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    मेरी साधना यात्रा ~ जागरण सिद्धार्थ

    नाम :- हनुमान प्रसाद यादव             

    सन्यास नाम:- जागरण सिद्धार्थ

    जन्म :- जनवरी 1975

    निवास:- कानपुर

    मेरा जन्म अयोध्या में मेरे मौसा के घर हुआ। मेरे पिता जी हनुमान जी के भक्त थे। उन्होंने घर के भीतर चारो तरफ रामायण की फोटो लगाई हुई थी। घर को पूरा रामायणमय बनाया हुआ था। चूंकि वे हनुमान जी के भक्त थे इसलिए उन्होंने मेरा नाम हनुमान प्रसाद रखा। 

    आध्यात्मिकता की तरफ मेरी छलांग :- 

    जब मैं 12 साल का था तब मैंने गीता गोरखपुर से प्रकाशित पुस्तक "संत एकनाथ" जी की अंतर्यात्रा पढ़ी थी। उसमें उनकी गुरुभक्ति ने मुझे बहुत प्रभावित किया। जो मेरे भीतर पड़े गुरुभक्ति के बीज के अंकुरण में बहुत सहयोगी रहा।

    फिर 16 साल की उम्र में मेरा देवसिद्धि की तरफ आकर्षण पैदा हुआ और यह धीरे-धीरे बढ़ता गया।

    सन 1992 की सर्दी की रात जब मैं 17 साल का था और 11वीं में पढ़ रहा था। तब मैं चुपचाप अपने घर से बिना किसी को बताए जोधपुर को रवाना हो गया और वहां जाकर गुरुदेव श्री 'नारायणदत्त श्रीमाली' जी से दीक्षा लेकर पूरी त्वरा और निष्ठा से साधनाओं में लग गया।

    गुरुप्रेम में जीते हुए साधना शिविर अटैंड करता और घर पर ही साधना करने लगा। सच में मैंने गुरुभक्ति का पाठ वहीं से सीखा है। उसके लिए उनके पूज्य श्री चरणों में शत-शत नमन। और निश्चित ही प्राचीन आध्यात्मिक परंपराओं ने ही गुरु-शिष्य परम्परा को बचाया हुआ है।

    साधनाएं और मंत्र जाप करते हुए समय बीतता रहा। पर मुझे अभी तक यह नही पता था कि अध्यात्म की असली यात्रा क्या है !!

    चूंकि मुझे किताबे पढने का बड़ा शौक रहा, और जिस क्षेत्र में भी मैं उतरता हूँ, तो उससे सम्बंधित सभी साहित्य को पढ़ने की मेरी जिज्ञासा रहती है। ऐसे ही एक किताब की शॉप पर मुझे एक किताब मिली जो ओशो की थी। उसे उठाया और बीच में से कुछ लाइने पढ़ी, तत्क्षण ! मेरे भीतर  स्पष्ट आवाज आयी - "यही है तुम्हारी मंज़िल" करीब 93-94 की बात रही होगी, यह घटना मेरे मानस पटल पर आज भी अंकित है, यह मेरी आध्यात्मिक यात्रा का टर्निंग पॉइंट था। 

    फिर मैंने ओशो को पढ़ना शुरू किया और लाइब्रेरी से उनके ऑडियो कैसेट ला-लाकर सुनने लगा, धीरे-2 ओशो मेरे अस्तित्व में समाने लगे। और धीरे-धीरे मेरे मानस पटल पर निम्न भाव अमिट रूप से अंकित हो गए।

    1. सारी दुनिया गलत, ओशो सही।

    2. सारी दुनिया को छोड़ सकता हूँ ओशो को नही।

    3. जीवन की फेहरिश्त में आध्यात्मिक यात्रा पहले नम्बर पर।

    4. साधना में 101 प्रतिशत देना, आदि ।

    परमगुरु ओशो को सुनने के बाद से ही मेरे भीतर अंतर्यात्रा की, स्वयं को जानने की, बुध्दत्व की प्रबल प्यास जगने लगी। मैं अपने मनमुताबिक ध्यान करने लगा, मैं कम में राज़ी नही था मैं 24 घण्टे साधना करना चाहता था मैंने निष्क्रिय ध्यान चुना ताकि उसे 24 घण्टे फैलाया जा सके। होश की साधना करने लगा, लाओत्सु का तान्देन ध्यान करने लगा। (सक्रिय ध्यान की सुविधा नही थी तथा मेरे आसपास कोई ध्यानकेन्द्र भी नही था।)

    धीरे-धीरे मेरे भीतर सन्यास लेने की प्रबल प्यास जागी कि सन्यास लेकर ही पूरी तरह से ओशो से जुड़ा जा सकता है। फिर सन 1995 में मैं जबलपुर सन्यास लेने निकल पड़ा। और वहां से सन्यास लेकर खुशी-खुशी लौटा कि अब मैं ओशो का सही में सन्यासी बना। पूना से सन्यास नाम आया - 'बोधि जागरण'। 

    फिर पूरी तरह से ध्यान-साधना में लग गया। मैंने 11वीं से पढ़ाई छोड़ दी क्योंकि मुझे उन विषयों को पढ़ने पर जोर दिया गया जो मेरा क्षेत्र ही नही था। जिस कारण मैंने आगे पढ़ने के जरूरत ही नही समझी।

    फिर मैंने 24 घण्टे साधना में लगा दिए। घर से निकलना बंद कर दिया एक कमरे में ही रहने लगा। और मनमुताबिक ध्यान करने लगा। (मैं मध्यम परिवार से हूं मेरे यहाँ medical retail shop है, मेरे घर में शुरू में तो बहुत विरोध हुआ, लेकिन घर में सबसे छोटा था और सब मुझे ज्यादा चाहते थे इसलिए धीरे-2 सब राज़ी हो गए कि मानेगा तो है नही, जीवन बर्बाद करना चाहता है तो करने दो)।

    तकरीबन 1 साल तक मैं घर से निकला ही नही। और धीरे-धीरे मुझे यह भ्रांति होने लगी कि मैं सही दिशा में जा रहा हूँ, जब कि मैं गलत दिशा में जा रहा था।

    1 साल बाद जब मैं घर से बाहर निकला तो मैं आसपास के लोगों तक को भूल गया था। सभी मुझे बड़े आश्चर्य से देखते थे कि आखिर इसे हो क्या गया है !!  

    (क्योंकि दूर तक लोग मुझे जानते थे, क्रिकेट खेलने और पतंग उड़ाने में मैं मशहूर था)

    मैंने हर क्षण होश की साधना का प्रयोग जारी रखते हुए शॉप में जाना प्रारम्भ किया, संसार के कार्यों में उतरना शुरू किया। पर मैं धीरे-2 समाज से कटता जा रहा था, और उत्तरदायित्व से भी दूर जा रहा था। कोई उमंग नही थी, बेरस, कटा-कटा। बड़ी पीड़ा के दिन थे। साधना को तो ले जाना था आनन्द की ओर पर वह जा रही थी संसार से विमुखता की ओर। धीरे- धीरे एक मरघट की शांति, समाज से तोड़ती हुई मनोदशा मुझे आप्त कर रही थी। और मुझे लग रहा था कि सही दिशा में जा रहा हूँ।

    चूंकि बुध्दत्व, आत्मज्ञान तो बिरलों को ही होता है, बड़ा कठिन है, हमारा ऐसा सौभाग्य कहां ! पर ओशो तो अशरीरी रूप में हैं ही, एक दिन बुध्दत्व अपने आप घट जाएगा ! मन ने मुझे इस तरह की एक आध्यात्मिक भ्रांति में पहुंचा दिया था।

    जाना तो था मन के पार पर आज देखता हूँ वह मन का ही खेल था। न ध्यान का पता था? न साक्षी का पता था? कुछ भी अनुभव नही था, बस महाभटकाव।

    (इसी भ्रांति में तथाकथित सारे ओशो संयासी जीते है, जी रहे हैं.. मैं भी जीने लगा।)

    "यह तो ओशोधारा से जुड़ने के बाद गुरुदेव की कृपा से ज्ञान हुआ कि आध्यात्मिक यात्रा बिना स्पष्ट मानचित्र के हो ही नही सकती। और आगे चलकर ओशोधारा में ही जाना निराकार क्या है, अन्तराकाश क्या है, आत्मा क्या है,परमात्मा क्या है और इसके भी आगे अध्यात्म का उत्कर्ष सुमिरन क्या है !!! "


    ओशोधारा से जुड़ने के पहले का निष्कर्ष :

    अब देखता हूँ की यदि मैंने 2002 में ओशोधारा से, गुरुदेव के श्री चरणों में उनको समर्पण कर, उनके मार्गदर्शन में यात्रा नही की होती तो आज मैं भी तथाकथित ओशो का सन्यासी बनकर अध्यात्म की महाभ्रांति- आत्मभ्रांति में जीते हुए यह जन्म भी व्यर्थ गंवा देता !!

