मेरी साधना यात्रा ~ आचार्य प्रशांत योगी
नाम : डॉ शिव कुमार ठाकुर
सन्यासी नाम : आचार्य प्रशांत योगी
व्यवसाय : डॉक्टर
जन्म : जनवरी 1949
निवास : 509 Vrindavan Gardens Apartment, Near Ram Nagari More, Ashiyana-Digha Road, Patna - 800025
अन्तहीन शुरूआत :
सामूहिक जीवन में एक विराट आध्यात्मिक आन्दोलन, धर्मचक्र प्रवर्तन एवं सद्धर्म की स्थापना।
अस्तित्व की ओर से हरेक पच्चीस सौ साल के बाद एक धर्मचक्र प्रवर्त्तन होता है। भगवान बुद्ध के समय भी एक ऐसा धर्मचक्र प्रवर्त्तन हुआ था। कालक्रम में मानव जीवन, समाज निर्माण, देश निर्माण, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर देशों के आपसी सम्बंध, विकासशील विज्ञान ने व्यक्ति, समाज, राष्ट्र एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर जीते हुये मानव के जीवन में क्षोभ, निराशा, हतासा, दुख, कलह एवं युद्ध की आशंका को बढ़ा रहा है। पूरे धरती पर सभी जीवन, पेड़-पौधे, जीव-जन्तु, मानव जीवन और पूरा पर्यावरण नष्ट होने के कगार पर आ चुका है।
इस स्थिति का रूपान्तरण कर मानव जीवन एवं पर्यावरण को जीने लायक बनाने हेतु पुनः एक नया धर्मचक्र भगवान श्री रजनीश, ओशो के आने से शुरू हुआ। जगत में प्रेम, शांति, स्थिरता, आनन्द, भाईचारा, पारस्परिक समझ को लौकिक एवं अलौकिक दृष्टि से प्रयास की जरूरत है। मनुष्य-जाति के इतिहास में आनेवाले कुछ वर्ष बहुत महत्वपूर्ण हैं। अब दो-चार लोगों से काम नहीं चलेगा। अगर एक बहुत बड़ी स्प्रिचुएलिटी, अध्यात्म का जन्म नहीं होता है, एक ऐसा आध्यात्मिक आंदोलन नहीं होता है, जिसमें लाखों-करोड़ों लोग प्रभावित हो जाएं, तो दुनियां को भौतिकवाद के गर्त से बचाना असंभव है। - जिन खोजा तिन पाइयां से।
ओशो ने जो धर्मचक्र स्थापना की शुरूआत की उसको सद्गुरू सिद्धार्थ औलिया ने आगे बढ़ाया। सद्धर्म की स्थापना भी कर दी।
ओशो ने पूरे विश्व में मानवता को अन्तर्यात्रा के लिए आन्दोलित किया। उन्होंने एक आध्यात्मिक आन्दोलन शुरू किया। ओशो सन्यासियों ने शाश्वत सत्य का अनुभव नहीं किया, और न ही दिव्य अलोक, अमृत, आनन्द, प्रेम और अद्धैत का अनुभव किया। सच्चिदानंद (सत्-चित-आनन्द) का अनुभव हुआ ही नहीं तो किस आधार पर सद्धर्म, आध्यात्मिक आन्दोलन जनमानस तक पहुंचाएंगे।
अस्तित्व ने जीवन्त सद्गुरू सिद्धार्थ औलिया को भेजा और यह आध्यात्मिक विराट आन्दोलन सफल हो रहा है। सद्गुरू ने विशेष रूप से व्यक्तियों पर काम किया। ध्यान से शुरू हुआ समाधि एवं सुमिरन तक ले गये। प्रयोग से व्यक्तियों में जागरूकता, निराकार का अनुभव एवं निराकार में सन्निहित विभिन्न आयामों का गहन अनुभव कराया। व्यक्ति के ध्यान-समाधि-सुमिरन का अनुभव ही परिवार और समाज में फैल रहे सद्धर्म यानी सत्यम्-शिवम्-सुन्दरम्, जीवन है। इसकी गरिमा एवं महिमा को साधना के गहन अनुभव से ही लोग समझने एवं जीने लगे हैं।
पूरे विश्व में ओशोधारा ध्यान-केन्द्रों की स्थापना हुई। विशेषकर प्रभु प्यासों, मुमुक्षुओं जो भारत, नेपाल में प्रभु-प्यास से भरे हुए हैं, ने सद्गुरू द्वारा निर्मित विधियों को खूब पी रहे एवं जी रहे।
गीत नया गाना है
गीत नया गाना है, गीत नया गाना है।
राग है पुराना, पर सुर नया लगाना है।
गीत कई गाए हैं गोरख, कबीरा ने।
कृष्ण, महावीर, बुद्ध, नानक और मीरा ने।
ऐसे ही इस युग का गीत हमें गाना है।।
माना कि साज बड़े सुंदर और प्यारे हैं।
पुरखों ने बहुत-बहुत उनको संवारे हैं।
लेकिन अब साजों को फिर से बिठाना है।।
परम सत्य शाश्वत् पर सत्य तात्कालिक है।
संतों के कहने का ढंग देशकालिक है।
इसीलिए सूत्रों को फिर-फिर समझाना है।।
परम ज्योति एक, मगर दीप बहुत न्यारे हैं।
गंगा है एक, मगर घाट बहुत न्यारे हैं।
घाटों में फिर से संगमरमर बिछाना है।।
- सद्गुरू सिद्धार्थ औलिया
बचपन और आध्यात्मिक यात्रा की शुरूआत :
मेरा जन्म 8 जनवरी 1949 को एक मध्यमवर्गीय मैथिल ब्राह्म्रण परिवार में, बिहार के दरभंगा जिले के श्रीदिलपुर ग्राम में माता राम रेखा एवं पिता गोपी रमण ठाकुर के घर हुआ। बचपन बहुत लाड़-प्यार एवं शरारतपूर्ण रहा। मैं जन्म से ही बहुत जिज्ञासु, खोजी, और मौजी रहा। परिवार में आध्यात्मिक अनुष्ठान होते रहते थे। उसमें भी मुझे बड़ा मजा आता था। मेरे गांव में 24 घन्टा कीर्तन होता था। उसमें भी पूरी तन्मयता से मित्रों के संग भाग लिया करता था।
कुछ स्मरणीय बातें जो मैं अभी भी नहीं भूल पाया, जो पहले शिक्षक मेरे घर में थे उनका नाम अनंत राय था, वह गांव के प्राथमिक स्कूल के हेडमास्टर थे और मेरे यहां लम्बे समय तक रहे, उनको सजा देने में बहुत मजा आता था। ननिहाल में नाना-नानी, मामा-मामी से मुझे बहुत प्यार मिलता रहा। मेरे जीवन मे बचपन में सबसे ज्यादा प्रोत्साहन दादी, नाना एवं नानी से मिला।
मेरी आध्यात्मिक यात्रा बचपन में ही शुरू हो चुकी थी, यह मुझे बड़े होने पर पता चला। अभी मै प्राइमरी स्कूल का ही छात्र था और तभी से प्रत्येक दिन मध्यांतर में खेल छोड़कर रामायण, महाभारत की कथा सुनता। स्कूल से दौड़ कर कथा स्थल पर जाता था और कम समय में ही सुनकर स्कूल वापस भी चला आता था। मार्मिक कथा सुनने पर जारजार आंसू रोता था। मिडिल स्कूल एवं हाई स्कूल में मेरा अध्ययन गांव से 7-8 कि0मी0 बाहर हुआ। सभी ऋतुओं में पैदल ही चलते हुए जीने का अवसर मिलता रहा। सीखने की प्रवृत्ति, कहीं से भी, किसी से भी, बढ़ने लगी।
फकीरों, बाबाओं एवं संतों से मिलन
उस जमाने में मेरे गांव में कई पीर, संत, बाबाजी आते थे। हमारे घर के लोग उनको बैठाते, वे बहुत ही मीठा-मीठा भजन सुनाते और हम लोग आग्रह करके भजन सुनते रहते। दादी भिक्षा में उम्मीद से ज्यादा खाने का समान दे देती। गांव में संतों, फकीरों, बाबाओें से मिलन हमेशा हेता रहा। परंतु जैसे-जैसे गॉंव से दूर होते गए, सहजता से उपलब्ध संतो से मिलन से भी वंचित होते गए। बढ़ती उम्र के साथ पहले का ‘बच्चा’भी बढ़ गया। जहां तक मुझे याद है, नौवीं कक्षा से पहले मैं बहुत अच्छा खिलाड़ी भी था। मैं बोलने में बहुत रस लेता था और नौवीं के बाद सीखने में और भी परिवर्तन हुआ। किसी से भी कुछ सीखने को मिला तो जरूर सीखा और यह अभी भी जारी है। यह श्रेय मेरे पिताजी का है। वे बहुत ही सीधे, सादे और शांत, मैट्रिक पास व्यक्ति थे। नम्रता, आदरभाव उन्हीं से सीखा।
जीवन बड़ा सहज था। मुझे पेड़ पर चढ़ना, तालाब में गोता लगाना, तैरना बहुत ही भाता था। हमेशा मित्रों के संग रहना भाता था। घर में बड़ी अच्छी परंपरा थी। पिताजी के दोस्त, भैया के दोस्त एवं मेरे दोस्त हम लोग अपने मंडली के साथ आते और भोजन करते। रसोइये को पता ही नहीं चलता कितने लोगों का खाना बनाया जाए। पूरा गॉंव ही एक-दूसरे के प्रेम में रहता। बचपन में अपने श्रेष्ठों से, पूज्यनीयों से यही सीखा कि तुम कैसे, किस भाव से, किसी से कुछ ग्रहण कर सकते हो। इसके लिए लगन और मेहनत करना शिक्षकों द्वारा सिखाया गया। हमारी प्रेरणा के स्त्रोत हमारे पिता की सादगी, नम्रता एवं प्रेमपूर्ण जीवन रहा।
किशोरावस्था-प्रेरणा के स्रोत एवं आदर्शवादी जीवन
