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    मेरी साधना यात्रा ~ अमृत सिद्धार्थ




    नाम : दधि राम पन्थी 
    सन्यास नाम :  अमृत सिद्धार्थ 
    जन्म तिथि :  Dec 1975                                   
    व्यवसाय : व्यापार                                                   
    निवास : तिलोत्तमा नगर पालिका -9 ओशो विलेज, मंगलापुर , जिला - रुपन्देही, अंचल - लुम्बिनी , नेपाल।
     
    समाधि कार्यक्रम: चरैवेति


    ओशो का यह गौरीशंकर, पवित्र जैसे मानसरोवर। 

    प्रेम रहस्य सौन्दर्य भरकर, बह रही है गंगा बनकर।

    युगों युगों की पुकार से, रच गयी इतिहास नयी रूहानी।

    भक्ति की यह अमरधारा, गुरु शिष्यों की प्रेम कहानी।

    परवाने सब आ गये सारे, ओशो का यह संगत प्यारा।

    ध्यान, समाधि, साक्षी, सुमिरन, का है संगम ओशोधारा


    मेरी जीवन की पृष्ठभूमि :

    भगवान गौतम बुद्ध की पावन जन्मस्थली लुम्बिनी से करीब 150 km  दूर गुल्मी जिला के एक रमणीय सुन्दर गांव तम्घास में मेरा जन्म हुआ। यह गांव पवित्र तीर्थस्थल रेसुंगा पर्वत की गोद में स्थित है।

    मेरे माता-पिता ने देवी भगवती कि 1 महीना तक पूजा, आराधना, व्रत, उपवास, भजन और कीर्तन करके भगवती के प्रसाद स्वरूप मुझे तीन बेटियों के बाद चौथे पुत्र रत्न के रुपमें प्राप्त किया।

    बचपन अत्यन्त लाड़-प्यार से बीता। मेरे पिता कृष्ण भक्त थे। मुझे ऐसा कोई दिन याद नही कि मेरे पिताजीके श्री मुख से भजन न गाया गया हो। पहाड़ी जीवन खेती, किसानी का काम जब भी छोटे मोटे काम से फुर्सत मिलता तो वे भजन गाना शुरू कर देते थे। वे अशिक्षित थे लेकिन फिर भी कहीं मन्दिर से, कहीं तीर्थस्थल से या कहीं पूजा-वेदी में गाये गए  भजनोंको सुन-सुन करके उन्होंने बहुत से भजनों को कंठस्थ कर लिया था।

    वे जिस तन्मयता के साथ भजन गाते थे ऐसा लगता था कि हरि भजनमें डूबना ही उनके जीवन का एक मात्र उद्धेश्य है। उनकी यह जीवन शैली से मेरा बाल हृदय बहुत प्रभावित था।


    कुछ भजन इस प्रकार थे :

             हे कृष्ण हमे भी ले चलो उस देश

             बाँसुरी के धुन सुनाते सुनाते ...

             रात दिन हरि  की सत्कीर्ति  गाउँ

             हे कृष्ण श्री कृष्ण भनि दिन बिताउं ...।


    माँ भी पिताजी की जीवन शैली से अत्यन्त खुश थीं। कभी-कभी कोई राह चलते भजन गाता हुआ इकतारा बजाता हुआ संन्यासी मिला तो रातको ठहर ने के लिए घर ले आती थी। हम सब परिवार के सदस्य रात-रात भर संयासियों के भजन सुन-सुन कर बहुत आनन्दित होते थे। घर में हरि भजन और उत्सव का आयोजन साल में एक दो बार होता रहता था। घर के इस प्रकार के माहौल ने प्रभु प्राप्ति की खोज में मेरे लिये बहुत बड़ा सहयोग प्रदान किया।

    मैं जब 14 साल का हुआ तब पेट के किसी असाध्य रोग के कारण पिताजी का देहान्त हो गया। देहान्त भी उनके जीवन की तपश्चर्या के अनुसार कृष्ण-गंगा नदी के तट में स्थित, कृष्ण मन्दिर के प्राङ्गण में अन्तिम सांस तक बात करते-करते, नदी स्नान करके मन्दिर का प्रसाद ग्रहण करने के बाद हुआ।

    वृद्ध माँ, दो बिन ब्याही बहनें, एक छोटा भाई, धीरे-धीरे करके घर की सारी जिम्मेदारी मेरे कंधे पर आ गई। गरीबी और जिम्मेदारी के कारण जीवन का पूर्वार्ध अत्यन्त संघर्ष पूर्ण रहा।

    इसी संघर्ष पूर्ण जीवन ने मुझे बहुत कुछ सिखाया, चेताया, झकझोरा और सद्गुरु के श्री चरणों मे झुकने के काबिल बनाया।