    आत्मभ्रान्ति अर्थात आत्मा का कोई भी अनुभव नही बस मान्यता की आत्मा हूं और उसी भ्रांति में जीना। और लगभग सारे तथाकथित ओशो सन्यासी इसी भ्रांति में जी रहे हैं।  

    सार संदेश :- शक्ति साधनाए भटकाव की तरफ ले जाती हैं। और बहुत से निष्ठावान साधकों का जीवन इसमें व्यर्थ जा रहा है। पूरे सद्गुरु से जुड़कर, उनके मार्गदर्शन से ही अध्यात्म की यात्रा को सही दिशा मिल पाती है और साधना अपने उत्कर्ष ; सुमिरन पर पहुंच पाती है।

    आश्चर्यचकित हो जाता हूँ : मैंने परमगुरु ओशो से बेइंतहां प्रेम किया है। और इसलिए जब कोई स्वयं को ओशो का सन्यासी कहता है, और ओशोधारा के खिलाफ बाते करता है, गुरुदेव से नही जुड़ता, तो मुझे उनके ओशो प्रेम पर शक होता है !!

    मैं आश्चर्य चकित हो जाता हूँ कि आखिर यह सम्भव कैसे है क्योंकि मैंने तो प्यारे ओशो से बेपनाह प्रेम किया है। सारी दुनिया एक तरफ और ओशो दूसरी तरफ, तो मैं सारी दुनिया को छोड़ सकता हूँ पर ओशो को नही, ऐसी भावदशा से मैंने प्रेम किया है। और ओशो से इस अपार प्रेम का ही नतीजा मैं समझता हूँ कि उन्होंने मुझे ओशोधारा और गुरुदेव के श्री चरणों में पहुंचा दिया।

    इसलिए मैं अपनी इस बात पर सदा कायम रहूंगा जो अपने को ओशो के सन्यासी कहते है, उनसे प्रेम का बखान करते हैं, वे असल में सिर्फ ओशो के नाम पर अपने अहंकार के ही प्रेमी हैं, ओशो से उन्हें प्रेम है ही नही। क्योंकि जिसने सच में ओशो से प्रेम किया है वह ओशोधारा में है और सतत जुड़ता जा रहा है...।


    ओशो से मेरा जन्मों-2 का रिश्ता :- 

    जनवरी 1990, जब मैं 15 साल का था कमरे में  टेलीविज़न चल रहा था। उसमें दूरदर्शन की न्यूज़ पर एक महिला रिपोर्टर कह रही थी - अपने को भगवान कहने वाले खुद मौत से न बच सके। 

    "मुझे उनके शब्दों से बड़ी अनजानी पीड़ा हुई, वैसा ही जैसे अगर हमारे प्रिय का कोई मज़ाक उड़ाए तो हमें अच्छा नही लगता, बिल्कुल वैसा ही महसूस हुआ। जबकि ओशो से तब तक मैं परिचित नही था। न ही मुझे अध्यात्म का कुछ पता था। निश्चित ही यह पीड़ा, मेरा उनसे पिछले जन्मों के तार जुड़े होने के कारण ही हुई थी। यह घटना मेरे हृदय में आज तक गहराई से अंकित है।"


    ओशोधारा की यात्रा मेरे जीवन का परमसौभाग्य :-

    सन 1995 से मैं निश्चल ध्यान का प्रयोग कर रहा था। हर क्षण हारा केंद्र को स्मरण रखने का प्रयास कर रहा था। साधना में कोई गति नही हो रही थी, बात बन नही रही थी। बल्कि गहन निराशा घेर रही थी।

    सन 2000 में ओशो वर्ल्ड  मैगजीन पढ़ रहा था उसमें गुरुदेव का "आत्म जागरण के लिए आमंत्रण" का संंदेश देखा।

    मैंने 'ओशोधारा पत्रिका' की सदस्यता ले ली। और पत्रिका हर तीन माह में आने लगी। पत्रिका का प्रथम पुष्प पढा जिज्ञासा बढ़ी। और द्वितीय पुष्प पढ़ने के बाद मैंने निर्णय ले लिया कि वहां जाकर प्रैक्टिकल करूँगा। मेरा मन इस अज्ञात चुनौती से घबरा रहा था। मुझे प्यारे ओशो के वचन याद आये कि मन की जहां मृत्यु की संभावना होती है वह वहीं घबराता है। 

    मेरी आध्यात्मिक प्यास बहुत प्रबल थी इसलिये मैंने संकल्प ले लिया और मन से स्पष्ट कह दिया अब मैं ओशोधारा की आठों समाधि करने के बाद तेरी सुनूंगा, तेरी मानूँगा। (उस समय 8 समाधियां ही अस्तित्व में आयी थीं)।

    सन 2002 को 22 मार्च से 09 अप्रैल के लिए समाधि कार्यक्रम (ध्यान समाधि+ सुरति समाधि) करने मैं जबलपुर पहुंच गया। (उस समय 9-9 दिन की समाधियां होती थी)।

    वही पर निष्काम, विराट और राजेश जी जैसे मित्रों से मिलन हुआ। उस समय सद्गुरु त्रिविर होते थे गुरुदेव, स्वामी जी एवं माँ प्रिया जी।

    लेकिन गुरु-शिष्य परंपरा से जुड़े होने के कारण मेरे मानस में उस समय भी बिल्कुल स्पष्ट था कि गुरुदेव "सिद्धार्थ औलिया" जी ही ओशोधारा के भागीरथ हैं।

    ध्यानसमाधि में "ॐ" का परमदान मिला और पहली बार पता चला यही असली धागा है। अध्यात्म जगत की उत्तुंग ऊँचाइयों तक इसी के सहारे पहुंचा जाता है। इससे पहले मुझे इस रहस्य के बारे में कोई भान नही थी। और फिर "ॐ" में और गहराई के लिए सुरति साधना की।

    फिर निरति अमृत, दिव्य, आनन्द, प्रेम, अद्वैत, कैवल्य , निर्वाण ... समाधियां करते हुए उनके अनुभवों से गुजरता रहा।

    नोट: आज ओशोधारा के कार्यक्रम उस समय के मुकाबले बहुत एडवांस्ड हो गए हैं। जिस तरह विज्ञान में निरंतर खोजेें होती रहती है उसी तरह गुरुदेव भी जैसे-जैसे उन पर निरंतर नए रहस्य प्रकट होते रहे वैसे-वैसे वे उसे साधकों के लिए प्रैक्टिकल रूप देकर, कार्यक्रमों के रूप में प्रस्तुत करते रहे तथा यह विकास की प्रक्रिया निरंतर जारी है... 