15 साल की उम्र में 11वीं पास कर दरभंगा शहर के सी0 एम0 कॅालेज में दाखिला लिया। कॉलेज में मैं जीव-विज्ञान की पढ़ाई कर रहा था। कोर्स के अलावे मैं वैज्ञानिकों, संतो एवं जाने-माने विद्वानों की जीवनी भी पढ़ने लगा। भारत के जाने-माने वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बोस के जीवनी से मैं बहुत प्रभावित हुआ। वे मेरे प्रेरणा के स्त्रोत रहे। मैं ऐसा ही जीवन चाहने लगा। महात्मा गॉंधी की आत्मकथा भी पढ़ी। आइन्सटीन, न्यूटन, टॉलस्टाय, को भी पढ़ा।
कॉलेज के जीवन में कई उल्लेखनीय हस्तियों से भी मैं प्रभावित रहा। एक थे प्रोफेसर अरूण कुमार मिश्र, जो वनस्पती विभाग में एक व्याख्याता थे। उनके जीवन से भी मुझे प्रेरणा मिली। डॉक्टर मिश्र के साथ, इंडियन साइंस कांग्रेस, डायमंड जुबली अधिवेशन में भाग लेने 1973 में चंडीगढ़ गया। वहॉं इन्होंने बड़े-बड़े वैज्ञानिकों से मिलवाया। मेरी जिज्ञासा और बढ़ गई। वहॉं साइंर्स कांग्रेस में बड़े-बड़े वैज्ञानिकों, प्रोफेसरों का छोटी-छोटी चीजों के प्रति दोड़ लगाना, धक्का-मुक्की करना, यह मुझे बहुत ही खराब लगा।
युवावस्था, विवाह एवं शिक्षा-दीक्षा
अभी तक के जीवन में जो मैंने देखा, जो लोग मेरे प्रेरणा के स्त्रोत रहे, उनके जीवन में बहुत ही विरोधाभास रहा। मैं खुद भीतर से अपने पर पड़े हुए उनके प्रभावों को देखने लगा। इस तरह के जीवन पर प्रश्नचिन्ह् उठने लगे। मेरी दृष्टि अभी तक वैज्ञानिक, तार्किक निष्पत्ति की खोज ही कर रही थी। मैं धार्मिक ग्रन्थ भी पढ़ते रहा। रामायण, सुखसागर एवं बर्टेण्ड रसल द्वारा लिखित कई धार्मिक किताबें भी पढ़ीं। अन्य लेखकों द्वारा लिखित वेदों उपनिषदों पर टीकायें भी पढ़ते रहा। ‘भवन्स जनरल’ नामक धार्मिक पत्रिका का मैं नियमित पाठक रहा।
21 जनवरी 1972 को मेरी शादी हुई। पत्नी श्रीमती विंध्यवासिनी मिश्र, जब मेरी शादी हुई तब उनकी उम्र 17 वर्ष की थी और मैं 23 वर्ष का हो रहा था। वे बहुत ही सुन्दर, सुशील, मितभाषिणी एवं अति लज्जाशील स्त्री हैं। 30 सितंबर 1977 तक मुझे दो पुत्र-रत्नों की प्राप्ति हो चुकी थी।
शादी के बाद जीवन में परिवर्तन हुआ। नई-नई परिस्थ्तियों में नई-नई मनः स्थितियां भी बनने लगीं जिसमें धीरे-धीरे फंसने लगा। अबतक यह कला हाथ नहीं लगी थी कि इन मनः स्थ्तियों के जाल से कैसे निकला जाये। यह मेरे एम0 बी0 बी0 एस0 कोर्स का दूसरा साल था।
शादी के बाद, जीवन में पत्नी की क्या भूमिका है, यह धीरे-धीरे जानने लगा। मैं जनवरी 1972 से लेकर 2004 तक दाम्पत्य जीवन में बहुत सारी महत्वपूर्ण भूमिकाओं को जाना और जीया। शुरू में तो बस परम्परागत मान्यताओं के आधार पर बना दाम्पत्य जीवन का ही सुख भोगा। शुरू के सात सालों में बस जीया, जीवन के मूल्य को समझ न सका।
इसी अवधि में दो संताने भी जीवन में आयीं। एक साल के अन्तराल पर हम दोनों नौकरी में आ गये। नौकरी में सब कुछ था पर समय नहीं था। हम दोनों के जीवन में अलग-अलग संस्कारो से एवं अपनी पारिवारिक संस्कृतियों से जो कुछ हमें मिले थे, इन भिन्नताओं को समझने और जीने का हम लोगों ने निरंतर प्रयास किया।
कुछ जीवन की उलझी हुई परिस्थितियों में, दुखी था, सोच रहा था कि क्या करूं, क्या न करूं। इन परिस्थितियों से गुजरकर ही समाधान हेतु मैं भगवान श्री रजनीश से दीक्षित हुआ था। पत्नी को मेरी उलझनें और इनके समाधान हेतु ली गई दीक्षा दोनों उनको पसंद नहीं था। मैं उनको जितना समझाने का प्रयास करता, वह मुझसे उतनी ही दूर जाती हुई दिखायी पड़ती।
मेरे दाम्पत्य जीवन में एक अविस्मरणीय समय आया, जब दिसंबर 1985 में सद्गुरू स्वामी चैतन्य भारती के दर्शन करने हेतु पत्नी तैयार हुयीं। वहाँ पूरे परिवार के साथ सद्गुरू का दर्शन पाया। हमलोगो ने स्वामी चैतन्य भारती के सान्निध्य में साथ-साथ तेरह, नौ दिवसीय ओशो साधना शिविरो, में भाग लिया।
हमलोगों ने साथ-साथ जुलाई 2001 से फरवरी 2004 तक, ग्यारह ओशोधारा समाधि कार्यक्रमों में भी भाग लिया।
सम्बोधि के घर गृहस्थी चलाने का ढंग निराला है। घर आये मित्रों का, साधकों का बहुत ख्याल रखतीं हैं। 1980 से 1992 तक की उनकी ‘अन्यमनस्कता’ के साल में भी वो नियमित रूप से आगन्तुक मित्रों, साधकों का सम्मान करती रहतीं। पारम्परिक भारतीय आध्यात्मिक धारा में, साधना में स्त्रियां का समावेश मना ही है। उन्हें बाधा ही समझी जाती है। मेरे जीवन में कुछ अलग ही अनुभव हुआ। आप जिस मनःस्थिति में जी रहे हैं, स्त्री की उपस्थिति दर्पण में आपको वैसे ही दिखने देने में सहयोग करती है। जीवन में, पत्नी एक प्रेमपूर्ण सहयोगी का काम करती है। एक प्रेमपूर्ण मित्र की तरह जीवन की कठिन परिस्थितियों में वह साथ देती है। यदि स्वतन्त्र रूप से घर में उन्हें जीने दिया जाय एवं उनका सम्मान किया जाय तो उनसे प्रेरणा भी मिलती है। परिवार एवं जीवन को इससे बहुत मदद मिलती है।
संसार बड़ा मित्र, पथ-प्रदर्शक सहयोगी और सहारा
मेरी जीवन में बचपन से ही लगता है ऐसा आयोजन था कि अनेक प्रेरक महापुरूष आए भिक्षाटन के लिए साधु, भागवत कथा, कृष्ण कथा कहने के लिए विद्वान संत भी आए। यज्ञ करने के लिए महात्मा और दर्शन देने के लिए जाने-माने मौनी बाबा लोग भी आए। अस्तित्व की कृपा रही। जीवन यात्रा में चुनौतियां भी आये, विषम परिस्थितियां भी आईं। अपनी समझ से अस्तित्व के कृपा से जिया।
सबसे बड़े महापुरूष ओशो जीवन के 16-17वें साल में आये। मैं कॉलेज में दाखिल हो चुका था। ओशो को सुना 1967 में। ओशो पटना के गांधी मैदान में सर्वधर्म विश्व सम्मेलन में आए थे। उन दिनों मुझे रेडियो में ‘‘आज का चिंतन’एक कार्यक्रम 5 मिनट का सुबह 6:00 बजे होता था, वह मैं नियमित सुनता था। एक दिन अचानक उसमें उद्घोष हुआ कि आचार्य श्री रजनीश आए थे, सर्वधर्म विश्व सम्मेलन, पटना में उनको सुनें। तीन दिन तक यह कार्यक्रम चला।
क्या कहूं! मेरा भाग्य, मेरी जीवन यात्रा, मेरा पूर्व जन्म प्रगट होने लगा, स्पष्ट होने लगा। उस समय ओशो आचार्य श्री रजनीश कहलाते थे। आचार्य श्री रजनीश नाम सुनते ही मेरे भीतर कुछ हो गया। मैं ठगा ठगा-सा, विवश हो रहा। मुझे अभी भी याद है जीवन के इस पड़ाव में भी उस समय का फैलता पुलक, ऐसे लगता है कुछ बहुत बड़ा कल्पना से परे मेरे पर उतर गया, घटित हो गया।
प्यारे मित्रों, पूछिए मत, उस जबरदस्त अविश्वसनीय, अकल्पनीय परमात्मा का मेरे ऊपर कृपा। बहुत याद आती रही। उस समय की बात वर्णन करना मुश्किल है। अब तो स्मृति की बात हो गई। दूसरी बार ओशो के बारे में 73 ई0 में मैं सेकेंड एम.बी.बी.एस. मेडिकल कॉलेज का छात्र था और उस समय स्वामी सत्यानंद सरस्वती एक प्रसिद्ध योगी, मुंगेर में गंगा के किनारे बिहार स्कूल ऑफ योगा का स्थापना किए थे। वहां उन्होंने सर्वधर्म विश्व सम्मेलन आयोजन किया था।
