• Breaking News

    ओशोधारा ~ सदशिष्यों की धारा

    जीवित सद्गुरु के बिना कोई विधि कार्य नहीं करती, चाहे वह कितनी ही अच्छी क्यों न हो! हकीकत में असली बात तो सद्गुरु है। उसकी जीवंत उपस्थिति वास्तविक बात है, न कि विधियां। एक जीवित सद्गुरु के साथ सब कुछ कार्य करता है। एक मृत (शरीर छोड़ चुके) सदगुरु के साथ कुछ भी कार्य नहीं करता। इसे अपनी चेतना में हमेशा के लिए बैठ जाने दो। यही कारण है कि अच्छी से अच्छी विधि बाद में बेकार सिध्द होती है। कोई विधि थोड़े ही न कार्य करती है? वह सद्गुरु ही है उस विधि के कार्य करने के पीछे। उसका स्वर्णिम स्पर्श है, उसका जादुई स्पर्श है। यह उसी का करिश्मा है, जो कार्य करता है। जब मैं विदा हो जाऊंगा, तब यह सूफी नृत्य इसी प्रकार चलता रहेगा और कुण्डलिनी भी होगी तथा सक्रिय ध्यान भी ठीक इसी प्रकार होगा, और सभी चीजें ठीक ऐसे ही चलती रहेंगी; लेकिन कोई चीज- जो कि उनकी आत्मा थी, अवश्य लुप्त हो जाएगी। तब ये केवल धार्मिक कर्मकांड जैसे रह जाएंगे। ठीक ऐसे ही जैसे कि ईसाई गिरिजाघरों में हो रहा है; हिन्दू कर रहे हैं , मुसलमान कर रहे हैं, बौद्ध कर रहे हैं।
    और ये विधियां केवल एक बार ही कार्य करती हैं। ये विधियां उस समय कारगर थीं जबकि बुद्ध जीवित थे। एक जीवित सद्गुरु की उपस्थिति में ही ये विधियां कार्य करती हैं; अकेले विधियां कोई कार्य नहीं करती। और यही विज्ञान और धर्म में भेद है। धर्म एक जादू है; धर्म एक रहस्य है। विज्ञान विधियों पर निर्भर है, धर्म जीवित सद्गुरुओं पर निर्भर है। धर्म उनकी उपस्थिति पर निर्भर है जो कि जाग गए हैं।

                                            ~ परमगुरु ओशो

    ओशोजगत में नज़र दौड़ाएं एक से एक ज्ञानी परम ज्ञानी, सभी ओशो के सन्देश को फैलाने में लगें है और कहेंगे ओशो के बाद अब किसी जीवित गुरु की जरूरत नही है। ओशो कह गए हैं, कि बस मेरे सन्देश को फैलाओ बाकी सब मैं कर लूंगा।

    इनसे पूंछो क्या है ओशो का सन्देश???
    एक भी सही उत्तर नही दे सकेगा!!
    कोई कहेगा, ध्यान, कोई कहेगा मौज मस्ती, कोई कहेगा जोरबा दि बुद्धा, कोई कहेगा वर्तमान में जियो, साक्षी रहो (न किसी को वर्तमान का पता है, न किसी को साक्षी का), सब मतवादी अपने-अपने मनमुखी व्याख्या करेंगें।
    क्योंकि ओशोजगत में अहंकारियो की जमात इक्कट्ठी हो गयी है! होना तो नहीं चाहिए था!! होना तो भक्तो को चाहिए था!!! क्योंकि ओशो स्वयं भक्त होने पर ही जोर दे रहे हैं :-

    भक्त हो सको तो फिर कुछ और होने की जरूरत नही है। भक्त न हो सको तो मज़बूरी में कोई और रास्ता चुनना पड़ता है। भक्त हो सको तो धन्यभागी हो! मैं तुम्हें भक्त बना सकूँ! और ध्यान रहे कि मैं भक्त नहीं था, इसलिए सारी तकलीफें जानकर तुमसे कह रहा हूँ। मुझे रेगिस्तान का अनुभव है, इसलिए तुमसे कह रहा हूँ। इसलिए तुमसे कह सकता हूं कि बच सको रेगिस्तान से तो बच जाना। प्रेम के मरूद्यान से उपलब्ध हो सकता हो तो मरुस्थल में क्यों जाना ? मुझे कोई कहने को नही था, इसलिए भटकना पड़ा।
    तुम्हें भटकने की कोई जरूरत नही है। 

    पर महादुर्भाग्य घटा है!!!