    ध्यान दें :- हर समाधियों में साधक की अपनी जन्मों-2 की यात्रा के हिसाब से अनुभव घटते ही रहते हैं।बहुत से साधक परेशान रहते हैं कि उन्हें कुछ विशेष अनुभव नही हुए तो ऐसे साधकों को किसी भी तरह के तनाव में नही आना चाहिए। उन्हें बस गुरुदेव को हृदय में स्थापित कर उनके मार्गदर्शन में अपनी यात्रा निरंतर जारी रखनी चाहिए औऱ सुमिरन से लय बिठाने का सचेतन प्रयास करते रहना चाहिए। सारे अनुभव संतत्व के पहले के हैं , सारतत्व बस सुमिरन है ,फिर तो सदानन्द भीतर, सदानन्द बाहर। और यह प्रत्येक साधक की संभावना है और इसी में प्रतिष्ठित  होने का संकल्प सदशियों का होना चाहिए। 

    विशेष : "ॐ" रूपी बीज गुरु के आशीष और उनके मार्गदर्शन में  निरंतर साधना करते-करते ही पुष्पित और पल्लवित होते हुए विराट वृक्ष का रूप धारण करता है। बिना गुरु के मार्गदर्शन के यह बीज ही रहता है और बीज रहते हुए व्यर्थ ही चला जाता है।

    "ॐ" को ही मैंने अपनी गहन साधना बनाया 24 घण्टे अपने पूरे जीवन में फैलाने का प्रयास करता; उठने, बैठने, खाने-पीने, चलने प्रत्येक काम उसी के स्मरण के साथ करने की गहन साधना करता रहता और गुरुदेव ने जब और रहस्य खोले, स्रोत का अनुभव कराया तब मेरी "ॐ" साधना और गहन होती गयी स्रोत के साथ "ॐ" के स्मरण को साधते हुए में गहन साधना में जीवन जीने लगा। और यह सन 2020 तक चलता रहा।



    अहंकार को चोट लगी:- 

    लद्दाख की यात्रा के लिए आश्रम में था गुरुदेव बीच में अकेले टहल रहे थे उस समय कोई प्रतिबन्ध नही था। मैं पहुंचा और कहा कि मैं भी आपके साथ टहल सकता हूँ  गुरुदेव ने कहा "नही" !!

    मैंने उन्हें प्रणाम किया वापस आ गया लेकिन गहरे में मेरे अहंकार को चोट लगी थी।

    फिर मैं सड़क मार्ग से लद्दाख कि अनूठी यात्रा में शामिल हुआ।

    समय बीतता गया धीरे-धीरे साधना आगे बढती रही...।

    कारण:-  उस समय तक आत्मा में मेरी गहराई नही थी।

    सार संदेश :- गुरु के प्रति श्रद्धा और साधना की प्यास ही हमें हमारी अंतर्यात्रा में गतिशील बनाए रखती है। 


    मज़ेदार घटना :-  

    शायद 2014 समाधि कार्यक्रम में था उस समय SHRI चिकिसा पर दोपहर में गुरुदेव के पास बहुत से मित्र परामर्श लेने जा रहे थे। मैं भी मिलने के लिए ऐसे ही प्रश्न का बहाना लेकर पहुंच गया। साथ में मेरे मित्र पद्मनाभ जी भी थे।

    जागरण : गुरुदेव क्या होमियोपैथी में ऐसी कोई दवा आती है कि उसको पहले से लेने से शुगर हो ही न।

    गुरुदेव :- नही, ऐसा नही है।

    गुरुदेव: अच्छा आप जागरण कानपुर से .... 

    जागरण : जी 

     गुरुदेव : पता चला है आप लोगों को ओशोधारा आने से रोकते हैं।

    "अच्छा आप .... कानपुर से"  इतना उनके श्री मुख से सुनते ही मेरा हृदय आनन्द से आंदोलित हो गया।

    पर जैसे ही गुरुदेव ने कहा  "पता चला है.... रोकते हैं।" 

    मैं SHOCKED हो गया !!

    ( फिर मैं चुपचाप गुरुदेव के श्रीमुख से उच्चरित अमृत को बस पीता रहा बिना उनकी बात को काटे। अर्थात जो मैंने नही किया था सहर्ष उसे स्वीकार कर लिया। )

    गुरुदेव: संघ का कार्य, गुरु का कार्य, गोविंद का ही कार्य है। जितना यह करोगे उतना ही आपका आध्यात्मिक विकास होगा।

    जागरण : जी.. जी... ।

    मुझे भयंकर SHOCK लगा था डॉरमेट्री की छत पर आकर मैं बहुत रोया कि गुरुदेव के मानस में मेरी छवि भी बनी तो नकारत्मक !!

    यह एक शिष्य के लिए संसार की सबसे बड़ी पीड़ा होती है। क्योंकि मैं जब से ओशोधारा से जुड़ा हूँ तब से तरह-तरह से मेरा एक ही प्रयास रहता है कैसे लोगो को ओशोधारा में जोड़ूँ। मैं तो स्वप्न में भी ओशोधारा के विरुद्ध गतिविधियां नही सोच सकता। आखिर किस मित्र ने गलत संदेश गुरुजी को दिया मेरी तो किसी से शत्रुता भी नही है यही सब सोचते-2 मैं खूब रोया।

     धीरे-धीरे समय बीतता रहा और साधना आगे बढती रही...

    सारांश :- गुरुदेव को गलत NEWS दी गयी थी।

    ( बाद में मुझे एहसास हुआ कि मेरा मिलने जाना शुभ रहा कि मुझे यह पता तो चला कि गुरुदेव के मानस में मेरे लिए गलत News प्रचारित की गई है। तथा साथ ही गुरुदेव न जाने कब से यह बात कहने के लिए मेरा इंतज़ार कर रहे थे। और उन्हें कितना इंतजार और करना पड़ता, क्योंकि मैं गुरुदेव के समीप जल्दी जाता ही नही !! )

    शिष्यों के लिए :- यदि आपको गुरु से प्रेम है तो आप उसे भी स्वीकार कर लीजिए जो आपने नही किया। बीच में गुरुदेव के वचनों को कदापि काटना नही चाहिए। बाद में सही अवसर देखकर गुरुदेव से निवेदन कर देना चाहिए  कि हे गुरुदेव ! आपके समक्ष मेरे बारे में जो सूचना दी गई है वह निराधार है, उसमें सच्चाई नही है। फिर भी अगर गुरुदेव संतुष्ट न हो तो मौन रहते हुए ऐसे सकारात्मक कार्य करके दिखाइए की गुरुदेव को भरोसा आ जाये कि यह तो मेरा ही अंग है।


    गुरुदेव की डांट का आशीष :

    सन 2015 में  देवसिद्धि का बीज फिर से मेरे भीतर बलवती होने लगा। मैं इससे सम्बंधित गुरु की खोज करने लगा। गुरुदेव से सन्देश के द्वारा बताया तो उन्होंने स्पष्ट डांट लगाई।

    गुरुदेव : 'आपको एक ही नाव पर रहना चाहिए। better होगा आप ओशोधारा त्याग दें।"

    फिर मैंने क्षमा में सन्देश भेजा।

    जागरण : गुरु जी के श्री चरणों में अहोभावमय प्रेमनमन। मैं ओशोधारा के साथ में हूँ। 

    सन्देश : शिष्य को विनम्रता से अपनी बात गुरु से खुलकर कहनी ही चाहिए क्योंकि गुरु के सिवा इस पूरे ब्रह्मांड में उसका है कौन ?