मेरी शादी हो चुकी थी। संबंधियों के संघर्ष से चुपचाप निकल, धर्म सम्मेलन में भाग लेने चला गया। तीन दिनों का सम्मेलन था। 68 देश से युवक-युवतियां, सन्यासी और वयोवृद्ध, पुराने, जंगल से भी साधक, वैज्ञानिक और विद्वान, डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर बहुत पढ़े लिखे थे लोग आए थे। जीवन में पहली बार भगवान शंकराचार्य एवं महिर्ष मेही दास जी का शुभ दर्शन हुआ। न्यूरोसांइटिस्ट, न्यूरोसर्जन भी आए थे। मैंने पूरा मनोयोग से भाव से भाग लिया।
फिर अन्य समय में सम्मेलन में भगवानश्री रजनीश की भी चर्चा हुई कि उनकी एक सन्यासिन स्वामी जी के आश्रम में आयी थीं, जो गर्भवती थी। उनका पति पूना के भगवानश्री रजनीश आश्रम में रहता था। वह गर्भवती स्त्री, स्वास्थ्य-परीक्षण हेतु अस्पताल जाती थी। यह मुंगेर शहर में चर्चा का विषय होता था। आश्रम! और गर्भवती स्त्री! फिर स्त्री ने एक लड़के को जन्म दिया। उनके पति पूना से आकर उनको वापस ले गये।
यह कार्यक्रम तीन दिनों तक बहुत सात्विक माहौल में हृदय को छूने वाला था। मैं युवक था बहुत ही हर्षोल्लास से सब तरह के साधु, सन्यासी, रहस्यदर्शी एवं विद्वानों से मिलते रहा। आनन्द लेते रहा। अंतिम दिन दीक्षा, गुरूदर्शन समारोह में भी भाग लिया। गुरुदेव ने भी इस सम्मेलन में भाग लिया था। ओशोधारा के शिष्य होने पर बाद में सद्गुरू के श्रीमुख से सुना कि उन्होंने स्वामी जी से मंत्र लिया था, उन्हें मंत्र गुरू बनाया था।
इससे पहले अनेक संतों को सुना। सब संतो के अलग-अलग कार्यक्रम होते थे। नये-नये जो भी रिसर्च हुए थे, योग में उसको भी सामने लाया गया था। मैंन सब में भाग लिया।
आचार्य श्री रजनीश का नाम लेते ही मुझे कुछ हो गया। लगा कि कुछ उतर गया और पकड़ लिया। भीतर से ठहरा, शांत, स्तब्ध हो रहा। असीम शांति और भीतर से ‘ना कुछ कर पाने का’ प्रगाढ़ लाचार हो रहा। पहले भी जब रजनीश का नाम सुना और अभी भी दोनों में नाम सुनने में जो हुआ, उसका मेरे ऊपर क्या असर हुआ यह मेरे बुद्धि के परे था। मैं उस समय बिल्कुल नहीं समझ पाया। लेकिन इतना जबरदस्त घटना हुआ था कि मैं अभी भी बहुत विस्तार से उसका वर्णन कर सकता हूं।
सम्मेलन से वापस आने पर कुछ नये सीखे हुए आसन, प्राणायाम, योग, तप एवं परम्परागत पूजा-पाठ; दुर्गा-पाठ करता। इसके अलावा हजार बार गायत्री जाप और हजार बार "ऊँ नमः शिवाय" का जाप करने लगा। सब मिलाकर एक खिचड़ी साधना करने लगा। यह करीब दो साल तक चला। मेरी मनः स्थिति में कोई खास परिवर्तन नहीं आया। जब मैं मेडिकल कॉलेज के चतुर्थवर्ग में 1974 ई. में था तब अपने से घबराकर एक पत्र भगवान श्री रजनीश के आश्रम, पूना लिखा। पत्रोत्तर आया कि ‘‘आप शीघ्र खिचड़ी साधना बन्द करें’। आश्रम आकर नई ध्यान विधियों का प्रयोग करें। मैनें तुरन्त ‘‘खिचड़ी साधना’को बन्द किया।
आचार्य श्री से दो बार पत्राचार हुआ। एक बार ओशो आश्रम जाने से पहले और दूसरी बार दीक्षा लेने के बाद पत्राचार हुआ। चार बार उन्होंने मेरे पत्रों का लिखित उत्तर देने की कृपा की।
एक बार तो रजनीश आश्रम बुद्धा हॉल में -उड़ियों पंख पसार’प्रवचन माला में प्रश्न को लिया और वृहद चर्चा की, उत्तर दिया। उनके अमृत वचन से अद्भुत माहौल बन गया। लोग मुझे बधाई देते नहीं अघा रहे थे कि भगवान श्री रजनीश ने आपके प्रश्नों के उत्तर दिए।
ओशो के आने के बाद बुद्धा हॉल में बड़ी खुशी की लहर छा जाती थी। उपस्थित मित्र उमंग-उत्साह-आनंद से भर जाते थे। वहां बैठे लोगों को ही अनुभव होता था। मेरे पहले सद्गुरू इस जन्म में प्यारे ओशो ही रहे। प्यारे का सान्निध्य जिन पर गुरू गोविंद की कृपा होती और जो खोजी साहस करते, उन्हीं को मिलती है। लोग चूकते रहते हैं और पछताते रहते हैं। यही मानव की जीवन शैली सदा-सदा से रहा है।
गोविंद कृपा से मेरी तो ये हाल होते रहा, ओशो के ब्रह्मलीन होने, ओशो के शरीर त्याग करने के बाद मेरे सद्गुरू प्यारे स्वामी चैतन्य भारती रहे। उनके चरणों में भी मैंने दस साल जीवन जिया। उनके चरणों में भी बैठने से जाने से लोग सोच-विचार ही करते रहे और बाद में पछताते रहे।
अभी प्यारे सद्गुरू सिद्धार्थ औलिया जी विद्यमान हैं। अभी भी बहुत सारे लोग उनके चरणों में बैठने को सोच-विचार ही कर रहे हैं। फिर बाद में यही लोग पछतायेंगे। जो गुरुदेव के चरण में आता, वही निहाल होता, उसी का जीवन धन्य होता।
सृजनशीलता :
साठ के दशक के अन्तिम भाग में मेरे ‘लिखने के रूप में’ सृजनशीलता जगी। अंग्रेजी, हिन्दी, मैथिली तीनों भाषाओं में लेखनी उतरी। कहानी और लेख उतरी। पहला लेख ‘विज्ञान’ पर था। इस पर एक ‘अंग्रेजी बायोलॉजी डिक्श्नरी’इनाम के रूप में मुझे मिला। यह ‘इन्टर कॉलेज’ विज्ञान-प्रतियोगिता, दरभंगा स्थित मिल्लत कॉलेज में हुआ था (संभवतः ई. 1967-68)। दूसरा लेख भी अंग्रेजी में ही था।
फिर क्या था, लिखने का सिलसिला चल पड़ा। डॉ. लक्ष्मण झा जो उन दिनों मेरे प्रेरणा के स्त्रोत रहे उन के जीवन पर आधारित एक लेख ‘एक ब्राह्मण’ जिसका सम्पादन डॉ. मिश्र ने किया। ‘प्लेनेटो’ नामक विज्ञान पत्रिका में ‘माइक्रोस्कोप’ विषय पर मेरा एक लेख छपा था। फिर हिन्दी और मैथिली में कई कहानियां उतरीं। मेरे सगे-संबंधियों, मित्रों को कहानियां बहुत पसन्द आयीं।
पहली अंग्रेजी की किताब Mystery of Life 1992 में घटित हुआ। ‘हे असीम तेरी क्या चर्चा करूँ’-प्रयास एवं प्रसाद- लिखने में बहुत मजा आया। लिखने का आनन्द अद्भुत होता है। सुबह के उगते सूरज को प्रेम से जिसने देख लिया, उसके जीवन मे एक नया आयाम जुड़ गया। जीवन में लालिमा, चमक आने लगी। मुझे तो कविता लिखने में तृप्ति मिलती है। स्वामी चैतन्य भारती जी के सान्निध्य के बाद लिखने का उमंग बहुत पकड़ते रहा, लिखते रहा, लिखते रहा। Laugha The Laughter के सृजन के आप ही प्रेरणा सिंधु रहे।
सद्गुरू ओशो सिद्धार्थ जी के सान्निध्य के बाद कुछ नये स्वाद एवं आयाम का जन्म हुआ। जब पता लगा कि आपने बहुत कवितायें, गीत लिखी हैं। सद्गुरू के सान्निध्य में कविता लिखने का ढंग बदल गया। कविता छोटी होने लगीं। अपनी सृजन तृप्तिदायी होने लगी। और-और गेय गीत उतरने लगा।
क्रांति महापुरूष भगवान ओशो :
क्रांतिपुरूष, युगपुरूष, करूणावतार, भगवान ओशो के साथ 1967 ई0 से ही जुड़ा रहा। 11 मई 1980 को सद्गुरू प्यारे ओशो से दीक्षा लेने के बाद शिष्य बन कर ओशो के पावन चरणों में जीने का दस साल मौका मिला। 19 जनवरी 1990 को ओशो ने शरीर त्याग दिया। शरीर छोड़ने, ब्रह्मलीन होने के बाद शिष्यों की हालत पागल प्रेमी-सा हो गया। बाहर तो हम लोग संयत रहते लेकिन भीतर से बहुत तकलीफ में रहते। प्यारे ओशो चले गए... प्यारे ओशो चले गए... प्यारे ओशो चले गए...!? अब क्या होगा, अब कैसे जीएंगें, किसके साथ जिएंगें। कौन इस दुविधा भरे, संकट भरे आक्रामक जगत में सहारा देगा। आध्यात्मिक सहारा देगा। मुश्किल में था। कुछ महीने यूं ही बीते। दुविधा में आंतरिक तकलीफ में, ओशो की याद में, ओशो के गीत गाते दीवानेपन में जी रहे थे।
परंतु, ध्यान और सत्संग, मित्रों का मिलना-जुलना जारी रहा। हम गुरूभाई लोग, ओशो जिसे मित्र कहते थे, मिलते रहे। ओशो की चर्चा, आनन्द की चर्चा, परमात्मा की चर्चा होती रही।
