये नमः ।।
      ।। जय गुरुदेव ।।

      ReplyDelete

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