    कोई भी ओशो की नही सुन रहा है, सब अपना अपना ज्ञान बघार रहे हैं!
    गुरु कहे सो कीजै करै सो नाही
    चरणदास की सीख यह रख ले उर माहि

    ओशो का असली सन्देश सिर्फ उनके सच्चे प्रेमी जानते हैं, और उनका एक ही सन्देश है और वह सन्देश समस्त ऋषियों, सन्तों, सिद्धों, समस्त बुद्धपुरुषों का है, वह है :- जीवित गुरु को खोजो, समर्पण करो और  ज्ञान से भक्ति की तरफ यात्रा करो।

    जिन्होंने सच में ओशो से प्रेम किया है वे ओशोधारा में गुरुदेव (सद्गुरु ओशो सिद्धार्थ औलिया जी) के श्री-चरणों में समर्पित होकर उस परमजीवन की यात्रा पर चल रहे हैं, और निरंतर चलते रहेंगें...।ओशोधारा से जुड़ना ही ओशो से Real प्रेम की कसौटी है, क्योंकि ओशो ही ओशोधारा में गुरुदेव के माध्यम से हमें अध्यात्म की महत ऊंचाईयों पर ले जा रहे हैं।

    कोई भी सद्गुरु जब विदा होता है, तो उसकी परंपरा में अगर दूसरा जीवित सद्गुरु उपलब्ध नहीं होता है तो वह परंपरा भी मृत हो जाती है, और सिर्फ मतवादियों, अहंकारियों का अड्डा बन जाती है।
    क्योंकि शरीर से विदा हुए सद्गुरु अपनी स्तर की चेतना से ही सम्पर्क स्थापित कर अपने स्वप्न को विस्तार देते हैं।
    अतीत की सारी आध्यात्मिक धाराएं जहां भी जीवित गुरु उपलब्ध नहीं रहे, मृत हो गयी, जहां अभी भी जीवित गुरु उपलब्ध हैं वेे परम्पराएं आज भी जीवित हैं।

    अब महाज्ञानी तथा गुरुद्रोही कहेंगें ओशो तो कह रहे हैं, कि :- गुरु का इतना ही मतलब है, कि परमात्मा तुम्हें अपरिचित है, उसे परिचित है। तुम भी उसे परिचित हो, परमात्मा भी उसे परिचित है। वह बीच की कड़ी बन सकता है। वह तुम्हारी मुलाकात करवा दे सकता है। वह थोड़ा परिचय बनवा दे सकता है। वह तुम दोनों को पास ला दे सकता है। एक दफा पहचान हो गई, फिर वह हट जाता है। उसकी कोई जरूरत नहीं है फिर।
    बिल्कुल सही कह रहे हैं, इसे सिर्फ ओशोधारा के सदशिष्य ही समझ सकते हैं, उच्च साधक ही समझ सकते हैं, कि
    आत्मानन्द में ब्रह्मानन्द में जब हम थिर होते हैं तब निराकार ही रह जाता है।
    तब वहां कोई साकार रूप नही होता, आत्मबोध भी नहीं होता।
    साक्षी सुमिरन में लौटते ही आत्मबोध भी आ जाता है और फिर गुरु भी आ जाते हैं। और गुरु को तो सतत अंग-षंग बनाना है, यह साधना की उच्चतम ऊंचाई है, इसके ऊपर कोई ऊंचाई नही है...।
    तो गुरु को छोड़ना कहां है???

    गुरु-गोविंद एक ही हैं, गोविंद का साकार रूप गुरु, गुरु का निराकार रूप गोविंद!!
    यह बड़ा रहस्य है, ज्ञानियों तथा गुरुद्रोहियों को यह राज कभी समझ नही आता है, वे इससे सदा चूक जाते हैं, और दुर्भाग्य के महादलदल में प्रवेश कर जाते हैं।
     लेकिन गोविंद की कृपा से इस धरा पर महासौभाग्य भी उदित हुआ है, वह है ओशो के बाद उस परम्परा में दूसरे सद्गुरु के रूप में गुरुदेव ( सद्गुरु ओशो सिद्धार्थ औलिया जी) का अवतरित होना और ओशोधारा रूपी मधुशाला को प्यासों के लिए उपलब्ध कराना...।

    यह परम सौभाग्य की घड़ी है, कि गुरुदेव के रूप में अति दिव्य चेतना इस धरा पर आज उपस्थित है और जिनके माध्यम से परम गुरु ओशो अध्यात्म के उन गूढ़ रहस्यों को खोल रहे है, जिन्हें वे रहस्य विद्यालय में खोलना चाहते थे!!

    गुरुदेव ने ओशोधारा में अध्यात्म के सर्वश्रेष्ठ मार्ग 'सहज-योग' को प्रतिपादित किया है, जिसके 3 आयाम हैं - ज्ञान योग, भक्ति योग और कर्म योग। ज्ञान योग का अर्थ है स्वयं को आत्मा जानना और आनंद में जीना। भक्ति योग का अर्थ है परमात्मा को जानना और उसके प्रेम में जीना। कर्म योग का अर्थ है आत्मा और परमात्मा से जुड़कर संसार का नित्य मंगल करना।
    अर्थात समाधि और सुमिरन कार्यकम हमे सत-चित-आनन्द में प्रतिष्ठित करते हैं। तो प्रज्ञा कार्यक्रम हमें सत्यम-शिवम-सुंदरम में प्रतिष्ठित करते हैं।