इसी बीच संबुद्ध स्वामी चैतन्य भारती जो ओशो के प्रथम आचार्य रहे हैं। उनके बारे में खबर आई कि वे पटना में ध्यान शिविर कराने आ रहे हैं। हमलोगों को अमंत्रित किया गया। सपरिवार हम लोग मिलने गए। सब उनसे प्रभावित हुए। लेकिन एक जोरदार बंधन चाहिए था उनसे जोड़ने का। यह काम मित्रों ने किया जो उनके साथ रहते थे। उन्होंने जोड़ दिया। फिर उनके सान्निध्य में दस साल बिताये।
स्वामी जी को सब लोग प्यार से उस समय स्वामी जी ही कहते थे। यह 1990 अप्रैल से लेकर दिसंबर 99 तक की बात है। उनके प्रेम सान्निध्य में ध्यान समाधि कार्यक्रम 9 से 11 दिन के होते रहे। हमलोगों ने उनके पावन चरणों में जीना सीख लिया। उनके दूसरे कार्यक्रम में ही एक अद्भुत, अविश्वसीय घटना घटी। दिल्ली में स्वामी कृष्ण अरूप ने अपने फार्म हाउस में बहुत सुंदर, शानदार सुविधापूर्ण 11 दिन का कार्यक्रम का आयोजन किया था। मैं प्रत्येक दिन संध्या दर्शन में सद्गुरू चैतन्य भारती जी के बगल में उनके पास बैठता था।
एक दिन मुझे विलम्ब हो गया, मैं दूर जाकर बैठा। कार्यक्रम शुरू था। मौन, पूरी मित्रमंडली मौन थी। सद्गुरू साथ थे। मैं भी मौन हो गया। इतने में मुझे अनुभव हुआ कि मेरा हाथ पकड़ा गया और सद्गुरू के बगल में बैठा दिया गया। मैंने आंखें खोलीं तो देखा कि मैं तो वहीं हूं। पुनः आंखें बंद हो गईं। भ्रम लगा। यह घटना दोहरायी गयी। तब मैं समझ गया कि अस्तित्व चाहता है कि मैं उनसे जुड़ा उनके पास रहूं। उनके नजदीक बहुत आनन्द के माहौल में बहुत प्रभावी ध्यान के विधियों का निष्ठा, पूर्णता और आनंद से भाग लेते रहा।
आनंद में मित्र मिलन में, हरी चर्चा में, साधना की चर्चा में शिविर समाप्त हुआ। मुझे पटना आना था। ट्रेन में आकर दिल्ली स्टेशन में अपनी बर्थ पर बहुत ही आराम से लेट गया। मुझे किसी से बात करने की इच्छा नहीं हो रही थी। ट्रेन का समय नहीं हुआ था।
मैं लेटा हूं, आंखे बंद हैं। मैं देखता हूं, ओशो आए, मेरा हाथ पकड़ कर स्वामी जी के हाथ में थमा दिया। अब मुझे समझने में देर न लगी की प्यारे ब्रह्मलीन सद्गुरू चाहते हैं कि मैं अब स्वामी जी के चरण-शरण में रहूं। आनंदित हुआ, खुशी का ठिकाना न रहा। अब मुझे लगा कि एक नया ठिकाना मिल गया वह भी अस्तित्व के दिशा-निर्देश और आशीष से। इस बात की चर्चा मैंने किसी से न की। दिनों बाद अपनी पत्नी मां सबांधि से किया। स्वामी जी के चरणों में बहुत ही प्रेम, आनंद, भक्ति से दस साल जिया।
इसके बाद प्यारे गुरुदेव सिद्धार्थ औलिया जी जीवन में आये। जीवन में महत्वपूर्ण रूपान्तरण लाये।
पहला, पूणे कम्युन अप्रैल 1980 में ओशो से दीक्षा लेने के समय में।
दूसरा, दीक्षा लेने के बाद बिहार में दो ध्यान शिविरों में।
तीसरा, दिसंबर 1999 में सद्गुरू स्वामी चैतन्य भारती के प्रेम निमंत्रण, ओशो कम्युन के अंतर्कलह के निवारण हेतु सभा बुलाने में टेलिफोन पर बात हुई।
पूना कम्युन इंटरनेशनल पूणे आश्रम में भीतर ही भीतर बहुत कलह चल रहा था। यह सब को नहीं पता था। लेकिन हमलोगों को पता था। ओशो के यूरोप अमेरिका के प्रभावी इनर सर्किल के चेयरमैन और वाइस चेयरमैन मिलकर षडयंत्र रच रहे थे।
ओशो का अस्थिकलश, ओशो की किताबें, पेंटिंग्स और बहुत सारी जीचें जो उनसे संबंधित थी, सबको स्विट्जरलैंड या और कहीं ले जाना चाह रहे थे। या तो ले गए थे या अभी भी ले जाने के लिए छुपकर प्रयत्नशील थे। इसको रोकने के लिए स्वामी चैतन्य भारती जी ने पूरे भारत के महत्वपूर्ण ओशो सन्यासियों की एक सभा बुलायी थी। उस समय हम लोगों का 9 दिन का ध्यान समाधि कार्यक्रम बहुत ही प्रसिद्ध पंचगनी, महाराष्ट्र के चारसितारा होटल में हो रहा था। निमंत्रित विशिष्ट मित्रों के लिए एक पूरा कॉरिडोर खाली रखा गया था। स्वामी जी ने मुझे जवाबदेही दी कि आप सद्गुरू ओशो सिद्धार्थ जी को निमंत्रण दें। सालों से पूणे में दीक्षा लेने के बाद हम लोग नहीं मिले थे।
मैं भूल ही गया था कि हम लोग एक साथ दीक्षा लिए हैं। बहुत कठिनाई से सद्गुरू सिद्धार्थ जी का टेलीफोन नम्बर प्राप्त किया। वे उस समय बिलासपुर, छत्तीसगढ़ में थे। टेलीफोन आसानी से नहीं लग रहा था। बड़ी मुश्किल से जाड़े के दिसंबर महीने में सद्गुरू नम्बर खोजते-खोजते करीब 12 बज गये थे। पर मैं हार मानने वाला नहीं था। सद्गुरू को टेलिफोन लगा ही दिया।
फोन की घंटी बजी। सद्गुरू ने फोन उठाया, धीमी और मधुर आवाज थी। आवाज आयी बहुत मधुरता और प्रेम से, ‘प्रशान्त जी, याद है हम लोग पूणे में एक ही साथ दीक्षा लिए थे।’उन्होंने मुझे निमंत्रण दिया कि प्रशान्त जी आजकल कुछ अभिनव प्रयोग हो रहे हैं, सौराहा, चितवन, नेपाल में। आपको आने के लिए मैं निमंत्रण देता हूं। मैंने निमंत्रण को स्वीकार कर लिया। पर गहरे में कुछ असमर्थता थी।
मुझे वर्तमान सद्गुरू स्वामी चैतन्य भारती जी ने निमंत्रण की जवाबदेही दी थी। मैंने सद्गुरू ओशो सिद्धार्थ जी को यह बता दिया कि, ‘’स्वामी जी ने आपको प्रेम निमंत्रण दिया है। ओशो आश्रम पूणे में आग लग गयी है, सब लोग अपने-अपने हिस्से का पानी डालें आगे बुझाने के लिये। स्वामी जी ने तो अपने हिस्से का पानी डाल दिया है, अब बाकी मित्र सभा में आयें और सब मिलकर ओशो आश्रम पूणे को बचाने के लिए कुछ करें।’
बहुत ही मधुर आवाज में उन्होंने कहा कि, ’’आप एक निमंत्रण पत्र सौराहा चितवन आश्रम नेपाल में भेज दें।’ मैंने ऐसा ही किया। मुझपर इस समय सद्गुरू स्वामी चैतन्य भारती जी के प्रेम का जादू छाया हुआ था। इसलिए बीज रूप में सद्गुरू सिद्धार्थ औलिया जी का ध्वनि बहुत गहरे में चला गया पर चेतन मन का हिस्सा न बन पाया। यह प्रेम ध्वनि निमंत्रण चेतन मन का हिस्सा कब बना, यह राज आगे खोलूंगा।
मेडिकल कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने तक मैं शुद्ध सांसारिक जीवन एवं भोग का जीवन इन सालों में जिया। 1977 के जनवरी में एक मेडिकल कॉन्फ्रेन्श में भाग लेने बाम्बे (अब मुम्बई) शहर गया। वहीं से मैं पूना शहर, भगवान श्री रजनीश के आश्रम में गया। उनके दर्शन, वाणी एवं सानिध्य ने मुझे झकझोर कर रख दिया। पिछले जीये जीवन पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया, अभिभूत कर दिया।
घर पहुंचकर मैं पहले की तरह नहीं था, कुछ बदल चुका था। एक अजीब प्यास, एक गहन प्यास, भगवान श्री ने जो कहा और मैंने जो समझा उस तरह जीने के ढ़ंग की प्यास जग चुकी थी। चिन्तन-मनन का ढंग बदल चुका था, भीतर के सवाल अब बाहर भी आने लगे थे। अपने ही जीवन से अपने ही द्वारा प्रश्न पूछा जाने लगा था। सवालों का हल तो नही मिल रहा था परन्तु खोज जारी रही। संसार ने मुझे फिर से पुरानी तरह के जीवन ढंग पर लाना शुरू कर दिया था।
अस्तित्व ने पुनः कृपा की। पटना मेडिकज कॉलेज में भगवान श्री रजनीश के शिष्यों से मिलन हुआ। दोस्ती हुई। फिर से आन्तरिक खोज सक्रिय होने लगी। 7 मई 1980 को मैं पटना से पूना आश्रम के लिए अकेले ही चल दिया। संकल्पित मैं 11 मई, 1980 को भगवान श्री के नव-सन्यास में दीक्षित हुआ। गुरू ने नया नाम स्वामी प्रशान्त योगी दिया। ऊर्जा दर्शन भगवानश्री ने इसी शाम को दिया।
