सदगुरु मिलै तो पाइए भक्ति-मुक्ति भंडार
दादू सहजै देखिए साहिब का दीदार।'
"सदगुरु मिलै तो पाइए'-कोई और उपाय नहीं है। सदगुरु मिल जाए, तो ही पाना हो सकता है। और जो भी इससे अन्यथा कोशिश में लगे हों, वे कभी भी पा न सकेंगे। और अगर कभी किन्हीं ने पा भी लिया हो, तो तुम यही समझना कि तुम्हें पता न हो लेकिन उनको सदगुरु कभी न कभी मिल गया होगा।
बहुतों को लगता है पहुंचने के बाद, कि क्या जरूरत थी किसी के सहारे की? अपना ही खजाना था, अपने को ही पाना था। पाया ही हुआ था। कभी खोया न था; सिर्फ जरा याद भूल गई थी। यादभर लाने के लिए किसके चरणों में जाने की जरूरत थी?
निश्चित यह बात सच है। जानकर ऐसा ही पता चलता है, किसी के पास जाने की जरूरत न थी। लेकिन जो नहीं पहुंचे हैं, उन्हें यह मत कहना। क्योंकि अगर उनके दिमाग में यह फितूर सवार हो गया, कि कहीं जाने की जरूरत नहीं, तो वे कभी भी न पहुंचेंगे। और उसके दिमाग में यह फितूर सवार हो जाना बहुत आसान है, क्योंकि यह अहंकार के बड़े पक्ष में है, कि किसी के पास जाने की कोई जरूरत नहीं है। कोई गुरु नहीं है। अहंकार स्वयं ही गुरु बनना चाहता है, कहीं झुकना नहीं चाहता।
अगर तुम अपने से ही पा सके होते, तो तुमने कभी का पा लिया होता। कितने जन्मों से तुम भटक रहे हो!
सारे धर्म एक बात कहते हैं कि प्रथम धर्म का जो आविष्कार है, वह परमात्मा ने ही किया होगा। जैसे हिंदू कहते हैं, वेद उसने ही रचे। मुसलमान कहते हैं कुरान उसने ही उतारी। ईसाई कहते हैं, बाइबिल उसके ही माध्यम, ईसा के माध्यम से आए उसके ही शब्द है। यहूदी कहते हैं, मोजेज़ को उसी ने सूत्र दिए हैं।
इन सारी कहानियों में एक बात बड़े अर्थ की है और वह यह; और मैं मानता हूं, कि उसमें बड़ा रहस्य है। ऐसा होना ही चाहिए, क्योंकि वही पहला गुरु हो सकता है। जब सभी लोग सोए थे, तो वही जागा था। उसने एक को जगा दिया होगा, फिर शृंखला शुरू हो गई। अन्यथा आदमी अपनी तरफ से कैसे जागता? इसलिए वेद उसने बनाए, कि नहीं, मुझे प्रयोजन नहीं है; लेकिन बात में सार है। पहला उदघोष, पहली उदभावना, पहला जागरण, पहला हाथ का इशारा सोए आदमी को उसने ही दिया होगा।
परमात्मा का अर्थ है, जो जागा हुआ है, चैतन्य है, उसने ही पहले आदमी को जगाया होगा। फिर पहले ने दूसरे को, फिर दूसरे ने तीसरे को, फिर अनंत शृंखला है।
इसलिए भारत में हिंदुओं के सारे शास्त्र ऐसे ही शुरू होते हैं, कि पहले ब्रह्मा ने उसको दिया ज्ञान, फिर उसने उस ऋषि को दिया, फिर उस ऋषि ने उस ऋषि को दिया, फिर ऐसा चलते-चलते-चलते कृष्ण भी वही कहते हैं।
इसका एक ही अर्थ है, कि जागा हुआ ही सोए हुए को जगा सकता है। इसलिए पहली किरण जागरण की परमात्मा से ही उतरनी चाहिए। सीधे तुम जाग न सकोगे। जागकर तुम पाओगे कोई अड़चन न थी, जाग सकते थे। लेकिन सीधे तुम जाग न सकोगे।
"सदगुरु मिलै तो पाइए भक्ति मुक्ति भंडार'।
~ परमगुरु ओशो
मतवादी मित्र कह रहे हैं किसी जीवित गुरु की जरूरत नही है, ओशो की किताबें, प्रवचन और उनकी ध्यान विधियां, उनके प्रवचनों के कैसेट पर्याप्त हैं, उसे सुनकर भी बुद्धत्व को उपलब्ध हो सकते हैं!!