    और गुरु जानते है कि इस समय मेरे इस शिष्य के लिए क्या उचित है क्या अनुचित। 

    आशीष मिले तो सौभाग्य और डांट मिले तो भी सौभाग्य समझें। मेरा तो यही अनुभव रहा है।

    गुरु का आशीष गुरु की डांट सदशिष्य के लिए परमसौभाग्य का ही द्वार खोलती है।

    और सदशिष्य वही है जिसके भीतर गुरु के प्रति बस यह भाव हमेशा बना रहे -

    "हम कूकर तेरे दरबार, भौंके आगे बदन पसार।"


    जब मैं 1 साल के लिए SUSPEND हुआ :-

    सन 2016 'चरैवेति' करके आया। उसके ठीक 20 दिन बाद मेरे बड़े भाई साहब का हृदयगति रुक जाने के कारण निधन हो गया। वे 50 साल के थे। इस मृत्यु ने ने मुझे हिला दिया (कृपया सभी साधकों को ज्ञातव्य हो कि अभी गोविंद से  मेरा प्रेम घटा नही था। जिस कारण आत्मा-परमात्मा में मेरी पूर्ण प्रतिष्ठा नही हुई थी। )

    अध्यात्म में उनका कोई रस न रहने के बावजूद उन्होंने 2002 से 2016 तक मेरी आध्यात्मिक यात्रा में मुझे पूर्ण सहयोग दिया कभी भी रोका नही। बल्कि इतनी सहजता से दिया कि मैं सोचता हूँ अगर उनकी जगह मैं होता, तो शायद न दे पाता। 

    उनकी मौत ने मुझे बहुत धक्का दिया क्योंकि हमें मौत का ख्याल तभी आता है जब कोई हमारा प्रिय मरता है। चूंकि ओशोधारा में प्रज्ञाओं के आने का सिलसिला जारी था, मुझे लगा कि अब आश्रम जाना इतना कैसे संभव हो पायेगा क्योंकि अब शॉप की जिम्मेवारी मेरे ऊपर आ गयी थी।

    इसी संताप में मैंने ट्विटर पर TWEET कर दिया। जिसका भाव यह था कि ओशोधारा में 100 चलेंगे 1 पहुंचेंगे 99 रह जाएंगे, इतनी प्रज्ञाओं के कारण।

    गुरुदेव को पता चला मैसेज आया कि आपने ऐसा लिखा है कृपया स्प्ष्ट करें ?

    मैंने कहा गुरु जी, समाधि सुमिरन तक पहुंचने के लिए इतनी प्रज्ञाएँ आ गयी हैं, नए साधक इस व्यस्त संसार में कैसे यात्रा कर पाएंगे !

    गुरुदेव ने कहा कि आपको 1 साल के लिए suspend किया जाता है। तथा 1 साल तक आप ओशोधारा का कोई कार्यक्रम नही कर सकते।

    मुझे झटका लगा !

    लेकिन मैं सम्हल गया और चिंतन किया कि गुरुदेव ने सिर्फ SUSPEND किया है। सदा के लिए बाहर नही निकाला, निकाल सकते थे !!

    निश्चित ही इसमें उनकी करुणा ही छिपी है।

    मैंने इस घटना को गुरुदेव का आशीष समझ अपनी साधना को और तीव्र करने का संकल्प ले लिया, भाई साहब की अकाल मृत्यु से बोध हो गया कि अब जरा सा भी बेहोशी में नही जीना है। (वैसे भी साधना को में पूरी निष्ठा से ही करता रहा हूँ ) अर्थात अब थोड़ी बहुत बेहोशी भी मुझे स्वीकार नही।

    मैंने साक्षी सुमिरन की साधना को और तीव्र कर दिया। जिससे गोविंद से प्रेम घटने के मैं नज़दीक पहुंचता गया।


    बहुत से मित्र आश्चर्यचकित होकर अक्सर पूछते हैं :-

    बहुत से मित्र मुझसे अक्सर पूछते हैं आप तो ओशोधारा के विरोध में थे और अब आप गुणगान कर रहे हैं, यह चमत्कार कैसे !!

    मैं उनसे कहना चाहता हूँ यह कोई चमत्कार नही है बस आप लोग गुरु-शिष्य के गहरे सम्बन्धों को नही जानते, इसलिए आपको ऐसा लगता हैं। यह घटना पिता पुत्र के बीच में नाराज़गी जैसी थी और ख्याल रखें यह नाराज़गी भी गुरुदेव की तरफ से नही थी, मेरी तरफ से थी।

    कुशल पिता पुत्र को दंड भी देता है तो भी उसमें पुत्र की भलाई ही छुपी होती है, और गुरु तो परम पिता है, परम करुणावान !!

    इस घटना में मेरा परमसौभाग्य छिपा था। मैने अपनी अंतर्यात्रा को और तीव्र किया और गुरुदेव के प्रति मेरी श्रद्धा अटूट रही। फिर साधना में जैसे-जैसे गहराई बढ़ती गयी श्रद्धा धीरे-धीरे भक्ति में परिवर्तित होती गयी।

    खतरा :- अगर गुरुदेव के SUSPEND करने पर मैं अहंकार के वशीभूत होकर विरोध में उतर जाता तो आज मैं गुरुद्रोह के महापातक में फंस गया होता।

    प्रज्ञा :- मैंने इस सज़ा को गुरु का आशीष समझकर अपने जीवन का परम सौभाग्य बना लिया।

    निष्कर्ष :- शिष्यों को हमेशा गांठ बांध लेनी चाहिए। गुरु जैसा कहें जो कराएं बस करते रहिए गुरु गोविंद का ही फैलाव है उसके माध्यम से गोविंद ही कार्य करता है।इसलिए वह जो भी करेगा उसमें साधक का ही हित छिपा होगा। क्योंकि उसके हर कृत्य पर प्रभु के ही हस्ताक्षर होते हैं।


    गोविंद के प्रेम से मेरा वर्षों दूर रहने का कारण :-

    चूंकि उस समय तक ओशोधारा में त्रिविर गुरु की सत्ता थी, गुरुदेव ने करुणावश स्वामी जी और मां को भी अपने समकक्ष गुरु पद पर बिठाया था।

    स्वामी जी ज्ञान कि यात्रा से आगे न जाने की भयंकर हठ में थे। और वे साधको को भी वही तक जाने की गाइडेंस देते रहे। वे सुमिरन को मूल्य नही देते थे, जिस कारण बहुत से साधक कन्फ्यूज़ हुए, होते गए और हो रहे हैं...।

    चूंकि सुमिरन बड़ी ऊंची चढ़ाई है। प्रभु से, उस विराट से प्रेम का मामला है। और ज्ञानी प्रेम में छलांग नही लगाते !

    सारे कार्यक्रम सुमिरन, पद और चरैवेति करने के बाद तक  गोविंद से प्रेम मेरे जीवन में अभी तक घटित नही हुआ था।

    साक्षी सुमिरन की साधना को मैंने सतत सम्हाला। पर साँसों के द्वारा आत्मा-परमात्मा के प्रेम के परमरास से दूर रहा। यह सोचकर आज स्वयं की अज्ञानता पर तरस आता है।


    मेरे जीवन में गोविंद से प्रेम की परमधन्यता :

    2021 में मेरे जीवन में सुमिरन की परमधन्यता गोविंद से प्रेम !! गुरुकृपा से घटा। गोविंद से प्रेम ही तो अति कठिन है। मैंने सांस-सांस सदानन्द में जीने का सचेतन प्रयास सघनता से प्रारंभ कर दिया। धीरे-धीरे मेरा गोविंद से गठबंधन हो गया। और सुमिरन के द्वारा आत्मा और ब्रह्म में मेरी गहरी जड़ें जम गईं। सुमिरन की यही अपार महिमा है कि इसके द्वारा आत्मा -परमात्मा में हमारी प्रतिष्ठा सहज ही हो जाती है।

    सुमिरन की महिमा जितनी भी कही जाए कम है। गुरुदेव की अपार करुणा है कि वे हमें सुमिरन से कम पर ले जाने को राज़ी नही हैं। हम ही अज्ञानता में उनकी अपार करुणा को नही समझ पाते और बीच -बीच में मनमुखी करने लगते हैं।

    गुरुदेव के आशीष से मैं सुमिरन के द्वारा सदानन्द में प्रतिष्ठित हो गया हूं, संतत्व में प्रतिष्ठित हो गया हूँ। अब मैं गुरुदेव की कृपा से 99% सदानन्द में जी रहा हूँ... मेरी शुरू से आदत है साधना में मैं कम पर राज़ी नही होता। मैंने दो तरह के पियक्कड़ देखें हैं एक वे जो नित्य रात्रि में पैग लगाते हैं। और दूसरे सुबह से ही टुन्न हो जाते हैं, पूरी तरह उसी में डूबे रहते हैं। तो मैं दूसरे तरह का पियक्कड़ हूँ; कुछ लोग अपवाद भी होते हैं न !!