दिनांक 22 मई 1980 की सुबह गुरू प्रवचन के दौरान मैं ध्यान मगन, प्रवचन सुन रहा। इतने में एक खट् की आवाज आई और कुछ शिष्याएं रोने लगीं। मेरी ऑंखें खुल गयीं। बुद्धा हॉल में कुछ मित्र उठने लगे। मंच से 40 फीट की दूरी पर एक युवक चिल्ला रहा, परन्तु कुछ मित्रों ने उसे पकड़ रखा है। युवक को पकड़कर वे लोग बाहर ले गये। सभागार में कुछ लोग रो रहे हैं। मैं बैठा ही रहा। इतने में देखा कि सद्गुरू ने कहा कि कृपया अपनी-अपनी जगह बैठ जाएं। सब बैठ गये। पुनः शान्ति हो गयी। है। मैं जल्दी-जल्दी आश्रम से बाहर निकला चूंकि मुझे उसी वक्त दोपहर में ट्रेन पकड़नी है। जब मैं पटना वापस आया तब मुझे यहां के मित्रों ने अखबार और रेडियो के हवाले से बताया कि एक युवक ने भगवानश्री रजनीश पर जानलेवा हमले के लिए एक चाकू फेंका था।
ऊर्जा आपूरित वातावरण में बारी-बारी से इच्छुक शिष्यों को गुरू के पास बुलाया जाता। शिष्य गुरू के चरण स्पर्श कर पवित्र होकर उनके सामने बैठ जाते और गुरू आज्ञाचक्र स्पर्श करते। मुझे भी बुलाया गया। मैं भी चरण स्पर्श से निहाल हुआ और कुछ मिनटों तक उनके सामने बैठा मैं भी उस अद्भुत प्रयोग में शरीर, मन और प्राण से शामिल रहा। मैं जीवन में पहली बार पूर्णता से कहीं खो गया। अब मैंने यह समझा कि वह दिव्य खुमारी की स्थिति होती है।
दिन में जितने भी ध्यान प्रयोग होते, जैसे- सक्रिय ध्यान, विपस्सना, नादब्रह्म, कुडंलनी, नटराज और भी कई-कई ध्यान विधियों से प्रत्येक दिन गुजरता। बहुत ही लगन, निष्ठा एवं मनोभाव से आश्रम में जीवन जीया।
आश्रम प्रवास के दौरान मैंने सद्गुरू से दो प्रश्न भी पूछे। एक का संक्षिप्त जबाब लिखित उत्तरपट्टी में आ गया। दूसरे का जवाब उन्होंने 18 मई के, तीसरे प्रश्न के, ऊत्तर में दिया। यह प्रश्न ‘उड़ियो पंख पसार’ प्रवचन माला में उल्लिखित है। जीवन में पहली बार दृश्य, द्रष्टाभाव, साक्षी, होश और इस तरह के प्रेमपूर्ण अर्थपूर्ण बात सुन रहे थे। सब कुछ नया-नया सा लग रहा था। व्यर्थ की बातचीत एवं व्यर्थ लेगों से दूरी हो रही थी। गुरू पर पूर्णतया निर्भर हो गया था।
अचानक जीवन में एक मोड़ आया। ओशो ने 19 जनवरी 1990 को अपना देह-त्याग पूना आश्रम में किया। शरीर छोड़ने की खबर मुझे रात ग्यारह बजे मिली। एक बेचैनी, एक अस्तव्यस्तता ने पकड़ ली, पूना आश्रम से संदेश मिला कि आप लोगों को आना नहीं है। ओशो के पार्थिव शरीर को अग्नि समाधि दे दी गयी है, आप जहां भी हैं वहीं उत्सव मनायें।
स्थानीय ओशो ध्यान शिविरों के आयोजन में भी मैं को-ऑर्डिनेटर हुआ करता था। इसमें कई लोग मेरे प्रिय हुए। स्वामी आनन्द स्वभाव ने, जो ओशो के धर्मदूत कहलाते थे, कई बार पटना आकर ध्यान शिविर का संचालन किया। वे साल में एक बार जरूर आते। कई सालां तक यह सिलसिला चला।
अभी तक ओशो साहित्य प्रर्दशनी के को-ऑर्डिनेटर के रूप में मैं बहुत चर्चित हो गया था। पूना आश्रम से कोई भी कार्य बिहार में होता तो पूना के व्यवस्थापक मित्रगण मुझसे सम्पर्क करते एवं सलाह लेते। एक बार ‘राष्ट्रीय पुस्तक प्रदर्शनी’ पटना, में ओशो-साहित्य प्रदर्शनी का उद्घाटन करने मशहूर फिल्म अभिनेता शत्रुध्न सिन्हा आये थे। इस समय मैं ही इस प्रदर्शनी अभियान का को-ऑर्डिनेटर बना। इसमें ओशो कम्यून इंटरनेशनल, पूना से स्वामी चैतन्य कीर्ति कार्यक्रम के सहयोग के लिए पटना आये थे। मा योग नीलम जो ओशो की सेक्रेटरी थीं, स्वामी सत्यवेदांत जो ओशो मल्टीवर्सीटी के वासइचांसलर थे, स्वामी देवेन्द्र ने भी कई बार सफलता के लिए प्रोत्साहन एवं सुझाव दिया।
अब तो मैं इन कार्यक्रमों की व्यवस्था करते-करते ऊब चुका था। तीन दिन के ध्यान शिविर कार्यक्रम करने-कराने का एक पुलक, एक नयापन, मित्रों से मिलने का सुख मिलता था। ध्यान में शून्यता, शक्ति, ऊर्जा, स्फूर्ति एवं मस्ती भी मिलती थी। पर यह ज्यादा दिन तक ठहरता नहीं था।
अस्तित्व की कृपा सद्गुरू मिलन
पटना बिहार से जो भी मित्र सौराहा नेपाल कार्यक्रम करने जाते सद्गुरू सदा मेरे लिए एक संदेश देते कि प्रशांत जी से मेरा निमंत्रण दीजिएगा और कहिएगा एक बार जरूर आकर देख लें, यहां क्या होता है। कोई भी जाते तो वे मेरे लिए विशेष संदेश लेकर आते। मुझे आश्चर्य भी लगता और अच्छा भी लगता। परन्तु मैं तो सद्गुरू स्वामी चैतन्य भारती जी से जुड़ा हुआ था। टस से मस नहीं हो पा रहा था। परन्तु मेरे लिए नियति कुछ और ही था।
एक दिन ऐसा हुआ मुज़फ्फरपुर बिहार के स्वामी ओशो आकाश यानी अपने पत्नी मां ओशो वर्षा के साथ फोन करके मेरे यहां सद्गुरू का संदेश लेकर आ गये। वे घूम-घूमकर सद्गुरू का संदेश मित्रों से साझा करते। वे बहुत कठिन कार्य कर रहे थे। हमसे भी उम्र में बड़े और मोटरसाईकिल पर घूम-घूम कर सबको पूरे बिहार में निमंत्रण देते।
सद्गुरू उन्हें ’’मेरे शेर’कहते। वे ओशो के पुराने सन्यासी थे। उनका प्रभाव ओशो सन्यासियों पर था। जिस दिन वे मिलने आए, पूरे पटना के ओशो सन्यासियो को मैंने निमंत्रण दिया। सब लोग आये। ड्राइंग रूम खचाखच भर गया था। प्रभुकृपा देखिये, उस दिन पिघल गया। जब मुझे मा ओशो वर्षा जी उस समय की चौथी सम्बुद्ध सन्यासीन थीं, ने प्रेम से निवेदन किया कि आप चलकर एक बार देख तो लें, प्रशांत जी। बस एक बार देख लें। क्या हुआ मैं नहीं जानता, लेकिन भीतर से तुरन्त स्वीकार आ गया। ’’मैं जाऊंगा, मैं चलूंगा मा।’
एक स्वामी जी जो चैतन्य भारती जी के मंडली में साथ रहते थे, उन्होंने कहा तब तो आप तनखैया हो जायेंगे। मैंने कहा कि मैं उनसे अनुमति और आशीष लेकर जाऊंगा। और ऐसा ही हुआ, स्वामी जी से पूणे से फिर मुश्किल से सम्पर्क हुआ। कई दिन लगे सम्पर्क होने में, परन्तु मुझे उन्होंने अनुमति दे दी। मैंने कहा कि आपका आशीष भी चाहिए। ’’अपना पूरा आशीष आपको देता हूं। मेरे लिए बहुत खुशी की बात है। यह खबर मित्रों में फैल गयी कि प्रशान्त जी नेपाल सद्गुरू ओशो सिद्धार्थ जी के पास जा रहे हैं और लोग तैयार होने लगे।
हम 12 लोग थे। गंगोत्रीधाम नेपाल जानेवाले। उस समय एक कार्यक्रम 9 दिन का होता। 15 जुलाई 2001 को हमलोग गंगोत्रीधाम चितवन नेपाल गये थे। ध्यान समाधि और सुरती समाधि करके 20 दिन बाद लौटे। अनमोल खजाना प्रज्ञा का, मन शुद्धि, भाव शुद्धि और समाधि गमन का आशीष लेकर घर लौटे। अहा! सिलसिला शुरू हो गया।
अभी तक स्वामी चैतन्य भारती और ओशोधारा के कार्यक्रम अस्तित्व की कृपा से हम पति-पत्नी दोनों साथ करते थे। मित्रों, आपको बताना चाहूंगा की पत्नी को साथ ले जाने से साधना में, घर में बहुत मदद मिलती और जीवन सुहाना रहता। मैं आपसे कहूं, ओशो, स्वामी जी और ओशोधारा सबने मेरे घर को मंदिर बना दिया। यह मेरा घर स्वर्ग-जैसा है।
जिनको प्रभुपथ पर चलने में रूचि रही वे सब ओशो के समय, स्वामी जी के समय और अब तो ओशोधारा में ध्यान केन्द्र, ओशोधारा पीठ 2002 से घोषित हो गया। बिना घोषित ध्यान केन्द्र के भी मेरे यहां लोग प्रभुपथ पर चलने आते रहे। एक बार तो मुझे आश्चर्य लगा, ओशो के शरीर छोड़ने के बाद मा नीलम, ओशो की सेक्रेटरी ने एक दक्षिण के मित्र को जो पटना में नौकरी करते थे को पत्र लिखा। यदि आप को ध्यान में रूचि है, साधना में रूचि है तो स्वामी प्रशान्त योगी के यहां ध्यान सीखने जायें। आश्चर्य लगा था, परन्तु सद्गुरू एवं परमात्मा का आशीष लगा था। बहुत खुशी हुई थी। उन स्वामी जी से अभी भी मैत्री है। वे अब केरल चले गए हैं। फिर भी सम्पर्क में रहते हैं।
