ओशोधारा ~ रास से महारास की ओर
कृष्ण के साथ प्रेमी तो थे, पर शिष्य नही थे, महारास तो गुरु और शिष्य के बीच ही घटता है, जिसमें गोविंद भी सम्मिलित होता है।
ओशोधारा में गुरुदेव (सद्गुरु ओशो सिद्धार्थ औलिया जी) ने गोविंद के महारास को इस धरती पर सभी प्रभु के प्यासों के लिए उतारा है, जिस तरह भगीरथ ने स्वर्ग से पावन गंगा को इस धरती पर उतारा था। आज तक के आध्यात्मिक इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ!
यह बड़ा ही दुष्कर और चुनौती पूर्ण कार्य था, और गुरुदेव ने इस चुनौती को स्वीकार किया, और अध्यात्म जगत के वे गूढ़ रहस्य, जो आकाश के फूल बन कर रह गए थे, उन्हें प्रायोगिक रूप से ओशोधारा रूपी मधुशाला खोलकर, सभी प्रभु के रिंदों के लिए सहज ही उपलब्ध कराया है।
आने वाली सारी मानवता उनके इस अप्रतिम महायोगदान के लिए सदैव ऋणी रहेगी...।
आश्चर्य होता है कुछ महाज्ञानी सद्गुरु पर सवाल उठाते हैं! जबकि सवाल स्वयं पर उठाना चाहिए, कि क्या मैं सदशिष्य हूँ!!
प्रज्ञावान जो होगा, जो सदशिष्य होगा वह अपने शिष्यत्व पर प्रश्न उठाएगा, कि मैं शिष्य हूँ कि नहीं !!
जितना गोविंद में हम पदस्थ होते हैं, उतना-उतना ही गुरु के प्रति हमारा अहोभाव बढ़ता जाता है, और इसका कोई अंत नही है, यह सदा चलता रहेगा, चरैवेति...।
एक ही कसौटी है! अगर सद्गुरु के प्रति हमारा अहोभाव कम हो रहा है तो कहीं न कहीं हमारे सुमिरन में भूल-चूक हो रही है!
क्योंकि जितना सुमिरन बढ़ेगा, उतना ही गुरु के प्रति अहोभाव बढ़ता जाएगा।
और अगर अहोभाव कम हो रहा है, तो सावधान होने की जरूरत है!!
क्योंकि यह रास्ता धीरे-धीरे योगभ्रष्ट और गुरुद्रोह की तरफ ले जाता है!!
यह रास्ता पतन का रास्ता है!!!
और यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है, क्योंकि गुरु के प्रति अहोभाव का कम होना, इस बात की तरफ भी इशारा है, कि गोविंद भी हमसे दूरी बना रहा है!!!
शिष्य और सद्गुरु की, बड़ी अनूठी बात।
आनंद उनका गोत्र है,उत्सव उनकी जात।।
गुरुद्रोही की नाव पर, जो भी हुआ सवार।
सबको ले खुद डूबता, बीच धार मझधार।।
गुरु-शिष्य-गोविंद बस यही है सारे अध्यात्म का सार और खेल, और यह निरंतर चलता रहेगा।
बैकुंठ से पृथ्वी, पृथ्वी से बैकुंठ... परमजीवन की यह यात्रा गुरु के साथ सतत चलती रहेगी, और यह यात्रा परम विश्रामपूर्ण है, चरैवेति...।
पर निगुरों और गुरुद्रोहियों को यह रहस्य कभी समझ में नही आता है!!!