    इसी संसार की आपाधापी ने परिस्थितियों से जूझना सिखाया, जिम्मेदारी लेने की क्षमता विकसित हुई। रीढ़ की हड्डी मजबूत हो गई। जीवन अत्यन्त परिपक्व बन गया। ओशो के प्रवचनों से भी संसार के सम्बन्ध में मैने यही सीखा है कि अगर ठीक-ठीक ढंग से संसार में जीना आ गया तो संसार तुम्हारे लिए प्रभु प्राप्ति की पाठशाला बन जायगा। मेरे लिये ओशो का यह वचन बिलकुल सत्य साबित हो गया।

                                      

    गुरूदेव की कृपा के छांव तले :

    भगवान गौतम बुद्ध के पवित्र जन्मस्थल लुम्बिनी के पास हम बहुत से सन्यासियों ने मिलजुल कर एक सुन्दर सा ओशोका आश्रम बनाया है। उसी आश्रम के प्राङ्गण में गुरुदेव के परम पावन "श्री-चरण-कमलों" से संस्पर्शित मन्दिर जैसा सुन्दर मेरा घर है। गुरुदेव की शरण में समर्पित पति परायण पत्नी, गुरूदेव का दीवाना अत्यन्त प्रतिभाशाली लक्ष्मण जैसा प्यारा भाई और उसकी पत्नी। हम दो भाई के एक-एक पुत्र रत्न के साथ हमारा यह गुरुमुखी परिवार गुरुदेव के आशीष तले समस्त संतापों से दूर उत्सवपूर्ण जीवन जी रहा है l

                                              

     गौरव पूर्ण संन्यासी जीवन :

    भगवान श्री कृष्ण के भजन के प्रभाव के कारण ग्रन्थ रत्न गीता पर बचपन से ही बहुत आकर्षण था। उम्र के बढते-बढ़ते मैने गीता को अपना सहचर बना लिया। अत्यन्त भक्ति-भाव से मैंने गीता को बहुत सालों तक पढा। गीता को पढ-पढ के खूब समझने की कोशिश करता था। समझने की क्षमता तो नही थी। कहां कृष्ण का सत्-चित-आनन्द स्वरूप चैतन्य की बात करना, कहां ओमकार स्वरूप आत्मा सत्ता की बात करना ! यह सब बात मेरे लिए गुरुदेव के "श्री-चरण-कमलों" में शरणागति के पहले केवल कल्पना मात्र थी। फिर भी "अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।"

    ऐसे-ऐसे श्लोक पढ-पढ कर अपने को सान्त्वना देता था। और आनन्दित रहता था। बात बिलकुल स्पष्ट नही थी कि मै क्या चाहता हूँ। मेरे जीवन का उद्धेश्य क्या है ? मै कौन हूँ ? मेरा परिचय क्या है ?  मन ही मन भगवान कृष्ण से प्रार्थना करता था कि मैं तो तुम्हारी शरण में हूँ प्रभु ! तुम ही जानो और प्रेम के आँसुओं से मन की कलुषता को धो-धो कर अपने को तरोताजा महसूस करता था  l

    जब ओशो की गीता दर्शन का भाष्य पढा। तब मेरे जीवन की सम्पूर्ण दृष्टि बदल गयी। सन 1992 से जब ओशो को पढ़ना सुनना शुरु किया उनका साहित्य ही मेरे जीवन का सहचर बन गया। कृष्ण की जगह अब ओशो ने ले ली। 10-12 साल तक ओशो का साहित्य पढ-पढ कर अपने को खूब समझदार समझने लगा था। लेकिन जब तक गुरुदेव के शरणागत न हुआ तब तक की मेरी सारी समझदारी गुरु शरण में समर्पित होने की तैयारी मात्र ही थी। 

    भगवान गौतम बुद्ध की जन्मस्थली लुम्बिनी के प्राङ्गण नें सन 2003 मार्च मे त्रिदिवसीय "आनन्द-प्रज्ञा" कार्यक्रम में मुझे भी निमन्त्रण मिला। निमन्त्रणा मिलते ही कार्यक्रम में भाग लेने के लिए हम 82 मित्र इकट्ठे हो गए। उन में से बहुत से मित्र पहले से ही ओशोधारा में यात्रा कर रहे थे। कार्यक्रमका संचालन स्वामी शैलेन्द्र सरस्वती जी कर रहे थे। उनकी मस्ती से हम सब लोग बहुत प्रभावित थे l  (हालांकि 2019 की दुर्भाग्य पूर्ण घटना के बाद मेरा यह भ्रम टूट गया। और यह बोध हुआ कि यदि ज्ञान पर ही हम रुक गए तो अहंकार के जाल में फंसना सुनिश्चित है। सुमिरन ही अल्टीमेट है।)

    हम लोगों ने उनसे पूछा आपका परिचय क्या हे ? आप कौन हैं ? आपकी मस्ती का कारण क्या है ? उन्होंने हमे स-विस्तार बताया -