प्यारे मित्रों, इस जन्म में मैं कब से बताऊं। ओशो के चरण में जब से गए तभी से बताता हूं। 1977 से अभी तक ऐसा लगता कि प्रभु ही मेरा, मेरे लिए सदा काम करता रहा है। अपने साथ लिए चलता सद्गुरू के चरण-शरण में। प्यारा, कृपालु अस्तित्व अन्यथा होने ही नहीं देता। जय हो मंगल तत्व की, अस्तित्व की और सारे महापुरूष पथ प्रदर्शकों की। जय हो जय हो जय हो।
गंगोत्रीधाम चितवन सौराहा, नेपाल
जहां से ओशोधारा का उद्गम और हम लोगों की स्पष्ट साधना पावन सद्गुरू शरण में शुरू हुई थी। उस समय इस धारा का नाम ओशोधारा नहीं था। केवल पत्रिका का नाम ओशोधारा था। सद्गुरू प्यार से खुद साधक की डायरी देखते थे। एक दिन उन्होंने मेरी डायरी देखी। मेरे माध्यम से अस्तित्व ने नाम, ओशोधारा प्रगट लिखवाया था। यह धारा पवित्र धारा, ओशोधारा है। उन्होंने मुझसे कहा प्रशान्त जी आप ने बहुत पहले ही धारा का नाम कैसे ओशोधारा दे दिया। मैंने कहा, जो आया मेरे माध्यम से, उसको मैंने निकलने दिया, रोका नहीं।
पटना से हम लोग मंडली में नेपाल आश्रम गये। निरति और अमृत समाधि एक बार। फिर दिव्य समाधि, आनंद समाधि अंत में प्रेम समाधि और अद्वैत समाधि कार्यक्रम हुए। सारे कार्यक्रम जुलाई 2001 से दिसंबर 2002 के बीच में हो हुए।
बीच में मन नहीं लगता। सद्गुरू और आश्रम को जीने का मन करता, दर्शन का मन करता तो बीच में कई बार हमदोनों ने कई प्रोगाम रिपीट किए। जीवन अतिरेक, बरसता हुआ सदा महसूस होता। लगता किसी चीज की कमी ही नहीं है। यही बार-बार प्रेरित कर सद्गुरू के चरणों में ले जाता।
उन दिनों केवल 8 ही कार्यक्रम हुआ करते थे। जितने भी मित्र जाते। खूब आनंदित रहते कार्यक्रम के दौरान। वापस लौटते सद्गुरू का गुणगान, हरी गुणगान और समाधि में नियमित जाते रहे। प्रत्येक साधक मित्र, समाधि गमन का खूब आनन्द लेते। कुछ मित्र तो हमारे यहां हमारे समाधि के समय आते और हम लोग साथ-साथ अपने ध्यान कक्ष में समाधि में जाते। इसके लिए मैंने कई अतिरिक्त गद्दे बनवा लिए थे।
नयी बात थी समाधि में गमन करना। अतिरेक परमात्मतत्व, जीवन में समा नहीं रहा था। इस अलौकिक सुख का समाचार दूर-दूर तक फैलने लगा। मित्रों की संख्या हमारे यहां साप्ताहिक कार्यक्रम में बढ़ने लगा।
बताता चलूं कि अभी तक ओशो जगत में केवल ध्यान होता था। मित्रों ने केवल समाधि का नाम सुना था। जब जानते की ओशोधारा में साधक समाधि में जाते हैं, उन्हें भरोसा नहीं होता। लोग चकित होते और जब बात करते तो प्रभावित भी हो जाते। इसी प्रभाव का कारण ओशोधारा में साधकों की संख्या बढ़ने लगी।
अब पटना में ओशोधारा सन्यासियों की संख्या काफी हो गयी। सद्गुरू ने मुझे संदेश भिजवाया कि प्रशान्त जी आप अपने यहां एक ओशोधारा ध्यान-केन्द्र खोलें। सद्गुरू के आशीष से ऐसा ही हुआ। उन्होंने टेलीफोन से ध्यान समाधि केन्द्र का उद्घाटन किया। यह भारत का पहला ओशोधारा ध्यान समाधि केन्द्र था।
फिर तो सद्गुरू के दिए दिशा-निर्देश के अनुसार सप्ताह में एक बार मित्रगण साथ ध्यान समाधि कार्यक्रम करते। प्यारे सद्गुरू सिद्धार्थ औलिया जी एवं उनके द्वारा रचित कार्यक्रम की सफलता और प्रभाव, परिणाम की खबर दूर-दूर तक जाने लगी। मित्रों की संख्या हमारे यहां भी बढ़ने लगी। गंगोत्रीधाम नेपाल में भी बढ़ने लगी।
इसके बाद माधोपुर पंजाब में भी ओशोधारा आश्रम खुल गया। वहां आचार्यश्री का कार्यक्रम हुआ। मैं और पत्नी मा ओशो संबोधी दोनों ने आचार्यश्री कार्यक्रम किए। सद्गुरू से आशीष मिला। उसी समय सद्गुरू ने अमृत अभियान का कार्यक्रम शुरू किया जिसका कोऑर्डिनेटर मुझे बनाया।
प्यारे सद्गुरू संतों एवं संतत्व की चर्चा और अपने शिष्यों को संतत्व प्राप्त करने की दिशा में अपनी विद्वता, अमृतवचन और अमृत प्रवचन बरसाते जा रहे हैं।
अंतिम कार्यक्रम चरैवेति में सद्गुरू के सामने मैं फीडबैक में गया तो मैंने कहा कि अब बस। सद्गुरू ने मुस्कुराते हुए हल्के से कहा कि इन लोगों के लिए अभी भी कार्यक्रम की जरूरत है। लेकिन फिर भी उन्होंने कार्यक्रम को आगे बढ़ने से रोक लिया। परन्तु परमात्मा कहां रूकने वाले हैं। सद्गुरू अमृत आनंद लुटाते ही रहे। अपनी विधियों का संशोधन, परिष्करण और जो भी नया उतरता हम शिष्यों में बांटते चले आ रहे। इसी लिए चरैवेति-चरैवेति कार्यक्रम का निर्माण किया।
मंगलमय अस्तित्व की बड़ी कृपा रही जीवन में। बचपन से सीखने को, सिखाने वाले महापुरूषों को मेरे जीवन में भेजता ही रहा। सीधे आध्यात्मिक विराटता को हम पर प्रगट करने वाला, विस्तार देने वाला, प्रगाढ़ करने वाला और अंत में बांटने वाले महापुरूषों में, अनेक सद्गुरू आये। अभी का यह अंतिम सद्गुरू प्यारे सिद्धार्थ औलिया जी हैं। मुझ पर प्यारे सद्गुरू की बड़ी कृपा है। एक बार किसी प्रश्न के समाधान में मैंने उनसे पूछा कि क्या मैं आपसे सलाह ले सकता हूं। उन्होंने जवाब दिया के गुरू सखा रूप भी होता है। आप सलाह ले सकते हैं। मुझे समस्या याद नहीं है लेकिन यह अमृत वचन याद है। आश्चर्य होगा आप सबको, प्यारे ने मुझे उंगली पकड़ कर लिखना, बोलना और गुह्य आध्यात्मिक आयामों को हम पर प्रकट किया। बहुत सारे गुप्त, इसोटेरीक आयामों को मैं आप तक प्रगट नहीं कर सकता। यह राज है, रहस्य है।
हम लोग सारे कार्यक्रम के प्रथम बैच थे। परमहंस समाधि कार्यक्रम हमलोगों के समय था। अब नहीं है। हमलोगों के समय जो कार्यक्रम होते थे वह अब नहीं हो रहा। सद्गुरू के साथ रहने से हर क्षण कुछ-न-कुछ नया जीवन, नई बातें सीखने को मिलती है, ज्ञात और अज्ञात सब ढंगों से सद्गुरू सान्निध्य बरसता है, यह रहस्य है। एक दिन ऐसा हुआ कि हम और प्यारे सद्गुरू प्रातः भ्रमण में अकेले थे। चर्चा चल रही थी ज्ञान और भक्ति पर। सुमिरन का कार्यक्रम शुरू होने वाला था। चर्चा ज्ञान पर थी। बहुत बातें हुई, बड़ी चर्चा हुई। अचानक एक नए शब्द को जन्म होते देखा- ‘‘सज्ञान भक्ति’। हमलोग बहुत खुश हुए। मुझे बहुत अच्छा लगा। अस्तित्व से प्रार्थना है, प्यारे सद्गुरू का सान्निध्य कृपा बरसता रहे। संतत्व की यात्रा चल ही रही है। नए-नए आयाम जुड़ रहे हैं।
मित्रों के संग :
मेरे जीवन में मित्रों का बहुत ही उच्च स्थान है। साधना जगत में आने के बाद इसकी महत्ता मुझे और दिखने लगी। शरीर से भिन्न, परंतु केन्द्र पर एक। किन-किन मित्रों की मैं चर्चा करूं, सबों का योगदान मेरे जीवन में है। सच पूछिये तो मैं मित्र के मैत्री भाव, संग के एवं परस्परता निर्भरता के भाव से ही जी रहा हूं। इसी भाव ने मुझे विराट होने में मदद की है।
मेरी उम्र जितनी बढ़ती गई, मित्रों की संख्या उतनी कम होती गई। अचानक साधना जगत में प्रवेश से पुनः मित्रों की संख्या बढ़ने लगी। स्वामी चैतन्य भारती जी के संग होने से जब मेरी साधना की गति बढ़ने लगी, मित्रों की संख्या भी बढ़ने लगी। मैत्री भाव, भाईचारा, परस्परता एवं एक दूसरे के लिए जवाबदेही का भाव बढ़ने लगा। ऐसा लगता बिना मित्रमंडली के जीवन में कुछ कमी है।