    अब मैं जैसे ही कर्म से मुक्त होता हूँ वैसे ही विशुद्ध सुमिरन में चला जाता हूँ, जैसे कर्म में आता हूँ फिर शुद्ध सुमिरन में शिफ्ट हो जाता हूँ। गुरुदेव के आशीष से धीरे-धीरे यह अब सहज हो रहा है। मैं 99% से कम पर राज़ी नही हो सकता। अब तो एक क्षण भी गोविंद से विरह सहन नही होता है।

    "गुरुदेव ने संतत्व की परिभाषा दी है - कि जिसकी जीवनशैली सदानन्द मय हो गयी है वह सन्त है, संतत्व में प्रतिष्ठित है। और जो संत हुए, वे हरि के प्यारे हो गए।  'जो हरि का प्यारा वो सबना का प्यारा।"

    यदि हम सदानन्द में प्रतिष्ठित हो जाते हैं, तो फिर गिरना नही होता।

    निष्कर्ष :- त्रिविरगुरु का प्रयोग FAIL कर जाने के बाद यह स्पष्ट हो गया है कि जब तक किसी भी आध्यात्मिक धारा में एक ही गुरुसत्ता होती है, तभी तक साधको को सही मार्गदर्शन मिल पाता है। गुरु Real में क्या देना चाहते हैं तब ही सही से साधकों के समक्ष स्पष्ट हो पाता है।

    जब दो सुर होते हैं तब सिर्फ कन्फ्यूज़न और मनमानी करने का मन को अवसर मिलता है। गुरुसत्ता की कृपा से अब ओशोधारा में 'एक गुरुसत्ता ' स्थापित हो गयी है।


    सदानन्द की महिमा :-

    ज्ञान की यात्रा में  99% गिरना सम्भव है। कोई बिरले बुद्ध, महावीर, रमण, कृष्णमूर्ति , आदि... ही प्रतिष्ठित हो पाते हैं। बहुत से ज्ञानी मित्र गिरे हैं उनकी अंतर्यात्रा को पढ़ें। बड़े बड़े अनुभव ,और अब उनके जीवन को देखें तो आप सिर पीट लेंगे।

    सुमिरन से सदानन्द में प्रतिष्ठा होने के बाद, संतत्व घटने के बाद कभी न कोई गिरा न गिर सकता है। सुमिरन की यही तो महिमा है। क्योंकि जो सांस -सांस प्रभु प्रेम में रहेगा वह प्रभुमय ही होता जाएगा, मन को अवसर ही नही मिलेगा, मिट ही जायेगा मन। बस काम चलाऊ रह जायेगा जब चाहा उपयोग कर लिया और पृष्ठभूमि में सुमिरन सतत चलता रहेगा। 

    सदानन्द ही अध्यात्म का उत्कर्ष है। एक सद्शिष्य को उससे कम पर कभी राज़ी नही होना चाहिए। ओशो भी इस महिमा से चूक गए थे क्योंकि उन्हें बताने वाला कोई नही था, यह उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है। गुरुदेव उस रहस्य को सहज दे रहे हैं फिर भी अगर हम चूक जाएँ तो हमसे बड़ा अभागा कोई नही होगा  !!!

    ध्यान बुध्दत्व, आत्मज्ञान की तरफ यात्रा है। और भक्ति सुमिरन, प्रभु प्रेम की यात्रा है। गुरुदेव ने इस गूढ़रहस्य को खोल दिया है कि ध्यान और भक्ति दो अलग मार्ग नही हैं।ध्यान यात्रा का पूर्वार्द्ध है तो भक्ति उसका उत्तरार्द्ध है। प्रज्ञावान साधकों को अपनी अंतर्यात्रा को ध्यान से भक्ति की तरफ, ज्ञान से सुमिरन की तरफ ले जाना चाहिए। ताकि हमारे जीवन में गुरु कृपा से सदानन्द की महिमा घटित हो जाए।


    मेरे जीवन में गोल्डन मोड़ :

    17 DEC की चरैवेति के बाद 23 SEP 19 को ओशोधारा संसद में पहुंचा था।

    कारण, एक साल तो ससपेंड था। तथा 1 साल में नई प्रज्ञाएँ अभी पूरी नही हो पायीं थी और अब जाने का समय कम मिल पा रहा था।

    चूंकि ओशोधारा में गुरुद्रोह कर आश्रम हथियाने की साज़िश की गई थी। ( जिसको विस्तार से आप सद्गुरु की धारा blog के गुरुद्रोह और षड्यंत्र कॉलम में देख सकते हैं। ) जिस कारण मैंने गुरु महिमा पर लेख लिखना प्रारम्भ किया।

    भगवान शिव के साक्षत्कार के लेख में DATE की गलती हो गयी थी। गुरुदेव ने मुझे WHATSAPP से UNBLOCK करके संदेश भेजा कि कृपया यह गलती सही करें यह DATE नही, यह DATE है।

    फिर मैंने गुरु महिमा पर एक लेख लिखा, दूसरा लिखा।फिर मुझे चिंता सताई की आखिर कितना लिख पाऊंगा !फिर मैंने गोविंद पर गुरुसत्ता पर छोड़ दिया कि अब आप ही जानो। और फिर गुरुदेव के आशीष से सतत लेख पर लेख उतरते गए मैं भी आश्चर्यचकित था!! इसे आप SADGURU KI DHARA BLOG  पर 'गुरु की महिमा' कॉलम पर पढ़ सकते हैं।

    मेरे प्रिय मित्र निष्काम ने मुझे ब्लॉग बनाने की प्रेरणा दी। और फिर SADGURU KI DHARA ब्लॉग जो परमगुरु ओशो, गुरुनानकदेव, सूफी बाबा और गुरुदेव को समर्पित है। उसे बनाकर मैंने गुरुदेव को दिखाया। गुरुदेव ने उसे बहुत पसंद किया। और फिर गुरुदेव, सन्तों के साथ और तीर्थों की अपनी यात्रा के सारे संस्मरण मुझे निरंतर प्रदान करते रहे..। जिससे SADGURU KI DHARA BLOG अध्यात्म के दिव्य अलौकिक खजानों से भरता गया और यह आज भी जारी है...।


    UNBLOCK !! की मज़ेदार घटना :- 

    हुआ ये की यह घटना आश्रम में हुए षड्यंत्र के प्रगटीकरण के कुछ महीने पहले और मेरे SUSPEND की समयसीमा की समाप्ति के बाद की है। मैं गुरुदेव से WHATSAPP पर जुड़ा था, कुछ मेरी गलती हुई तो गुरुदेव ने कुछ पूंछा, मुझे समझ नही आया तो मैने लिखा गुरुदेव मैं समझा नही। गुरुदेव ने मुझे BLOCK कर दिया।

    मुझे बड़ा कष्ट हुआ कि नासमझी में मुझसे क्या गलती हो गयी, कि मैं गुरुदेव के मन्तव्य को नही समझ पाया ! मैं अपने को कोस रहा था और सोच रहा था अब तो जब गुरुदेव ही UNBLOCK करेंगे तभी हो पायेगा। पता नही गुरुदेव UNBLOCK अब करेंगे, कि नही !! मैंने गहन भाव कर लिया कि मुझे कुछ ऐसा कर दिखाना है कि गुरुदेव ही मुझे UNBLOCK करें !!

    और मैं गुरु प्रेम में रहते हुए गुरु के कार्य को पूरी निष्ठा से करने में संलग्न हो गया।

    और एक दिन गुरुदेव ने मुझे UNBLOCK कर, संदेश भेजा ! 

    वह मेरी जिंदगी का अभूतपूर्ण क्षण था  !!! 

    मेरे आनन्द की कोई सीमा नही.. मेरा हृदय आकाश में विस्तारित - सा हो गया था, अहोभाव के आंसू से भर गया कि गुरुदेव ने मुझे याद किया !!!

    इस आनन्द को सिर्फ सदशिष्य ही समझ सकते हैं !!!