    यह परमसौभाग्य कि घड़ी है !!
    जो भी सच्चे साधक है वे ओशोधारा में ध्यान समाधि से चरैवेति तक संकल्प लेकर यात्रा करें, और जो चरैवेति कर रहें हैं, सतत करते रहें...।

    गुरूदेव ने एक रहस्य की बात बताई है :- बैकुंठ में आत्मानन्द है पर ब्रह्मानन्द नहीं है, क्योंकि वहां भक्ति नहीं है।
    भक्ति सिर्फ मनुष्य शरीर से ही सम्भव है।
    सुमिरन सिर्फ सांसों के साथ ही किया जा सकता है।
    सन्त सुमिरन का आनन्द लेने के लिए, सांस-सांस आत्मानन्द + ब्रह्मानन्द  (सदानन्द) का आनन्द लेने के लिए ही पृथ्वी पर बार-बार आते हैं।
    हृदय में गुरूदेव और हनुमत स्वरूप सिद्धि के साथ गोविंद का सुमिरन!
    गुरूदेव ने आध्यात्मिक जगत में महाक्रान्ति ला दी है; ओशोधारा के साधकों के जीवन के केंद्र में गुरु हैं, सत-चित-आनन्द के आकाश में उड़ान है और सत्यम-शिवम-सुंदरम से सुशोभित महिमापूर्ण जीवन है!!

    गुरुदेव द्वारा प्रदत्त सुमिरन+हनुमत स्वरूप सिद्धि अति उच्चकोटि की साधना है।
    हनुमान स्वयं इसी साधना में रहते हैं, वे सदैव भगवान श्रीराम के स्वरूप के साथ कण-कण में व्याप्त निराकार राम का सुमिरन करते हैं।

    गुरुदेव ने अब सभी निष्ठावान साधकों को यह दुर्लभ साधना प्रदान कर आध्यात्मिक जगत में स्वर्णिम युग की शुरूआत कर दी है।

    सदा स्मरण रखें:-
    गुरु को अंग-षंग जानते हुए सुमिरन में जीना और गुरु के स्वप्न को विस्तार देना यही शिष्यत्व है।
    गुरु+गोविंद+शिष्य यह सिनर्जी ही सारे अध्यात्म का सार है!!
    और यह सतत चलता रहेगा, चरैवेति.. चरैवेति...।
    गुरुरेव परौ धर्मो गुरूरेव परा गति:।
    एकाक्षर प्रदातमम् नाभिनन्दति।
    तस्‍य श्रुत तपो ज्ञानं स्रवत्यामघटाम्‍बुवत्।।

    गुरु ही परम धर्म है, गुरु ही परम गति है।
    जो एक अक्षर के दाता गुरु का आदर नहीं करता
    उसके श्रुत, तप और ज्ञान धीरे-धीरे ऐसे ही
    क्षीण होकर नष्ट हो जाते हैं
    जैसे कच्चे घड़े का जल।

             गुरुरवै शरण्यं गुरुरवै शरण्यं
             गुरुरवै शरण्यं गुरुरवै शरण्यं

                                      ~ जागरण सिद्धार्थ

                 
    Please click the following link to subscribe to YouTube 
    https://www.youtube.com/user/OshodharaVideos?sub_confirmation=1

    Twitter :
    https://twitter.com/SiddharthAulia

    Oshodhara Website
    www.oshodhara.org.in

    Please Like & Share on Official Facebook Page! 🙏
    https://m.facebook.com/oshodharaOSHO/

           


    9 comments:

    1. स्वामी अमित आनन्दJanuary 6, 2020 at 6:20 PM

      गुरु मेरी पूजा, गुरु गोविंद
      गुरु मेरा पारब्रह्म, गुरु भगवंत

      ।। गुरुदेव को नमन ।।

      ReplyDelete
    2. तीन लोक नौ खंड में गुरु ते बड़ा न कोय । कर्ता करे ना कर सके गुरु करे सो होय ।।
      ।। जय गुरुदेव ।।

      ReplyDelete
    3. सीस दिये जो गुरू मिले तो भी सस्ता जान ।
      मेरे कामिल मुर्शिद के पावन चरणों में मेरा सादर नमन ।
      जय गुरुदेव ।

      ReplyDelete
    4. सदगुरू मिलें तो जीवन आनन्द बन जाता है वर्ना कामनाओं के साथ दुखी होना नियति है।
      मेरे कामिल मुर्शिद के श्रीचरणो में श्रद्धा पूर्वक सजदा, नमन ।

      ReplyDelete
    5. साक्षात प्रभु मेरे सद्गुरू

      ReplyDelete
    6. गुरु मेरी पूजा, गुरु गोविंद
      गुरु मेरा पारब्रह्म, गुरु भगवंत

      ।। गुरुदेव को नमन ।।

      ReplyDelete
      Replies
      1. सद्गुरु शरणं गच्छामि 🙏

        Delete

    Note: Only a member of this blog may post a comment.

    Post Top Ad

    Post Bottom Ad