संघ के शरण’में जाना कठिन है। जो मित्र मैत्रीभाव से संघ में नहीं जी पाते, वे धीरे-धीरे मित्रमंडली से अपने आप अलग हो जाते। जीवन एक अति परिश्रमपूर्ण व्यवस्था न होकर सहज लयबद्ध धन्यता होती है। जीवन एक आयोजन नहीं एक उत्सव होता है। शुरू में और बाद में अट्ठाइस मित्र साथ थे। फिर जब ओशोधारा समाधि कार्यक्रमों में जाने लगा शुरू के दो कार्यक्रमों में ज्यादा मित्र रहे। फिर धीरे-धीरे कम हो गये। अन्तिम आठवें कार्यक्रम में, चार मित्र रह गये।
अमृत अभियान :
इसकी स्थापना 28 फरवरी, 2002 को सद्गुरू ओशो सिद्धार्थ जी ने की। इस अभियान की शुरूआत मरणासन्न एवं मरते हुये व्यक्ति की शांतिपूर्ण एवं आनन्दपूर्ण शरीर से विदाई हेतु किया गया। अभी तक मेरे प्रयोग क्षेत्र में मरणासन्न, मरते व्यक्ति, मरने के बाद, कैंसर ग्रस्त रोगी, हार्ट-अटैक के रोगी, अन्य तरह-तरह के रोगी एवं अन्य बीमार जीव-जन्तु आये हैं। प्रयोग से कैंसर ग्रस्त रोगी का दर्द कम हुआ एवं उनका जीवन काल और बढ़ गया। रोगियों को पीड़ा एवं रोग से जल्दी स्वास्थ्य लाभ हुआ।
अमृत अभियान जीवन, बीमारी, मृत्यु की पीड़ा, जीवन की पूर्णता की समझ, दुख दूर करने सम्बन्धी स्पष्टता का भाव एवं तैयारी, शरीर छोड़ते समय ओंकार से प्रीति, शांतिपूर्ण, आनन्दपूर्ण यात्रा की तैयारी एवं अगले जन्म की तैयारी है।
अमृत अभियान में दिव्य आत्माओं के जन्म की तैयारी भी करायी जाती है। गुरू आशीष से ‘बहुजन हिताय, बहुजन दिव्य सुखाय’हजारों अमृत स्नातक तथा कुछ विशेष निपुण एवं सक्रिय साधक इस दिशा में भारत, नेपाल सहित अन्य देशों में भी कार्यरत हैं।
भारत में प्रयोग से पाया गया कि इसकी बहुत ही आवश्यकता है। लोग बहुत ही दुःखी जीवन जीकर भयभीत रह रहे हैं। मृत्यु से बहुत घबराये हुये हैं। दुःख और मृत्यु जो अवश्यम्भावी है, उसको सहज स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। तिब्बत में मृत्यु को सहज स्वीकार शुरू से सिखाया जाता है। इससे आम आदमी के मन में ‘शरीर छोड़ने’का सहजता से स्वीकार भाव बन जाता है। इससे जीवन, बीमारी, दुःख, मृत्यु के समय ‘भाव’ बदल जाता है। मृत्यु के प्रति सजगता (डाइंग अवेयरनेस), सहज, शांतिपूर्ण एवं आनन्दपूर्ण जीवन के लिए आवश्यक ही नहीं वरन् आधारभूत भी है।
अमृत प्रयोग’कोई चमत्कार या प्रदर्शन नहीं, बल्कि ‘अमृत चैतन्य’के अनुभव को बढ़ाने एवं प्रगाढ़ करने के लिये है। इसे दवा वाली इलाज के तरह नहीं समझा जाना चाहिये। अपने अमृत चैतन्य से प्रयोग कर, अपने एवं दूसरे दुखी शरीर एवं दुखी मन को अपने अमृत से व्यवस्थित कर, उसमें समता और लयबद्धता लाया जाता है। ”अमृतप्रयोग में जैसे जल अपना तल स्वयं ढूँढ लेती है, ‘अमृत का’, भाव एक शरीर से दूसरे शरीर में स्वयं होने लगता है।
लाख दुखों की एक दवा है - अपना ‘अमृत चैतन्य’ और करूणा से भरा एवं विकसित होता हुआ ‘निराकार अमृत चेतना’। इन दोनों का, भाव से, किसी जीवित आकार (शरीर) से जुड़ना। इसका अभ्यास ही ‘अमृत अभियान’है।
ज्ञान से संतत्व की ओर :
संतत्व भी अनन्त में सद्गुरू एवं गोविंद संग भरोसे की यात्रा, जीवंतता, संतत्व-जीवन है। नया जीवन, प्रगट जीवन, जन्मों के बाद सद्गुरू मिलन सान्निध्य चरण-शरण प्यारा जीवन। जन्मों बाद सद्गुरू मिलन-सान्निध्य-चरण-शरण में जीता हुआ अखंड जीवन। पूर्व जन्म के पुण्य की कमाई, परमात्मा की कृपा से सद्गुरू मिलते हैं। यह मिलन संयोग नहीं परमात्मा का आयोजन है। यह सब मानव की प्रभु प्यास, मुमुक्षा, पूर्ण प्रेमल खोज पर ही निर्भर करता है। सद्गुरू मिल गए बहुत बड़ी यात्रा की भरोसेमंद शुरूआत और अनंत यात्रा शुरू हो गयी। भरोसा- प्रभु प्यास, सद्गुरू, साधना और अपने पर। सद्गुरू कृपा से नाद दीक्षा मिला। सद्गुरू द्वारा बताए गए 28 समाधि कार्यक्रम और प्रज्ञा कार्यक्रम करते आनंद लेते सद्गुरू के चरणों में मस्ती आनंद अहोभाव से जीवन धन्य हो रहा।
नाद श्रवण तो शुरूआत है। प्रेम, अहोभाव, समर्पण, आनंद-ओंकार-नाद के शरण में। भीतर आत्मा के गूंजते दिव्य अनंत नाद के चरण में अपने को छोड़ देना, डूबते जाना। यही साधना समाधि, सुमिरन में ले जाता। जीवन धन्य हो जाता है। श्रद्धा भाव से जितना मिला जितनी थोड़ी-सी तृप्ति हुई उस पर भरोसा। यह भरोसा आपके सहारे का काम करता है। डोर-सहारा, पकड़ लिए तो प्रभु और गुरू, गुरू और प्रभु दोनों साधक को रहस्यमय, आनन्दमय, अनंतपथ पर आगे लिए चलते हैं।
उस पथ पर भरोसा से यात्रा करते रहें। यात्रा शुभमंगल, बढ़ता हुआ आनंदित, शांत, अविचल, मां की तरह संभालता हुआ, पिता की तरह ललकारता हुआ, प्रकृति की तरह आकर्षित करता हुआ, परिंदों के गीत गाते हुए पथ पर मस्त गमन-रमन बढ़ता रहता। अनमोल रसपूर्ण यात्रा। परमात्मा की यात्रा। वाह जीवन। मैं तो निहाल हो गया।
आत्मा एवं उसके अनंत आयाम, आत्मानंद लाता। ब्रह्म, परमात्मा जो सदा सर्वदा सब जगह मौजूद है। ब्रह्मानंद लाता। सद्गुरू के चरणों ही विराट आकाश में अनंत ब्रह्म कणों के साथ आती गहरी सांसों में ब्रह्मानंद का अनुभव होता। भीतर अंतर आकाश में अनंत ज्योतिर्मय कणों का अनुभव करते निकलते गहरी सांसों के साथ आत्मानंद का अनुभव होता। सांसों के खेल, आवागमन में ब्रह्मानंद, आत्मानंद अनुभव करते रोम-रोम से सदानंद का अनुभव होते रहता है।
सदानंद सदा विद्यमान रहता है। रोम-रोम से यह आनंद प्रगट होता और विस्तार लेता। यह सांसों की यात्रा, अनमोल, अद्भुत यात्रा शुरू होती सद्गुरू के संरक्षण में पर इसका अंत ही नहीं होता यानी यह भी अंतहीन शुरूआत है। जब आती-जाती गहरी सांसों के बीच लंबा ठहराव, पड़ाव हो तो उसका आनंद बहुत ही अलग होता है। आती-जाती सांसों के बीच ठहराव और विराट फैलता गूंज अंतहीन-आनंद है।
प्यारे मित्रों इसका आनंद लेते रहें। इसके प्रेम में पड़ें। यह भी फैलता हुआ विराट आत्मानंद है। ठहराव, भराव का आनंद लेते रहें। उसके प्रेम में पड़ें। यह बिना सद्गुरू के संभव नहीं है।
ब्रह्मानंद की बात ही अलग है। खोते जाना, खोते जाना, खो जाना अनंत में, महाशून्य में, पता ही न चलना ब्रह्मानंद है। यह गुरू गोविन्द के कृपा से ही संभव है।
सद्गुरू सिद्धार्थ औलिया जी का मौलिक योगदान :
भारतीय जनमानस, संस्कृति, सद्धर्म, सगुण, निर्गुण, देवसंस्कृति, पूजा-पाठ, यज्ञ-हवन एवं अन्य क्रियाकांडों पर निर्भर है। इसको प्यारे सद्गुरू ने अपने अनुभव एवं शास्त्र ज्ञान के द्वारा पुनः मानव जीवन में स्थापित कर दिया। ओशो के दीवानों ने यह समझा की ओशो पूजा-पाठ, देवी-देवता आदि के विरोधी हैं। मैंने भी यही समझा और सगुण उपासना को त्याग दिया था। इससे हमारे घर की संस्कृति में व्यवधान आने लगी और परिवार में दुविधा की स्थिति पैदा कर दी।