    9 से 14 DEC 2019 की चरैवेति में मेरी चेतना ने और उड़ान भरी जहां गुरुदेव ने गुरुको हृदय में धारण करने की क्रिया समझाई। (गोविंद से प्रेम अभी घटा नही था।)

    गुरुदेव कि कृपा से 2021 से मेरा गोविंद से प्रेम घटना शुरू हुआ और मैं आश्चर्यचकित हो गया इतनी महिमा से भरी इस परमधन्यता से मैं दूर कैसे रहा और फिर तो मुझे खजाना मिल गया। 

    गोविंद से प्रेम साधना का उत्कर्ष है बड़ी ऊंची चढ़ाई है। कठिन है पर गुरु आशीष और उनके मार्गदर्शन पर चलते हुए  एकनिष्ठ साधना के द्वारा सहज घट जाती है। बस एक बार हमारी लयता बैठ जाये, और इसे बिठाने में ही समय लगता है। एक बार इसका आनन्द मिल गया फिर हम रुक नही सकते, फिर वह खुद हमको खींचने लगता है। लेकिन शुरुआत कठिन है, पर असम्भव नही। और निष्ठावान और संकल्पवान साधक के लिए कुछ भी असम्भव नही।

    "जैसे ही 2021में मेरी  "प्रभु -प्रेम " में प्रतिष्ठा हुई वैसे ही एक बहु बड़ी पीड़ा अपने प्यारे भारत की पैदा होने लगी। क्योंकि चारो तरफ से वहाबी-सलाफी मिशनरीज़ और वामपंथी रूपी अजगर भारत को निगलने में लगे हुए हैं, यह मुझे स्प्ष्ट दिखने लगा।"

    मैने गुरुदेव से कहा क्या करूँ अपने प्यारे भारत को बचाने में अपना कैसे योगदान दूं। क्योंकि परमगुरु ओशो के वचन भारत नही बचा या सनातनधर्म नही बचा तो मानवता भी नही बच पाएगी। अब बिल्कुल सत्य प्रतीत हो रहे थे। क्योंकि भारत के सिवा कोई प्लेटफॉर्म नही है; बुध्दत्व का संतत्व का। क्योंकि यह घटना सिर्फ जीवित गुरु पररम्परा में ही घटती है और यह महान योगदान भारत की ही देन है और यहां यह परंपरा सतत चल रही है...। अगर सनातनधर्म नष्ट हुआ तो ये सब खत्म हो जायेगा। फिर असंख्य प्यासी चेतनाओं का क्या होगा ? और फिर राम,कृष्ण बुद्ध, नानक और ओशो जैसी विराट चेतनाएं दुबारा पिकनिक मनाने कैसे आ पाएंगी। और गुरुदेव के साथ हम सब फिर दुबारा 2121 में बैंकुंठ के अद्वैत के आनन्द से इस पृथ्वी पर गोविंद के प्रेम में जीने के आनंद, सुमिरन का मज़ा लेने कैसे आ पाएंगे ?

    "गुरुदेव ने कहा आप अच्छा लिखते है भारत की आवाज़ बनिए।"

    और तब से मैंने निरन्तर लिखना प्रारम्भ किया और गुरुदेव के आशीष से यह सतत जारी है...

    गुरुदेव ने मेरी छिपी हुई लेखन की प्रतिभा को पहचाना और मुझे प्रोत्साहित किया और उनकी छत्रछाया में यह  निरन्तर परिमार्जित होती जा रही  है...जिसे 37-38 साल पहले  विकसित होने था। चूंकि मेरे बुजुर्ग उसे पकड़ नही पाए और मुझे उन विषयों में जबरदस्ती भावनात्मक दबाव बनाकर पढ़ने के लिए कहा गया जिसमें मेरा कोई रस नही था। 

    मिशन : अब मेरे जीवन का एक मिशन और है कि अपने प्यारे भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित करवाना और उसे पूरी तरह से सुरक्षित करना, इन अजगरों से !!


    गुरुदेव के द्वारा देवस्वरूपसिद्धि का उपहार :-

    बस ओशोधारा में मुझे एक कमी और खलती थी वह देव सिद्धि की क्योंकि मैं इसका बीज पिछले जन्मों से ही लेकर आया था। गुरुदेव से पहले भी डरते हुए मैं इशारा करता था, पर गुरुदेव मना कर देते थे। उचित समय आने पर उन्होंने कहा कि मैं देवसिद्धि का राज़ जल्द देने जा रहा हूँ और  गुरुदेव ने देव सिद्धि की अद्भुत विधि 'स्वरूप सिद्धि' की साधना को सबके समक्ष उजागर कर दिया। जिसे ओशोधारा में "हनुमत्स्वरूप सिद्धि" के नाम से जाना जाता है

    "गुरुदेव बताते  है कि मंत्र सिद्धि सुमिरन में बाधक है स्वरूप सिद्धि सुमिरन में सहायक है चूँकि गोल तो हमारा सुमिरन है इसलिए हमें ऐसा कोई कार्य नही करना है जो सुमिरन में बाधक हो, हाँ जिससे हमारा सुमिरन और विकसित हो उसे हमे अपनाना है। देव स्वरूप के साथ सुमिरन ऐसा ही है जैसा सोने में सुगन्ध।"

    1992 से मैं देवसिद्धि का निरंतर प्रयास करता रहा था पर कभी सफल नही हुआ, गुरुदेव ने स्वरूप सिद्धि का महादान देकर मुझे इससे भी मुक्त कर दिया। अब मैं    गुरुदेव की कृपा से देवस्वरूप के साथ सुमिरन में प्रतिष्ठित होकर संतत्व का जीवन जी रहा हूँ। गुरुदेव की कृपा से अब मेरे पास गुरु बल, गोविंद बल, देव बल सब है।

    "देवस्वरूप सिद्धि के साथ विचार शून्यता और अहंकारशून्यता सहज घटती है। संसार में निरन्तर छवियां हमें पड़कती रहती है, जाने अनजाने वह हमारे अवचेतन के दर्पण पर जमा होती रहती हैं पर स्वरूप सिद्धि के बाद हमारा अवचेतन का दर्पण इन छवियां से अस्पर्शित रहता है। और धीरे धीरे देवस्वरूप के साथ सुमिरन इतना सहज हो जाता है कि बिलकुल एकरूपता आ जाती है ,अर्थात देवस्वरूपमय होकर सुमिरन चलने लगता है।"

    अति महत्वपूर्ण बात :- सुमिरन तो बिना देवस्वरूप के भी मज़े से किया जा सकता है। पर गुरुहृदय + देवस्वरूप के साथ सुमिरन का आनंद ही कुछ और है ! यहां साधना उत्कर्ष को छू लेती हैं। यही सनातन धर्म है, यही सत्धर्म है। गुरुदेव हमें इसी अद्भुत यात्रा पर ले जा रहे हैं।


    मेरा मित्र मेरा प्यारा साधनाकक्ष :

    मेरे घर में मेरा एक छोटा सा साधना कक्ष है जिसको करीब 25 साल हो गए हैं। मेरे सिवा उसमें कोई नही जाता है।

    इस साधनाकक्ष ने मेरी साधना को गति देने में शुरुआत में बहुत मदद की है। एक साधनाकक्ष तो सभी साधक के पास होना ही चाहिए।


    परिस्थिति को दोष मत दें :

    मेरे जीवन की चर्या यह है कि सातो दिन मेरे लिए बराबर है। साल में सिर्फ 1 छुट्टी जिस दिन होली खेली जाती है या शरीर बीमार हो तब।

    हालांकि सुमिरन के लिए मेरे लिए कोई समस्या नही है मेरा सुमिरन चलता ही रहता है।

    गुरु के कार्य को कैसे किया जाए इस व्यस्त शेडयूल में यही पीड़ा परेशान करती थी। मैंने परिस्थिति को बदलने का बहुत प्रयत्न किया पर असफल रहा।

    फिर गुरुदेव के आशीष से मुझे अन्तरबोध जागा कि परिस्थिति की शिकायत करने से अच्छा है जो समय मिले उस समय गुरु का कार्य कर उस्का सदुपयोग करें।

    सुमिरन में जब आप प्रतिष्ठित होने लगते हैं तब गुरुकृपा से गोविंद हमारा सतत उपयोग करने लगता है। (इस राज का मुझे सतत अनुभव होता है।)