    मैं मोटा भद्दा 95 kg का आलसी आदमी मेरी तो कोई पात्रता नही थी। ओशो की करुणा से प्यारे सद्गुरु "ओशो सिद्धार्थ" जी का मेरे जीवन में आगमन हुआ। उनकी कृपा से मेरा ॐकार से परिचय हुआ। उनके ही सानिध्य में साधना करते-करते मैं ओमकार से एक हो गया। मेरा कोई अन्य परिचय नही l ओशोके शरीर से विदा होने के बाद हम बहुत निराश और हताश हो गए थे। "ओशो सिद्धार्थ" जी के आगमन से हमारे जीवन में फिर से बसन्त आ गया। उनके प्रति मैं बहुत अनुगृहित हूँ। उन्होने आगे कहा मैं आप लोगों को वही प्रेम निमन्त्रण देने के लिए आया हूँ। यह जो अमूल्य जीवन स्वयं को जानने के लिए हमको मिला है, जीवन्त सद्गुरु के सानिध्य में इसे प्रभु पर समर्पित कर दें और आत्मवान बन कर आनन्दित जीवन जियें। स्वयं को ओशोधारा से जोड़ें और ओशोधाराका यह संदेश दूर-दूर तक फैलाएं l उनका यह वचन मुझे अपने सद्गुरु के प्रति और भी आकर्षित कर रहा था। मैं वहीं पर ओशो की माला दीक्षा से दीक्षित हो कर ओशो का संन्यासी बन गया।


    अनहद दीक्षा और समाधी का अनुभव :

    ओशो धारा के कार्यक्रम शुरु-शुरु में 9 दिन के हुआ करता थे। "आनन्द-प्रज्ञा" कार्यक्रम से बहुत प्रभावित होने के कारण 1 साल की व्यग्र प्रतीक्षा के बाद सन 2004 मार्च में "ध्यान-समाधि" और "सुरति-समाधि" लगातार 18 दिन के कार्यक्रम में भाग लेने के के लिए सौराहा आश्रम में चला गया।

    मुझे ऐसा लग रहा था कि मैं अपने जीवनभर जाने-अन्जाने जो कुछ भी तलाश रहा था। जो कुछ भी जानना चाह रहा था। वह सब कुछ मुझे मिलता जा रहा है। कार्यक्रम के एक-एक सत्र से मैं इतना आनन्दित होता चला गया ..!  मेरी मस्ती की उड़ान का कोई सीमा ही नही थी ..!

    प्रज्ञा कार्यक्रम के बाद "अनहद दीक्षा"  की बारी आ गई l  मेरे आंखों से आनन्द का झरना बहना शुरू हो गया। मैं बहुत सुखद आश्चर्य से चकित हो गया था। इतना आनन्द , इतना मस्ती मैने अपने जीवन में कभी भी महसूस नही की थी। ॐकार को गुरुदेव की कृपा से दान में पा कर मेरे आनन्द का झरोखा खुल गया था। मुझे ऐसा लग रहा था कि मेरा जनम-जनम का बिछुड़ा साथी मिल गया हो। जिसे मैं जन्मों से पुकार रहा था। कार्यक्रम के दौरान मुझे ओशो का प्रवचन  "झुक आइ बदरिया सावन की" पढने का अवसर मिला। मेरे हृदय में दबी-दबी सी जो प्रेमकी पुकार थी मीरा की उस काव्यात्मक अभिव्यक्ति के माध्यम से, ओशो की अवाज बनकर बाहर आ रही थी। प्रेम के आकाश में मै भी ओशो के साथ उड़ता चला गया। भक्ति की रसधार में डूबता चला गया।

    जो आकण्ठ प्यास से भरा हो उसे ही पानी का महत्व पता चलता है। जिसने अपने श्रम से भूख को कमाया हो उसको भोजन के ग्रास-ग्रास में अमृत के आनन्द का दिव्य स्वाद पता चलता है। जो प्रभु के दर्शन की प्यास से तड़पा हो उसके लिए ही अपने जीवन में सद्गुरु की क्या महिमा हैं पता चलता है !!                                                                                                                            नदियां चीरकर पर्वत को, अनवरत गीत गाती हैं।