परन्तु जब से ओशोधारा का निर्माण हुआ, सद्गुरू के बताये विधियों व निर्देशों का अनुपालन करने लगे तो बात बदल गयी। श्रद्धा, समझ और परिवार संग सगुण उपासना कर सब मिलकर जीने लगे। सद्गुरू के शिव दरबार, विष्णु दरबार, सूफी दरबार, हनुमत रेकी एवं आरती चिकित्सा ने पूरे भारत के ओशो के अधूरे समझ को परिष्कृत कर दिया।
ओशो ने ध्यान का अलख जगाया, इसे लोग समझ नहीं पाये। उनके अमृत वचनों को ओशो प्रेमी अपने प्रवचन का विषय बना लिये। भारतीय मूल्यों एवं धारणाओं को चोट पहुंचाने लगे। जनमानस तिलमिला गये और ओशो के विरोध में खड़े हो गये।
ओशो के वचनों को याद कर उसी को दुहराते रहे और लोग मतवादी हो गये। शिष्यों की साधना की अपरिपक्वता एवं अनुभवहीनता रही, उसमें भी मतवादी हो गए। उनके लिए साधना, जागरूकता, ध्यान एवं प्रेम विकसित साधना नहीं बल्कि तर्क का विषय हो गया। बेवजह जनमानस को अपने मतों एवं वचनों से चोट पहुंचाने लगे। इससे आम जन ओशो को ही गलत समझने लगे।
सद्गुरू ने प्रज्ञा, मन शुद्धि एवं भाव शुद्धि का विज्ञान प्रयोग रूप में दिया। प्रत्येक अट्ठाईस तलों में समाधि का प्रयोग डाला। हरेक सत्रों में समाधि के प्रयोग कराए गए। सारे कार्यक्रमों में प्रत्येक दिन सुमिरन का प्रयोग करवाया गया। प्यारे सद्गुरू ने कमाल कर दिया। परमात्म, प्रेम एवं भक्ति के लिए अलग कार्यक्रम बना दिए। चैतन्य सुमिरन से चरैवेति तक चौदह कार्यक्रम बना दिए। परमात्मा के प्रेम, भक्ति से जीने का कार्यक्रम दे दिया। कोई भी साधक चाहे तो दिन भर अपनी जवाबदेही निभाते हुए परमात्म-भक्ति, सुमिरन में रह सकता है। यही इस कार्यक्रम की खूबी है, महिमा है।
व्यक्तिगत लोग घरों में अपना, अपने परिवार और जगत के लिए प्रार्थना करते हैं। जितने भी दरबार हैं, सब जगत के कल्याण हेतु सबके शुभ-मंगल हेतु प्रार्थनाएं की जाती हैं। सर्वव्यापी नाद सुमिरन करते हुए सब के लिए प्रार्थना की जाती है। यह अनुभवजन्य है कि जगत में आती हुई विपदा टल जाती या कम हो जाती है।
यह प्यारे सद्गुरू की करूणा, दूरदर्शिता और ‘‘सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चित् दुखः भाग्भवेत्’प्राचीन उपनिषद, ऋषियों के प्रार्थना को पुनः हम सब जी रहे। सद्धर्म की स्थापना अपने भीतर के आत्मा, समष्टी ब्रह्म को जानते हुए सब आकारों, पर्यावरण के मंगल के लिए संघ सदा प्रार्थना करते हैं।
जिन्होंने समाधि के चौदह कार्यक्रम और भक्ति सुमिरन के चौदह कार्यक्रम किए हैं, उनका जीवन धन्य हो रहा, वे निहाल हो रहे।
गुण गाउ, सद्गुरू के गुण गाउ
मन न अघाये, सद्गुरू को गाउ, गाते रहूं
सद्गुरू के, परमात्मा के चरणों में
जीता रहूं, जीता रहूं।
सुमिरन में सिनर्जी सद्गुरु सिद्धार्थ औलिया जी की मौलिक खोज :
सद्गुरू का सुमिरन प्रयोग समकालिक आध्यात्मिक प्रयोगों में मौलिक है। प्राणायाम में भी सुमिरन की विधि से प्राणायाम-सुमिरन ओशोधारा में ही प्रतिपादित है। सद्गुरू ने कर्मयोग, कर्मानन्द की महत्ता को भी व्यक्ति और परिवार में स्थापित कर दिया। सद्गुरू ने सिनर्जी की महिमा खूब गायी है। निवृति मार्ग, प्रवृति मार्ग का मिलन कर सम्वृति मार्ग का प्रतिपादन किया है। उन्होंने सुमिरन की सिनर्जी कर 24 घण्टे सुमिरन में जीने का द्वार खोल दिया है। बस हमें अपनी 24 घण्टे की अपनी दिनचर्या में सुमिरन में शिफ्ट होने की कला सीखनी है। टहल रहे हैं तो चक्रमण सुमिरन, कर्म में साक्षी सुमिरन और अकर्म में हैं तो तथाता सुमिरन।
गुरु और गोविंद की कृपा से अब मैं सदानन्द मय जीवन जी रहा हूँ।
सहज योग से मानवता खिल गयी, हंस उठी। ध्यान-समाधि-सुमिरन में जीते हुए आनंद, मस्ती, मर्यादा एवं जवाबदेही को जीते हुए ओशोधारा संघ सद्धर्म को जी रही है, विस्तार दे रही है। जय सद्गुरू, जय ओशोधारा संघ।
प्यारे संतो, मित्रों को बताना चाहूंगा
सद्गुरू एकमात्र सहारा जगत में, ब्रह्म नाद, नाद ब्रह्म नाव
चढ़ाने, खेने वाला सद्गुरू, चढ़ने वाला साधक
चढ़ा सो उतरे पार, चढ़ा सो उतरे पार जगत में, उतरे पार...।
एक बार प्यारे सद्गुरू औलिया जी ने परम पद में आने से पहले के कार्यक्रम में कहा था कि मैं आप लोगों को लाईफ लाईन देता हूं परम पद के लिए। आप अपनी अहोभाव की टंकी फूल कर लायेंगे। जैसे आप अपनी गाड़ी का टंकी 2 लीटर या 4 लीटर या कभी 10 लीटर डालते हैं लेकिन जब पूरा भर लेते हैं, उसकी बात, उसका भरोसा, उस पूर्ण भरावपन का जीवन-अनुभव अलग होता है। उसी तरह अपने अनुभव की टंकी पूरा फूल कर आयेंगे तब परम पद की यात्रा सुगम, सरल होती रहेगी।
देखा आपने सद्गुरू, प्यारे सद्गुरू, कृपालु सद्गुरू, भगवान सद्गुरू, कैसे आध्यात्मिक यात्रा में भी आगे बढ़ने हेतु छोटे-छोटे टिप्स देते, कल्याणकारी टिप्स देते चले जाते हैं। सद्गुरू की जय हो।
वैराग्यसाम्राज्यदपूजनाभ्यां नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम् ॥ 1 ॥
कवित्ववाराशिनिशाकराभ्यां दौर्भाग्यदावां बुदमालिकाभ्याम् ।
दूरिकृतानम्र विपत्ततिभ्यां नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम् ॥ 2 ॥
नता ययोः श्रीपतितां समीयुः कदाचिदप्याशु दरिद्रवर्याः
मूकाश्र्च वाचस्पतितां हि ताभ्यां नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम् ॥ 3 ॥
नालीकनीकाश पदाहृताभ्यां नानाविमोहादि निवारिकाभ्यां ।
नमज्जनाभीष्टततिप्रदाभ्यां नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम् ॥ 4 ॥
नृपालि मौलिव्रजरत्नकांति सरिद्विराजत् झषकन्यकाभ्यां ।
नृपत्वदाभ्यां नतलोकपंकते: नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम् ॥ 5 ॥
पापांधकारार्क परंपराभ्यां तापत्रयाहींद्र खगेश्र्वराभ्यां ।
जाड्याब्धि संशोषण वाडवाभ्यां नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम् ॥ 6 ॥
शमादिषट्क प्रदवैभवाभ्यां समाधिदान व्रतदीक्षिताभ्यां ।
रमाधवांध्रिस्थिरभक्तिदाभ्यां नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम् ॥ 7 ॥
स्वार्चापराणां अखिलेष्टदाभ्यां स्वाहासहायाक्षधुरंधराभ्यां ।
स्वांताच्छभावप्रदपूजनाभ्यां नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम् ॥ 8 ॥
कामादिसर्प व्रजगारुडाभ्यां विवेकवैराग्य निधिप्रदाभ्यां ।
बोधप्रदाभ्यां दृतमोक्षदाभ्यां नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम् ॥ 9 ॥
~ आचार्य प्रशांत योगी
11 Aug 2021
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💐ओशोधारा संतों की धारा है 💐
ReplyDeleteआचार्य प्रशांत योगी जी की परमगुरु ओशो से दीक्षित होने के बावजूद गुरुदेव के श्री-चरण-कमलों में समर्पण और सर्वस्व उनको समर्पित कर देना अपने आपमें उनकी सच्ची प्रभु प्यास को दर्शाता है (क्योंकि जिन्होंने ओशो को देखा है उनसे सजीव दीक्षित हुए हैं वे महाअहंकारी हो जाते हैं। दूसरे जीवित गुरु के श्री-चरणों में समर्पण करना उनके लिए असंभव हो जाता है !!)
गुरुदेव के आशीष तले आचार्य जी की ज्ञान से भक्ति की ओर, बुध्दत्व से संतत्व की ओर की अद्भुत यात्रा को पढ़कर रोम-रोम आंनदित हो गया।
आचार्य जी को बारंबार नमन।
🕉️🙏जय गुरुदेव🙏🕉️
अति सुन्दर, प्रेरणादायक 🌹🙏🙏🙏🌹
ReplyDeleteGratitude Sadgurudev
ReplyDeleteGratitude Acharya Shree Prashant yogiji