    फिर जैसे कोई विचार उतरते मैं उसे मोबाइल पर save कर लेता।

    इस तरह धीरे-धीरे गुरु महिमा पर मेरे द्वारा गुरु आशीष से लेख उतरते गए और पूरा collection तैयार हो गया।

    और यह सतत चल रहा है, tweet के रूप में,आदि...।

    जब मैं इतने व्यस्त शेडयूल से इतना कर लेता हूँ तो सभी सदशिष्य गुरु के कार्य को कर सकते हैं।


    गुरुदेव की कृपा से जीवन लीला हो गया है :

    गुरुदेव की कृपा से अब दुकान, घर, सारा संसार लीला हो गया है। सतत सदानन्द में रहते हुए प्रभु की इस लीला में मस्ती से जीना हो रहा है।

    मेरे जीवन का परमआनन्द अब 24 घण्टे सदानन्द में जीते हुए गुरु के कार्य को विस्तार देना है।

    शयन ब्रह्म की गोद में, जागूं तो हरिनाम।

    बड़े भाग 'मुर्शिद' मिले, सुमिरन आठो याम।।

    मैं भी कबीरदास जी की तरह उद्घोष करता हूँ - "भलो भयो हरि बिसरयो, मेरे सर से टली बलाय।"


    सदा आपके श्री-चरणों का पुजारी रहूं :

    गुरु से बड़ा दाता और करुणावान पूरे ब्रह्मांड में कोई नही है। जन्मों-जन्मों से हम सो रहे थे। न जाने कितने अनन्त जन्म और बेहोशी में बीत जाते।

    हे गुरुदेव! हम अज्ञानता और अहंकार से भरे अपात्रों को आपने स्वीकार किया और वह सब कुछ प्रदान कर दिया जो कुछ बिरलों को ही अतीत में गुरु दिया करते थे।

    अगर हम अपने आने वाले सारे जन्म भी आपके "श्री-चरणों" में बिता दें, तो भी कम होगा।

    गोविंद से बस अब मेरी एक ही प्रार्थना है कि सदा आपके "श्री-चरणों "का पुजारी रहूं।


    हमें अध्यात्म और संसार दोनों में खिलना है :-

    हम आध्यात्मिक और सांसारिक क्षमताओं के दोनों बीज लेकर आते हैं। और जब तक दोनों को प्रगट नहीं करते तब तक सम्पूर्णता नही घटती। हमारी आध्यात्मिक क्षमता है आत्मा परमात्मा को जानकर उसके सुमिरन में जीना। और सांसारिक क्षमता है कि हम क्या प्रतिभा लेकर आएं हैं डॉक्टर, इंजीनियर, साहित्यकार, खिलाडी, आदि..आदि ... उसे जानकर विकसित करना।

    ओशोधारा की समाधियां और प्रज्ञाएँ हमारी चेतना और प्रज्ञा को निरंतर विकसित करती रहती हैं...। और धीरे-धीरे  हमें पता भी नही चलता और हमारा जीवन स्वयमेव सम्पूर्णता की तरफ अग्रसर होता जाता है।

    मेरी समाधियां :-

    ● ध्यान से सुरति समाधि 22 मार्च - 09 अप्रैल 2002 (जबलपुर)

    ● निरति से अमृत समाधि 22 जुलाई - 09 अगस्त 2002 (जबलपुर)

    ● दिव्य समाधि & आनन्द समाधि 10-27 फरवरी 2003 (माधोपुर)

    ● प्रेम समाधि 01-09 जून 2003 (चितवन,नेपाल)

    ● अद्वैत समाधि 20-28 फरवरी 2004 (नानकधाम)

    ● कैवल्य समाधि 11-19 मार्च 2005 (नानकधाम)

    ● चैतन्य समाधि 11-19 अप्रैल 2007 (नानकधाम)

    ● निर्वाण समाधि 11-19 दिसंबर 2007 (नानकधाम)

    ● सहज़ सुमिरन 12-18 जुलाई 2008 (नानकधाम)

    ● ऊर्जा समाधि 29-06 अप्रैल 2009 (नानकधाम)

    ● चैतन्य सुमिरन 26-01 मई 2010 (नानकधाम)

    ● आनन्द सुमिरन 23-28 अगस्त 2010 (नानकधाम)

    ● प्रेम सुमिरन 24-29 जनवरी 2011 (नानकधाम)

    ● चैतन्य पद 18-23 जुलाई 2011 (नानकधाम)

    ● आनन्द पद 27-03 मार्च 2012 (नानकधाम)

    ● प्रेमपद 20-25 अगस्त 2012 (नानकधाम)

    ● प्रभु पद 08-13 अप्रैल 2013 (नानकधाम)

    ● ब्रह्म पद 07-12 अक्टूबर 2013 (नानकधाम)

    ● गोविंद पद 17-22 मार्च 2014 (नानकधाम)

    ● परमपद 17-22 नवंबर 2014

    ● अजपा समाधि 04-09 अप्रैल 2016 (नानकधाम)

    ● अभयपद 11-16 अप्रैल 2016 (नानकधाम)

    ● चरैवेति 12-17 दिसंबर 2016 (नानकधाम)


    मेरी प्रज्ञाएँ :-

    ● सम्मोहन प्रज्ञा 09-11 जुलाई 2008 (नानकधाम)

    ● महाजीवन प्रज्ञा 15-17 दिसंबर 2008 (नानकधाम)

    ● मुद्रा चिकित्सा 03-05 नवंबर 2011 (नानकधाम)

    ● गायन प्रज्ञा 21-23 नवंबर 2011 (नानकधाम)

    ● हंस प्रज्ञा 18-20 फरवरी 2013 (नानकधाम)

    ● उमंग प्रज्ञा 21-23 फरवरी 2013 (नानकधाम)

    ● मोक्ष प्रज्ञा 17-19 जनवरी 2013 (नानकधाम)

    ● होमिओ प्रज्ञा 18-23 मार्च 2013 (कर्माधाम)

    ● रेकी प्रज्ञा 13-18 अप्रैल 2015 (नानकधाम)

    ● स्वास्थ्य प्रज्ञा 02-04 जुलाई 2015 (नानकधाम)

    ● जीवन प्रज्ञा & मैत्री प्रज्ञा 12-17 अक्टूबर 2015 (नानकधाम)

    ● आयुर्वेद प्रज्ञा 15-20 फरवरी 2016 (नानकधाम)

    ● मिस्टिक रोज़ 06-10 मई 2020 (ऑनलाइन)

    ● दाम्पत्य & वात्सल्य प्रज्ञा 01-08 जून 2020 (ऑनलाइन)

    ● कायकल्पम 01-09 अगस्त 2020 (ऑनलाइन)

    ● प्रकृति चिकित्सा 21-29 अगस्त 2020 (ऑनलाइन)

    ● Women Empowerment 14-17 अगस्त 2021 (ऑनलाइन)


    ओशोधारा में संसार को सुंदर बनाने के लिए गुरुदेव ने चार दरबारों का भी आयोजन किया है :-

    1. हनुमत्स्वरूप सिद्धि (हर महीने के प्रथम गुरुवार को)

    2. विष्णु दरबार (हर महीने के द्वितीय गुरुवार को)

    3. सूफी दरबार (हर महीने के तृतीय गुरुवार को)

    4. शिव दरबार (हर महीने के चतुर्थ गुरुवार को)


    समाधि और प्रज्ञा कार्यक्रम :-

    गुरुदेव के द्वारा सृजित ओशोधारा के 28 तल के समाधि के कार्यक्रम अध्यात्म का पूरा मानचित्र है। अब कोई भी निष्ठावान साधक आत्म ज्ञान से ब्रह्मज्ञान और इन सबका उत्कर्ष भक्ति की परमधन्यता की यात्रा पर पहुंच सकता है।

    और  42 प्रज्ञा कार्यक्रमों के द्वारा हम संसार की अपनी बहुमुखी प्रतिभा को पल्लवित और पुष्पित कर सकते हैं।

    अध्यात्म में और संसार में एकसाथ अपने पंख फैला सकते हैं और तभी हम परमगुरु ओशो के स्वप्न "जोरबा दि बुद्धा" को पूरा कर सकते हैं।