    नाचते-गाते सभी प्राणी प्रकृति मुस्कुराती है।

    बसन्त मदमाती फूलों से, नई-नई मंजरियाँ समेटकर।

    पंछी गाते उपवन में,  नये-नये नीड़ लगाकर।

    कण्ठ मधुरिमा कोयल की, नीलिमा गहरी आकाश की।

    निशिभर नाचते तारे देखा, सौन्दर्य सूरज चांद का।

    सुवह से लेकर शाम तक, बदलती फिजा के रंगो में,

    पवन गुजरती है फूलों से, बिखेरती सुगन्ध हवाओं में।

    ताल-तलैया बहुत से देखे, सबसे सुन्दर मानसरोवर।

    हिमाल पर्वत बहुत से देखे, सबसे सुन्दर कैलाश पर्वत।

    नाचता गाता, हँसता खेलता हमेशा खुश रहता था,

    ओशो का दस्तक मिल गया फिर से, बसन्त जीवन में आ गया।

    फीके पड़ गए सभी सौन्दर्य, ओछी पड़ गयी कोकिल गान।

    प्रेम में पड़ गया सद्गुरु का, जब से देखा मधुर मुस्कान।

    झील से गहरी आँखे थी, उतरते शब्द आकाश से।

    देखा पारलौकिक सौन्दर्य गुरु में, साभार सत्य गोविंद से।

    जीवन भर जो तलाशा था, पहचान गया पलभर में।

    आँखे भर गइ अमृत की, गिर गया गुरु के चरणों में।

    मनुष्य जितना भी अपने को समझदार समझता हो खुद को धोखा नही दे सकता। अगर धोखा दे रहा है तो आत्मिक मुर्च्छा में जी रहा है। सिर्फ इस बात का सबूत दे रहा है l जब तक खुद को ही सम्पूर्ण रुप से भरोसा न हो अपने सद्गुरु के प्रति, तब तक एक शिष्य के जीवन में कोई रस नहीं बह सकता। अगर जीवन में कोई रस न हो तो समाधि कहाँ !

    मैं तो शुरु से ही गुरूदेव के एक-एक वचन को अमृत की भांति पीने लगा था। अगले दिन "सुरति समाधि" के दोपहर के सत्र में जब मैं ध्यान में डूब रहा था तब गुरूदेव की प्रवचन माला 'प्रेम से समाधि की ओर' पहली बार सुन रहा था। गुरुदेव का एक-एक वचन मेरे लिए समाधि के फूल के समान लग रहे थे। उनकी ओर मैं इतना खिंचता चला गया, इतना खिंचता चला गया कि परमात्मा भी मजबूर हो गया मुझे अपने गोद में समाने के लिए। मुझे गुरूदेव की कृपा से गहन समाधि का अनुभव हो गया। मैं समाधि में प्रवेश करने की कला से सुशोभित हो गया।

    उस अविनाशी शाश्वत जीवन से एकाकार होने के बाद ही, कुछ समय के लिए प्रभु से प्रसाद स्वरूप मिला हुआ यह जीवन लीलामय बन जाता है। प्रभु मिलन के पहले तो यह जीवन केवल दुःख की कहानी मात्र हैं l


    गुरुदेव से मिलन :

    मेरे भीतर जाने-अनजाने किसी कृष्ण जैसे व्यक्तित्व की तलाश थी। यह बात भी मुझे तब स्पष्ट हुइ जब मुझे मेरे गुरुदेव (सद्गुरु सिद्धार्थ औलिया जी) का दर्शन मिला।2006 July, मेरा जब मुरथल आश्रम में "आनन्द समाधि" में गुरूदेव से मिलना हुआ। तब मुझे लगा कि जिसे मैं खोज रहा था जीवन भर ! वह कृष्णत्व यही हैं। मेरे जीवन के मालिक। मेरे समर्पण को समझने वाले। मेरी प्रार्थनाओं को सुनने वाले, मेरे मुर्शिद। 

    गुरुदेव का प्रथम बार दर्शन मिलते ही, मै सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो गया था।  

    प्रेम एक व्यक्तिगत अनुभूति की बात है। गुरु और शिष्य के बीच में ऐसा क्या घटता है, वह तो शब्दों में बताना बहुत कठिन है ! लेकिन उस मिलन के बाद मेरा जीवन तो सम्पूर्ण रूपसे बदल गया। जैसे मरुभूमि में भटकते प्यासे को शीतल जल के झरने के साथ-साथ मरूद्यान भी मिल गया हो। जैसे कि पारस नें लोहे को छू दिया हो। गुरुदेव के दर्शन मात्र से ही मेरे इस जीवन के सभी क्षुद्र वासनाएं समाप्त हो गईं l

    लोग अपने सद्गुरु के प्रति सालों साल साथ रहने के बाद भी संशय से भरे रहते हैं, गुरुद्रोह कर बैठते हैं ! उनके प्रति दुराग्रह रखतें हैं ! आखिर वह चाहते क्या हैं !!  किस प्रेम की तलाश कर रहें हैं ! उनके लिए प्रेम की परिभाषा क्या है ? यह सब बात मेरे लिए बहुत दुखद और आश्चर्य से चकित कर देने वाली हैं l

    हमारे भारत वर्ष में ऐसे भी लोग हुए हैं जिन्होंने कुत्ते को भी अपना गुरु माना, चोर को गुरु माना, हाथी, घोड़े तक को गुरु माना। और तो और मीरा पत्थर के कृष्ण के प्रति भी इतनी श्रद्धा से भर गयी, कि कृष्ण को भी मीरा के लिए साकार होना पडा। हमारा पूर्वीय संस्कृतिक वाङ् मय ऐसी-ऐसी श्रद्धा के सुन्दर उपमाओं से भरा पडा है। वहाँ पर हमारी दृष्टि नहीं पहुंचती बस उन सब चीजों को अनदेखी कर के हम अपने अहंकार के एकतारे को बजाते रहते हैं l और सद्गुरु से विमुख होकर सत्य को गलत जगह खोजते रहते हैं।