ओशो ने तो स्वयं कहीं ऐसा नही कहा, कि मेरे जाने के बाद मेरे प्रवचन, किताबें, ध्यान की विधियां पर्याप्त होंगी!!
उन्होंने तो स्पष्ट कहा है कि मेरे जीवित रहते अगर तुम बुद्धत्व को उपलब्ध नही हुए तो जीवित गुरु की शरण में जाना।
उन्हें पता था, कि मेरे जाने के बाद ये अहंकारी मित्र क्या करने वाले हैं! इसलिए उन्होंने स्पष्ट चेताया था, कि मेरे जाने के बाद तुम लोग यही सक्रिय ध्यान...आदि, करते रहोगे और लोगों को भी करवाओगे, जो किसी काम आने वाले नहीं, क्योंकि कोई भी विधि तभी काम करती है, जब उसके पीछे जीवित सद्गुरु का हाथ होता है!!
गुरुद्रोही और निगुरों की गजब की जड़बुद्धिता है!
ओशो क्या कह रहे हैं, कोई सुन नही रहा है, और न सुनने को तैयार है!!
गुरु कही नही, मन कही करने में लगे हैं!!!
बस अपने अहंकार को सही सिद्ध करने के लिए अनर्गल कुतर्क पर कुतर्क कर जीवित गुरु को इनकार करने में लगे हुए हैं!!
और इस मूढ़ता में खुद तो पतन के रास्ते पर जा रहे हैं और नए साधकों को भी उसी तरफ ले जा रहे हैं!!
यह अध्यात्म जगत का सबसे बड़ा अपराध है!!!
बिना जीवित गुरु के सत्य को आज तक किसी ने न जाना है, और न आगे कभी भी कोई जान सकेगा।
ओशो और बुद्ध जैसी विराट चेतनाएं जन्मों-जन्मों से गुरु का दायित्व निभाने सदा इस पृथ्वी पर आती रहती हैं।
इस जन्म में उनका कोई गुरु न होना कोई मायने नहीं रखता। जिस किसी भी जन्म में वे पहली बार उपलब्ध हुए होंगे, गुरु के द्वारा ही हुए होंगें! अन्यथा कोई उपाय ही नही है!!!
ओशो की चेतना का स्तर बहुत ही उच्च और विशिष्ट है, पर अहंकारी उनसे अपनी तुलना कर, उन्हें मित्र मानकर अध्यात्म जगत की सबसे बड़ी भूल कर रहे हैं!
जो बहुत ही बचकानी और हास्यास्पद है!!
गुरुदेव (सद्गुरु ओशो सिद्धार्थ औलिया जी) ओशोधारा में हमें अध्यात्म की अपरिसीम ऊंचाईयों में ले जा रहे हैं। जिस तरफ ओशो ने स्वयं इशारा किया था,
"भक्त हो सको तो फिर कुछ और होने की जरूरत नही है।"
ओशो अपने इस वक्तव्य में अंतर्मुखी और बहिर्मुखी व्यक्तित्वों के साधना-मार्ग के चुनाव की बात नहीं कर रहे हैं!!
यहां वे ज्ञानयोग के आगे की बात, भक्ति योग की तरफ, सुमिरन की तरफ इशारा कर रहे हैं, जो ज्ञानयोग, आत्मयोग के आगे का चरण है....
ओशो के इस सारभूत आदेश को गुरुदेव ने ओशोधारा में बड़े ही सुव्यवस्थित ढंग से फलीभूत किया है, जो चमत्कार है!!