    अब दायित्व हमारा है :-

    गुरुदेव ने ओशोधारा में अध्यात्म का, सनातनधर्म का सम्पूर्ण पैकेज उपलब्ध करा दिया है। अब ये प्रत्येक निष्ठावान साधकों, प्रत्येक सनातनियों का दायित्व है, जिम्मेदारी है। कि इन खजानों को प्राप्त कर भारत को पुनः उसकी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक गौरवमयी महिमा में प्रतिष्ठित करें।

    सदा स्मरण रखें अध्यात्म की यह महिमामयी यात्रा गुरु से ही प्रारंभ होती है और सतत गुरु के साथ ही चलती रहती है। चरैवेति..चरैवेति...।                ~  04 जुलाई  2021

    "मेरी समाधि पर लिखना जो सो रहा, वो गुरुकृपा से जाग गया।

    गुरु से इतना प्यार किया 

    गोविंद सदानन्द में स्वयं सराह गया।

    विष्णु धाम से गुरुवर के लिए आया , और उनका दास बनकर सदा आता रहेगा। "        


    अनंतसंसार समुद्रतार नौकायिताभ्यां गुरुभक्तिदाभ्याम् ।

    वैराग्यसाम्राज्यदपूजनाभ्यां नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम् ॥ 1 ॥


    कवित्ववाराशिनिशाकराभ्यां दौर्भाग्यदावां बुदमालिकाभ्याम् ।

    दूरिकृतानम्र विपत्ततिभ्यां नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम् ॥ 2 ॥


    नता ययोः श्रीपतितां समीयुः कदाचिदप्याशु दरिद्रवर्याः ।

    मूकाश्र्च वाचस्पतितां हि ताभ्यां नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम् ॥ 3 ॥


    नालीकनीकाश पदाहृताभ्यां नानाविमोहादि निवारिकाभ्यां ।

    नमज्जनाभीष्टततिप्रदाभ्यां नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम् ॥ 4 ॥


    नृपालि मौलिव्रजरत्नकांति सरिद्विराजत् झषकन्यकाभ्यां ।

    नृपत्वदाभ्यां नतलोकपंकते: नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम् ॥ 5 ॥


    पापांधकारार्क परंपराभ्यां तापत्रयाहींद्र खगेश्र्वराभ्यां ।

    जाड्याब्धि संशोषण वाडवाभ्यां नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम् ॥ 6 ॥


    शमादिषट्क प्रदवैभवाभ्यां समाधिदान व्रतदीक्षिताभ्यां ।

    रमाधवांध्रिस्थिरभक्तिदाभ्यां नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम् ॥ 7 ॥


    स्वार्चापराणां अखिलेष्टदाभ्यां स्वाहासहायाक्षधुरंधराभ्यां ।

    स्वांताच्छभावप्रदपूजनाभ्यां नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम् ॥ 8 ॥


    कामादिसर्प व्रजगारुडाभ्यां विवेकवैराग्य निधिप्रदाभ्यां ।

    बोधप्रदाभ्यां दृतमोक्षदाभ्यां नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम् ॥ 9 ॥

             https://youtu.be/cTGngR-BitQ


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    4 comments:

    1. स्वामी जागरण सिद्धार्थ जी
      सादर प्रणाम
      आप की आध्यात्मिक यात्रा को एक ही बैठक में अभी सुबह-सुबह ही पढ़ गया। ऐसा लग रहा था पढ़ते हुए जैसे में ओशो धारा के इतिहास को पढ़ रहा हूं। अद्भुत।
      पिछले जन्मों से ही निश्चित ही आपकी सघन प्यास थी जो इस जन्म में प्रारंभ से ही सद्गुरु प्रेम के लिए आप तड़प रहे थे। आपकी इस संतत्व की यात्रा को पढ़कर हजारों लाखों लोगों को अपनी साधना में बड़ी प्रेरणा मिलेगी। सचमुच में आपने जीवन को दांव पर लगाया है और तभी परमगुरु ओशो और सद्गुरु की कृपा से आपको जीवन का परम फल प्राप्त हुआ है। मैं अस्तित्व से परमात्मा से प्रार्थना करता हूं कि आप सदा सुमिरन में जीते हुए, सतगुरु की सेवा करते हुए 100 से अधिक साल तक इस संसार को सुवासित करें।
      – आचार्य दर्शन, बिलासपुर छत्तीसगढ

      ReplyDelete
    2. प्यारे आचार्य जागरण सिद्धार्थ जी, प्रेम प्रणाम। आपके "मेरी संतत्व तत्व की यात्रा" पढ़कर बहुत अच्छा लगा बहुत जल्दी पढ़ गया ।यह‌ बहुत लोगों के प्रेरणा का विषय बनेगा। आपकी संतत्व की यात्रा पूर्व जन्म से ही शुरू हो चुकी है। घर के संस्कार,परिस्थितियां आध्यात्मिक यात्रा के जड़ को गहरा करता है ।मैंने भी जब ओशो को पत्र लिखा था 2080 में जब उनसे दीक्षा ली थी ।बहुत ही विषम परिस्थितियों से गुजर रहा था ।परिवारजनों,परिवार और संसार उनके साथ विचित्र परिस्थितियों में जी रहा था। ओशो को मैंने पत्र लिखा था मैं क्या करूं? प्यारे ओशो ने पत्र द्वारा सूचित किया कि यदि तुम सक्षम नहीं हो नव सन्यास,साधना यात्रा मे तो तुम या तो वापस कर दो नवसन्यास का माला और नाम पत्र ।या अपनी साधना जारी रखो ।उनको उनका काम उनको करने दो। तुम अपना काम करो और अपने साधना करते रहो। संसार में जीते रहोगे तो तुम्हारी जड़ बड़ी गहरी जाएंगी। वास्तव में ऐसा ही हुआ । प्यारे जागरण जी आप खड़े उतरे बचपन से अब तक आस्था में,संसार में, प्यारे सदगुरु ओशो धारा दरबार में । 2002 से अब तक आपने प्यारे सतगुरु के चरण नहीं छोड़े ।प्यारे से जिनको आप खोजते थे वे आपके दिल में बस गए। मोहब्बत हो गई ।मोहब्बत किसी को छोड़ता नहीं ।अपना काम किए जाता है ।वह प्रेम वह इश्क आप को इस मुकाम तक ले आया कि आप दूसरे के प्रेरणा स्रोत बन ग‌ए हैं । सद्गुरु की कृपा,साधना में जीवन में ,देव सिद्धि में सब में उपलब्ध है।अब देखिए आगे क्या क्या हो रहख है। जीवन जीते जा रहे, जीते जा रहे, धन्य जीवन । जय हो ओशो की, प्यारे सद्गुरु की,आपकी,जय हो जय हो ।बहुत सुंदर प्रस्तुति भी है आपकी। बिन सतगुरु संत कबीर का प्रसिद्ध वचन को आप ने सिद्ध कर दिया "बिन सद्गुरु नर रहत भुलाना'। सद्गुरु मिलने से जीवन में क्या होता है वह आप पा लिए हैं।
      संतत्व की यात्रा शुरू होती है सद्गुरु मिलन से उनके चरणों में बैठने से ही मिलती है ।पूरी तो होती नहीं यह यात्रा ।यात्रा जारी हघ रहती है चरैवेति चरैवेति... बधाई हो आपको बधाई हो बधाई ... ।सतगुरु की जय हो जय हो,आपकी यानि एक संत की जय हो।
      आचार्य प्रशांत योगी,पटना,बिहार।

      ReplyDelete
    3. सदगुरू कि अनंत करुणा है हम सब पे

      आप कि साधना यात्रा सभि साधकों को मागॅदशॅक रुप है

      साधक के जीवन मे कारण चाहे जो भी हो साधना मे उतार चढावा तो आते ही इस अनुभव से हमारी गहराई आती है

      आप की अनुभव कि पुंजी हम सब के लिए मूल्यवान है
      अहोभाव

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    4. अद्भुत! सद्गुरु के आशीष आप पर ऐसे ही बरसते रहे।

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