    सारी साधना का एक ही उद्धेश्य है कि कैसे अपने सद्गुरु के प्रति भरोसा बढ जाए और समर्पण घटे ! मुझे अभी भी याद है कि "परम पद" कार्यक्रम में गुरूदेव ने कहा था-" इतने सालों तक चलते चलते आप को मुझ से प्रेम हो गया है आप के और मेरे बीच के प्रेम में अब कोई बाधा न रही। हमारे बीच में अब समतरंगता आ गई है। अब आप मुझे सुन सकोगे। यहाँ प्रेम के बिना कोई किसी को सुनता नहीं।"

    खैर उनकी बात वे ही जाने !!

    कबीरा तेरी झोपड़ी गल कटियन के पास।

    जो करेगा सो भरेगा तू क्यों भयो उदास।।


    ज्ञान से भक्ति की यात्रा में छलांग :

    प्रभु के प्रेम में सतत जीने की कला का नाम सुमिरन है। यह जीवन जीने की सर्वोत्कृष्ट शैली है। सुमिरन के द्वारा हम सदानन्द में सहज ही प्रतिष्ठित हो जाते हैं और संतत्व में हमारी प्रतिष्ठा हो जाती है। तो अध्यात्म की सम्पूर्ण परिभाषा अपने आप समझमें आ जाती है। फिर संसार का कोई भी व्यक्ति आपको अध्यात्म के नाम से दिग्भ्रमित नहीं कर सकता। सुमिराम से हमारे जीवन के केन्द्र में एक ही तन्मयता रहती है कि कैसे उसकी सतत याद बनी रहे। पलभर के लिए भी उसे भूल न जाउँ। ऐसा लगता है कि किसी ने आपको कोई अमूल्य हीरा उपहार में दे दिया हो। फिर क्या आप उसे भूल पाएंगे ! अब भूलने का तो कोई उपाय नहीं। लाख भुलाने की कोशिश करने पर भी भुलाया नहीं जा सकता। यही विरह और मिलन तो प्रभु प्रेम का सौन्दर्य है l

    प्रेम के उस रत्न को प्राप्त करने के बाद गुरुदेव के प्रति इतनी श्रद्धा उमग आती है हृदय में, कि शब्दों में समाना बहुत कठिन है। गुरुदेव के प्रति इतने प्रेम के कारण उनकी याद आते ही मन उल्लास से भर जाता है, हृदय प्रेम से पुलिकित हो उठता है। उनका हरेक वाक्य मन्त्र जैसा लगने लगता हैं। उनके पास बैठने से जीवन में प्रसाद बरसने लगता है। और उनसे दूरी होने से विरह पैदा होने लगता है।  

    संसार के साधारण प्रेम में भी कितना आनन्द और सुकून मिलता है। गुरु का प्रेम तो पारलौकिक है।महासौभाग्यशालियों के जीवन में प्रेम की यह अद्भुत घटना घटती है और जीवन धन्य-धन्य बन जाता है। एक बार आनन्द की इस उचाई को प्राप्त करने पर कोइ भी मलिन वासनाएं जीवन को प्रभावित नहीं कर पाती। जीवन की सम्पूर्ण चाल-ढाल ही बदल जाती है।

    समस्याएं तो जीवन में आती-जाती रहती हैं। कल तक जो दुख का विषाद लेकर कोई समस्या आती थी। अब वह समस्या हमें निखारने के लिए हमें और भी विकसित करने के लिए आती हैं। बात तो वही थी, अब दृष्टि बदल गयी।सच में जीवन में सुमिरन की यात्रा की शुरुआत तो अब हो जाती है। प्रभु मिलन के बाद ही जीवन में सुमिरन की रसधार बहने लगती है। प्रेम के बिना सुमिरन कहाँ ! हमारा प्रयास तो निमित्तमात्र है। प्रभु ही हमें सुमिरन कराता है कबीर नें कहा है "सुमिरन मेरा हरि करें में पाया विश्राम।"  अगर प्रेम के बिना जबरदस्ती से उसे याद करना पड़े तो जल्दी ही हम थक जाएंगे। उसका कोई मूल्य नही।


    मेरा संतत्वमय जीवन :

    मेरा शेयर का कारोबार है। जो मेरा भाई सम्हालता है। लौह का उद्योग और प्रॉपर्टी का कारोबार है। उसके लिए महीने में 1/2 दिन काम करने से हो जाता है। मैं लगभग बिलकुल खाली हूँ। और सुमिरन में रहते हुए दिन भर घर पर ही रहता हूँ। घर का छोटे-मोटे काम के साथ-साथ प्रवचन सुनना मित्रों के साथ सत्संग करना अब मेरे जीवन की शैली है।

    गुरुदेव की कृपा से अब मैं सदानन्द मय जीवन जी रहा हूँ। संतत्व में प्रतिष्ठित जीवन जी रहा हूँ।