सन 2002 से मैं लगातार, बिना रुके ओशोधारा में गुरु-चरणों में पहुंच रहा हूँ, 2016 में मेरे बड़े भाई साहब का अचानक मृत्यु हो जाने के कारण कुछ ऐसी परिस्तिथि बनी कि मेरा ओशोधारा जाना मुश्किल सा हो गया।
चरैवेति मैंने 2016 में ही कर ली थी इसके बाद आए नए कार्यक्रम मैं नही कर सका।
लेकिन मेरी चरैवेति करने की गुरु चरणों में जाने की, अपने साथ के गुरु भाई-बहनों से मिलने की बड़ी आकांक्षा रहती थी।
अबकी बार हम दो मित्र कानपुर से ओशो जन्मोत्सव मनाने के लिए 1 दिन के लिए 11 Dec 2019 को आश्रम पहुंचें, मैं कोई सामान लेकर नहीं गया था, क्योंकि 11Dec की रात ही वापसी थी।
वहां पहुंचने पर मेरे मित्र अतुल शुक्ला ने कहा मैं तो 2-3 दिन रहूंगा। मैं चौका, हमने तो एक दिन का तय किया था। मैंने सोचा अब क्या करें , मेरा भी रूकने का मन होने लगा।
मैंने सोचा कि अगर कोई प्रज्ञा कार्यक्रम चल रहा हो, जो मैंने नही किया, वही कर लेते हैं। पर ऐसा कोई कार्यक्रम उस समय चल नही रहा था।
फिर निष्काम ने कहा गुरुदेव से चरैवेति के लिए परमिशन ले लो।
एक तरफ से मुझे लग रहा था यह सही नही, कि कैसे कहूं क्योंकि मेरी प्रज्ञाएं रह गयी हैं, नियम तो नियम हैं, मुझे संकोच हो रहा था। और दूसरी तरफ मेरा यह भी भाव हो रहा था, कि काश! गुरुदेव मुझे चरैवेति करने कि इज़ाज़त दे देते।
मैंने गुरुदेव को सब बताया, तो उन्होंने ok कह दिया।
फिर आप सभी जानतें हैं, कि गुरुदेव का ok कहना! हमारे लिए कितना बड़ा आनन्द का क्षण होता है!!
इस तरह मेरी अनूठी "चरैवेति" सम्पन्न हुई।
और गुरुदेव ने चरैवेति में हमें नए-नए रहस्य प्रदान किये !!
गुरुदेव पर परमगुरु ओशो की असीम अनुकंपा सतत बरस रही है... अबकी चरैवेति में गुरुदेव ने हमें नया सूत्र दिया और बताया, बस बिल्कुल ताज़ा-ताज़ा, सीप के मोती की तरह अभी उतरा है। नेपाल के Coordinator स्वामी महेंद्र जी से मीटिंग चल रही थी, गुरुदेव ने बताया तभी एका-एक ओशो का सन्देश उतरने लगा, गुरुदेव ने कहा मुझे महेंद्र जी से कहना पड़ा, आप बाद में मिलिए।
और वह महत्वपूर्ण सूत्र गुरुदेव ने हमें ऐसे ही सहज प्रदान कर दिए।
अबकी बार गुरुदेव ने गुरु को अंग-षंग बनाने का, नाल बनाने का विशेष गूढ़रहस्य भी बताया!
जिसकी महत्ता सिर्फ गुरु भक्त ही समझ सकते हैं!!
मैं तो अपने सौभाग्य पर इतरा रहा हूं, कि गुरुदेव की कृपा से मुझे 3 दिन चरैवेति में प्रवेश मिला। अगर मैं कार्यक्रम में नही होता, तब भी मुझे पता तो चल जाता गुरु को अंग-षंग बनाने का रहस्य, पर वो बात नही बनती!
यह तो सीना-ब-सीना घटती है अर्थात कार्यक्रमों को करते रहने से ही घटती है।
मैं उस रहस्य की गरिमा को इतनी गहराई से कभी नही समझ पाता, जो गुरुदेव की दिव्य उपस्थिति में समझ में आयी है!
गुरुदेव की उपस्थिति हमारे बहुत से बंद द्वारों को, चक्रों को खोल देती है, जिनका हमको पता भी नहीं होता।
हृदय में गुरूदेव और हनुमत स्वरूप सिद्धि के साथ गोविंद का सुमिरन!
‘मुर्शिद’ मौजे मौज है, निराकार में खोय।
दिल में गुरू को राखिए, हर पल उत्सव होय।।
गुरू की याद बनी रहे, हर पल हो आनंद।
आत्म बोध में थिर रहो, भजो सच्चिदानंद।।
यह साधना हम सभी गुरुभक्तों के जीवन की सबसे बड़ी पूंजी होने वाली है, परमजीवन की पूंजी बनने वाली है।
गुरुदेव ने ओशोधारा में अध्यात्म के सर्वश्रेष्ठ मार्ग 'सहज-योग' को प्रतिपादित किया है, जिसके 3 आयाम हैं - ज्ञान योग, भक्ति योग और कर्म योग। ज्ञान योग का अर्थ है स्वयं को आत्मा जानना और आनंद में जीना। भक्ति योग का अर्थ है परमात्मा को जानना और उसके प्रेम में जीना। कर्म योग का अर्थ है आत्मा और परमात्मा से जुड़कर संसार का नित्य मंगल करना।
ओशोधारा अर्थात बैकुंठ का महायान!!