गुरुदेव ने ओशोधारा में अध्यात्म के सर्वश्रेष्ठ मार्ग 'सहज-योग' को प्रतिपादित किया है, जिसके 3 आयाम हैं - ज्ञान योग, भक्ति योग और कर्म योग। ज्ञान योग का अर्थ है स्वयं को आत्मा जानना और आनंद में जीना। भक्ति योग का अर्थ है परमात्मा को जानना और उसके प्रेम में जीना। कर्म योग का अर्थ है आत्मा और परमात्मा से जुड़कर संसार का नित्य मंगल करना।
इतना स्प्ष्ट मानचित्र आज तक पूरे आध्यात्मिक इतिहास में कभी नही रहा!
इससे पहले तक बड़ा भटकाव रहा है!!
गुरुदेव की जन्मों-जन्मों की साधना और गुरु सत्ता की कृपा से यह रहस्य ओशोधारा में आज सर्वसुलभ हुआ है!!
अब भी अगर हम अंधमतवादिता और गुरुद्रोहिता में कुतर्क पर कुतर्क करते रहें, उनका विरोध करने की मूढ़ता करते रहें तो इससे बड़ा दुर्भाग्य और कोई नही हो सकता!!
और आने वाला समय हमें कभी क्षमा नही करेगा, कि गंगा खुद हमारे द्वार पर आई पर हमने उसकी उपेक्षा कर उसमें स्नान करने का, उसके संग बहने का परमपावन अवसर गंवा दिया !!!
गुरुदेव हमें ओशोधारा में जहां ले जा रहे हैं, वह आत्मज्ञान तक सीमित नही है, वह आत्मज्ञान से बहुत आगे की यात्रा है, वे हमें गोविंद से प्रेम की परम यात्रा पर ले जा रहे हैं...
बुद्ध, महावीर,कृष्णमूर्ति, रमण.. जहां पर रुक जाते हैं, ओशोधारा में असली साधना वहां से शुरू होती है।
और यह हम सभी प्रभु के प्यासों के जन्मों जन्मों के पुण्य ही हैं, की गुरुदेव जैसी परम विभूति हमें उस परम दिव्य यात्रा पर ले चलने के लिए इस धरा पर उपस्थित है।
जो भी सच्चे साधक ओशोधारा में गुरुदेव के कहे अनुसार ईमानदारी और निष्ठा से साधना पथ पर चलेंगें, वे एक न एक दिन महसूस करेंगे कि वे इस पृथ्वी के परम सौभाग्यशाली लोगों में से एक हैं।
यह तो परम पियक्कड़ों का मयखाना है, जिसमें भी प्रभु की शराब पीने का परमसाहस हो, उनका ओशोधारा में स्वागत है।
वे ध्यान समाधि से चरैवेति तक का संकल्प लेकर अपने परमजीवन की यात्रा का शुभारंभ करें!!
हृदय में गुरूदेव और हनुमत स्वरूप सिद्धि के साथ गोविंद का सुमिरन!
सदा स्मरण रखें:-
गुरु+गोविंद+शिष्य यह सिनर्जी ही सारे अध्यात्म का सार है!!
और यह सतत चलता रहेगा, चरैवेति.. चरैवेति...।
करै भरोसा और।
सुख संपती को कह चली,
नहीं नरक में ठौर॥
कबीर माया मोहिनी,
जैसी मीठी खांड।
सतगुरु की किरपा भई,
नहीं तौ करती भांड॥
गुरुरवै शरण्यं, गुरुरवै शरण्यं
गुरुरवै शरण्यं, गुरुरवै शरण्यं
~ जागरण सिद्धार्थ
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Jai Sadgurudev
ReplyDeleteनिगुरों और गुरुद्रोहियों को आखिर यह समझ में क्यों नही आता है!!!
ReplyDelete।। जय ओशोधारा ।।
Jai Gurudev. Jai Osho .Jai Oshodhara .
ReplyDelete⚘ JAI SADGURUDEV ⚘
ReplyDelete⚘ JAI OSHODHARA ⚘
🙏
ऐसे गुरू को बलि बलि जाईये, आप मुक्त मोहे तारे ।
ReplyDeleteजो इस सौभाग्य की घङी में प्यास रहते चूक गया वो तो दुर्भाग्यपूर्ण ही होगा।
जय गुरुदेव ।
जय ओशो धारा ।
🙏🙏🙏🙏🙏