    मेरे आनन्दमय जीवन से मेरे सगे-सम्बंधी, मेरे मित्र अत्यन्त प्रभावित हैं। अधिकांश मित्र तो मेरे जीवन को आदर्श मानते हैं।


    ओशोधारा पियक्कड़ों की मधुशाला :

    बुद्ध का यह प्रसिद्ध वचन है कि प्रज्ञा विहीन मनुष्य ध्यान नहीं कर सकता। प्रतिस्पर्धा कि दुनिंयाँ में आदमी को जितना भी सफलता मिले उसकी सफलता की सार्थकता तब होती है जब वह शान्त और सन्तुष्ट हो। शान्ति और सन्तुष्टि का एक ही आधार है- प्रज्ञा। ओशोधारा के सभी प्रज्ञा, समाधि और सुमिरन के कार्यक्रम जीवन के सभी आयामों में हमारे लिए अत्यन्त उपयोगी हैं।

    ओशोधारा पियक्कड़ों की मधुशाला है। जिसको प्रभु को पाने की और उसके  रस में डूबने का पागलपन सवार है। वही आगे 28 तल का कार्यक्रम तय कर पाएगा। आंखों में पट्टी बाँधके प्रकाशको खोजने वाले लोगों के लिए कुछ किया नहीं जा सकता। "निरति समाधि" से ले कर "चरैवेती" तक आगे के सभी कार्यक्रम मैंने पूरी निष्ठा और अहोभाव पूर्वक किए। बीच में "अद्वैत समाधि" के बाद डेढ साल ओशोधारा के आश्रम बनाने के कारण थोडा बिलम्ब हो गया था।

    ओशोधारा के प्रज्ञा, समाधि और सुमिरन के सभी कार्यक्रम एक संवेदनशील साधक के लिए चुम्बकीय आकर्षण से युक्त हैं। ओशोधारा में मनुष्य की संवेदनाओं की जिस ऊंचाई की बात होती है, मैने आज तक अन्यत्र कहीं भी सुनी नही।

    ओशोधारा के इस आध्यात्मिक योगदान के लिए पूरी मनुष्यता हमेशा ओशोधारा की ऋणी रहेगी। गुरुदेव की अपार करुणा के कारण ध्यान-समाधि, प्रज्ञा और सुमिरन रुपी इस बिशाल वट वृक्ष के छाव तले हजारों, लाखो लोग उत्सव मना रहें है, रास रचा रहें है और आगे सदियों तक रचाते रहेंगे और इसकी सुगन्ध को दिग्दिगंत तक फैलाते रहेंगे।                                                                           

    गुरूदेव की मौलिक देन :

    ओशो के  बालसखा स्वामी सुखराज भारती जी से जब सन 2006 में उनके ही निवास स्थान में उनसे हमारा मिलना हुआ। तब उन्होंने भी हम से यही कहा था कि आध्यात्मिक अमूल्य सम्पदा को देकर जब इस धरती से ओशो विदा हो गये, उस वक्त तक लाखों की संख्या में प्रतिभाशाली लोग उनके संन्यासी थे। लेकिन ओशो जगत में ओशो के इशारे को समझने वाले ओशो जे सदशिष्य केवल "ओशो सिद्धार्थ" ही थे। उन्होनें ही ओशो जगत में  'ओमकार' को स्थापित किया। ओमकार के माध्यम से साधना के विविध आयामों से समाधि में प्रवेश करने की कला बताई। ओशो की महासागर से मोतियों को निकालकर प्रभु प्यासों के लिए परोस दिया है। अगर आप लोगों को ध्यान और उत्सव सीखना है तो कहीं भी ओशो के आश्रम में सीख सकते हो। लेकिन ध्यान और उत्सव तो साधना का पूर्वार्द्ध है, इतने से आप तृप्त नहीं हो पाओगे।समाधि के बिना तृप्ति असम्भव है। और अगर साधना के सभी आयामों को जानना है, समाधि को पाकर प्रभु  सुमिरन में जीने की कला सीखना है। तथा सदा सदानन्द में रहना है तो ओशो के संयासियों के लिए इस धरती पर एक मात्र विकल्प है-  ओशोधारा। ओशो के स्वप्न को ओशोधारा ही पूरा कर रही है।


    गुरु सेवा :

    जैसे कि हम सभी जानते हैं दुख से जीवन संकुचित हो जाता है। और आनन्द से जीवन में विस्तार आ जाता है। आनन्द हम सबको बांटना चाहते हैं। उसी आनन्द को बांटने के लिए गुरुदेव के प्रति समर्पित हम कुछ मित्रों के नेतृत्व में बहुत से ओशोधारा के संयासियों ने मिलकर एक बड़ा आश्रम बनाया है। जिसका नाम (ओशोधारा ध्यान केन्द्र मंगलापुर) है l

    जिसके माध्यम से पिछले 12 सालों में हजारों मित्र ओशोधारा से जुड़े हैं। आश्रम का उदघाटन भी गुरुदेव के "कर-कमलों" से हुआ है।