जो भी मित्र ओशोधारा में अपनी परमजीवन की यात्रा कर रहे हैं उनसे निवेदन है, कि ध्यान-समाधि से चरैवेति तक संकल्प लेकर परमजीवन की यात्रा की शुरुआत करें। और यह पक्का आश्वासन है, यदि निष्ठा और गुरुप्रेम से चले तो आप उस महिमा को जानेंगें, जो ऋषियों, सिद्धों, सन्तों, पैगम्बरों, गुरूसाहिबानों, पीरों, फकीरों और कलंदरों ने जानी है!!
और जो गुरुभाई-बहन चरैवेति कर चुके हैं, उनसे विशेष आग्रह है, कि वे निरंतर चरैवेति करते रहें...
गोविंद से मिलन की यात्रा नित नूतन है, अनन्त रहस्य हैं!!
गुरुदेव पर गोविंद की कृपा सतत बरस रही है...।
हम इतने प्रतिभाशाली नही हैं, कि एक बार में ही सब समझ जाएं!
बहुत से सूत्र हम पकड़ नहीं पाते, बहुत सी गहरी बाते हम miss करते रहते हैं।
रुकने की गलती कदापि न करें!!!
जिस तरह कंपनियां अपने सॉफ्टवेयर और apps को निरन्तर update करती रहती हैं, उसी तरह हमारी चेतना को भी निरंतर विकसित होते रहने की जरूरत पड़ती है!
गुरुदेव के साथ निरन्तर हमारी चेतना अपडेट होती रहती है, और ये समाधि, सुमिरन और प्रज्ञा के कार्यक्रम हमारी चेतना को निरन्तर अपडेट करते रहते हैं!
क्योंकि गोविंद के रहस्य का कोई अंत नही है, चरैवेति...
गुरूदेव ने एक रहस्य की बात बताई है :- बैकुंठ में आत्मानन्द है पर ब्रह्मानन्द नहीं है, क्योंकि वहां भक्ति नहीं है।
भक्ति सिर्फ मनुष्य शरीर से ही सम्भव है।
सुमिरन सिर्फ सांसों के साथ ही किया जा सकता है।
सन्त सुमिरन का आनन्द लेने के लिए, सांस-सांस आत्मानन्द + ब्रह्मानन्द (सदानन्द) का आनन्द लेने के लिए ही पृथ्वी पर बार-बार आते हैं।
और यह सतत चलता रहेगा, चरैवेति.. चरैवेति...।
गुरुरात्मा गुरुर्जीवो गुरोरन्यन्न विद्यते।।
💐नमो नमः श्री गुरु पदुकाभ्यां।
नमो नमः श्री गुरु पदुकाभ्यां।।💐
~ जागरण सिद्धार्थ
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मैने निर्वाण-समाधि के बाद यात्रा बन्द कर दी थी, लग रहा था सब हो गया। पर आपके लेख को पढ़ने के बाद मुझे झटका लगा! सच में मैं ज्ञानी हो गया था!
ReplyDeleteऔर धीरे-धीरे पुरानी स्थिति में ही लौटता जा रहा था, अब मैं फिर से यात्रा प्रारंभ कर रहा हूँ और अब निरन्तर करता रहूंगा। चरैवेति.. चरैवेति...
आपके इस जगाने वाले लेख के लिए आपको साधुवाद
।। जय ओशोधारा ।।
⚘ जय ओशोथारा ⚘
ReplyDelete🙏
मेरे गुरू गोविन्द के पावन चरणों में मेरा सादर प्रणाम ।
ReplyDeleteबहुत बहुत अहोभाव
ReplyDeleteBhut bhut ahobhav
ReplyDeleteMain bhi ruk hi jata, pr ab nhi.
Charaiveti...
Ahobhav Naman Sadguru ke pawan charno me
ReplyDeleteबहुत सुंदर 🌹🌹🌹🌹ओशो की अमृतवाणी में कहीं गई एक कविता याद आ रही है 🌹माननी सब कुछ निछावर चरण पर तेरे वरण कर पुण्य तम क्षण है🌹 खोल दे निज नयन पाटिल 🌹युगो युगो से स्निग्ध और तल🌹 वेदना बन जाए यमुना🌹 एक सुधि की सांस से गल🌹🌹🌹🌹
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