    सन 2019 में गुरुदेव की उपस्थिति में "अजपा समाधि" और "चैतन्य समाधि" जैसे उच्चतर तल के दो कार्यक्रमों का आयोजन भी हुआ है।

    गुरुदेव का शिष्य बननेका सौभाग्य तो है ही, साथ ही साथ एक गिलहरी की तरह ही सही संगत की सेवा में रहने से उनके समीप सरकने, उनकी आंखों में रहने का परम सौभाग्य भी इस आश्रम में रहने वाले हम सभी संघ के मित्रों को मिला है।

    प्यारे मित्रों ! असंवेदनशील जीवन को संवेदनशील बनाने की प्रक्रिया, पत्थर से फूल बनने की प्रक्रिया का नाम साधना है। पत्थर बने रहने में साधना करने की कोई जरूरत नहीं। लेकिन फूल बनकर जीवन को सुवासित करना है तो किसी जीवित सद्गुरु की शरण में जाकर साधना सीखनी होगी। जिसने जीवन के सभी आयामों को परिपूर्णता से जिया हो। जिसका जीवन प्रेम की रसधार से परमात्मामय बन चुका हो। उसकी छन्दमें जीवन को समर्पित करके श्रद्धा और भक्ति का पाठ सीखना होगा। ओशोधारा सभी प्रभु प्यासों को प्रेम भरा निमन्त्रण लेकर इसी महाअवसर को प्रस्तुत कर रही है। सभी प्रभु प्यासों का ओशोधारा में स्वागत है l 

    अन्त में, ओशोधारा की महिमा अनिर्वचनीय है। इस छोटे से संदेश में समेटना सम्भव नही है। जितना कह पाया उससे बहुत आनन्दित हूँ।

    अन्त में गुरुदेव के प्यारे श्री-चरण-कमलों में पुष्पवंदना :-

    गुरूदेव !! 

    श्रद्धा से मुझक‍ो भर दो न !

    मुझको समर्पण सिखा दो न ! 

    मुझे अपने जैसा कर दो न !

    जब आप बिचरते धरती में, आकाश चलता आपके साथ।

    मुस्कुराना आपका होता है, लाखों कलियाँ खिलती साथ।

    आपकी वाणी वेद वचन, आल्हाद से आपुर मेरा मन।

    नाद घनकता शब्दो में, उड़ जाता मैं हृदय गगन।

    याद में आपकी जब रोता हूँ, हृदय मुस्कुराता है।

    मचल-मचल कर मेरा मन, खुशी से पगला जाता है।

    शौर्य , धैर्य, सत्य, शील, जीवन की शैली कर दो न।

    आँसु तेरी पुकार बन जाए, ऐसा मुझे वर दो न।

    आपकी तृप्त आाँखों में, गोविन्द का दर्शन मिलता है।

    होठों से निकलती स्वर सुधा,  प्रेम की वर्षा करता है।

    निर्द्वन्द, निर्भय, करुणाघन, आत्म श्रद्धा से भरा आपका मन।

    उदगीत से हमको भर दो न, हमें अपने जैसा करदो न।

    श्रद्धा भक्ति की अतुल्य राज, आँखों से बयां होती है।

    वचन-वचन पर हरि भजन, हमारा मन म‍ोह लेती है।

    परवाना बन फिरता हूँ, मुझको शमा बना दो न।

    निर्मल बन गयी मेरि दृष्टि, ओर भी निर्मल कर दो न।

    गुरुदेव!

    मुझे अपने जैसा कर दो न!

    श्रद्धा से मुझको भर दो न!

    मुझको समर्पण सिखा द‍ो न!                                       

                        ~ अमृत सिद्धार्थ, मंगलापुर , नेपाल।

                                                     03 Aug 2021

    अनंतसंसार समुद्रतार नौकायिताभ्यां गुरुभक्तिदाभ्याम् ।

    वैराग्यसाम्राज्यदपूजनाभ्यां नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम् ॥ 1 ॥

    कवित्ववाराशिनिशाकराभ्यां दौर्भाग्यदावां बुदमालिकाभ्याम् ।

    दूरिकृतानम्र विपत्ततिभ्यां नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम् ॥ 2 ॥

    नता ययोः श्रीपतितां समीयुः कदाचिदप्याशु दरिद्रवर्याः 

    मूकाश्र्च वाचस्पतितां हि ताभ्यां नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम् ॥ 3 ॥

    नालीकनीकाश पदाहृताभ्यां नानाविमोहादि निवारिकाभ्यां ।

    नमज्जनाभीष्टततिप्रदाभ्यां नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम् ॥ 4 ॥

    नृपालि मौलिव्रजरत्नकांति सरिद्विराजत् झषकन्यकाभ्यां ।

    नृपत्वदाभ्यां नतलोकपंकते: नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम् ॥ 5 ॥

    पापांधकारार्क परंपराभ्यां तापत्रयाहींद्र खगेश्र्वराभ्यां ।

    जाड्याब्धि संशोषण वाडवाभ्यां नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम् ॥ 6 ॥

    शमादिषट्क प्रदवैभवाभ्यां समाधिदान व्रतदीक्षिताभ्यां ।

    रमाधवांध्रिस्थिरभक्तिदाभ्यां नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम् ॥ 7 ॥

    स्वार्चापराणां अखिलेष्टदाभ्यां स्वाहासहायाक्षधुरंधराभ्यां ।

    स्वांताच्छभावप्रदपूजनाभ्यां नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम् ॥ 8 ॥

    कामादिसर्प व्रजगारुडाभ्यां विवेकवैराग्य निधिप्रदाभ्यां ।

    बोधप्रदाभ्यां दृतमोक्षदाभ्यां नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम् ॥ 9 ॥


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    5 comments:

    1. *ओशोधारा संतों की धारा*

      गुरुदेव के द्वारा लगाई गई बगिया ओशोधारा में, ज्ञान रूपी कलियां अब संतत्व रूपी फूल से सुवासित हो रही हैं।
      प्रतिष्ठित तो सभी को सुमिरन में ही होना है। संतत्व सभी की मंज़िल है।
      लेकिन भिन्न-2 पृष्ठभूमि से निकले हुए ये बीज किस तरह से गुरुदेव के आशीष तले उनके मार्गदर्शन में बीज से कली और फिर कली से फूल बनकर अपने गुरुदेव की कीर्ति को सारी दुनिया में सुवासित कर रहे हैं।
      संत अमृत सिद्धार्थ जी की संतत्व की यात्रा को गहराई से पढ़ा कि घर के संस्कार बच्चों के चहुमुखी विकास में बुनियादी भूमिका का सृजन करते हैं।

      पिताजी के जाने के बाद उनके जीवन की संघर्षमयी यात्रा और उसके साथ प्रभु प्यास को सम्हालना अद्भुत है !
      जो नए साधकों को प्रेरित करेगा की संसार और अध्यात्म दोनों को एक साथ संवारा जा सकता है।
      तथा गुरुदेव से मिलन की प्यास और उनके श्री-चरण-कमलों में उनका समर्पण आने वाले साधको की आध्यात्मिक यात्रा के लिए प्रेरणादायक सिद्ध होने वाला है कि अध्यात्म की यात्रा गुरु+गोविंद+शिष्य के बीच की प्रेमालिंगन की यात्रा है। और यह सतत चलती रहती है।

      प्यारे संत अमृत सिद्धार्थ जी को मेरा शत-शत नमन।
      🕉️🙏जय गुरुदेव🙏🕉️

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    2. बहुत सुन्दर स्वामी जी

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    3. जैसे बच्चों को उसके प्रियजन कहते हैं चलो चले चलो चले स्कूल चलें। समय आ गया सद्धर्म की स्थापना हो गई ।साधक कहने लगे चलो चलें ओशोधारा प्यारे सतगुरु सिद्धार्थ औलिया के चरण शरण।
      देखो देखो स्वामी अमृत सिद्धार्थ शरणागत हुए,क्या से क्या हो गए। सगुणी उपासक कृष्ण भक्त परिवार में जन्मे,जिए विभिन्न विषमताओं से गुजरते प्यारे स्वामी जी आ गए सद्गुरु के आश्रय में। गुरुमुखी जीवन जीते साधना करते संतत्व की यात्रा करते संत हो गए ।आइए नमन करें संत स्वामी अमृत सिद्धार्थ जी को।
      चरणों में बलिहारी जाएं प्यारे भगवान सद्गुरु के।संघ की खूबी देखिए संघ मित्रों को संभालता आगे बढ़ाता गले लगाता हाथ पकड़ उंगली पकड़ सद्गुरु के चरण में साथ साथ जाता। जय हो संघ की ।जय हो मानव की।
      प्यारे सतगुरु की शरण में बलिहारी जाऊं ।
      प्यारे स्वामी जी आपने अपनी यात्रा का वृतांत बहुत ही काव्यात्मक,बुद्धि एवं प्रज्ञा से किया ।पढ़ने में बहुत अच्छा लगा।
      खूब खूब प्रेम। आप का वृतांत बहुत ही सरल,सरस है। मित्रों को सतगुरु चरण तक लाने में उपयोगी होगा; साधना में प्रेरित करेगा । जय सद्गुरु,जय ओशोधारा संघ ।
      प्यारे सद्गुरु के चरणो में कोटि नमन अहोभाव।
      आचार्य प्रशांत योगी,पटना,बिहार

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    4. अहोभाव पुर्ण नमन प्रभु जि!!आप हमारे प्रेरणा के श्रोत है हमारे अग्रज है आप ओशोधारा के गौरब है।

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    5. Very beautifully expressed journey����A real source of inspiration to many travellers on this path. Consistent efforts and Sadguru,s Grace lightens up the path. Lots of congratulations swamiji����������

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